जो बोली धरा....
यकीन करो,
मुझे भी इन बूंदों में जीवन का गीत गाना था.
हरा रंग पहनके मुस्कुराना था....
मैंने भी मांगी थी
मुट्ठी भर छांव
मुझको भी भाती थी नदियों की ठांव..
मैंने ही बीजों में जीवन को बोया था...
कटती इन शाखों में सांसों को खोया था.....
पर तुम नहीं मानें...
कीमत नहीं जानें....
मेरी कोख पर जब कुदाली चलाई थी
टूटी थी सांसे तब, फूटी रुलाई थी...
फिर बांहे भी काटी...
और सीना भी चीरा था....
नीम, बरगद, अमरुद.आम
क्रंक्रीट जंगल में, लगा इनका दाम
अब जो तुम से रुठ गई हूं ....
हाथों से जो छूट रही हूं....
संभल भी जाओ....
यकीन करो मुझे भी इन बूंदों में जीवन का गीता गाना है....
हरा रंग पहनके मुस्कुराना है....
शिफाली
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