खत लिखना आपसे ही सीखा था....यहां सब कुशल मंगल है...पत्र यहीं से शुरु होता है हमेशा
चाहे मंगल कहने को बस मंगलवार ही हो तुम्हारे पास..आपसे ही सीखा
.नहीं बाबा, आप कोई टेंशन नहीं लेना...वाकई सब कुशल मंगल से है...
पर जाड़े के ये दिन नहीं गुजर रहे....तीन दिन हो गए
दीदी के हाथ का स्वेटर ही पहनी हुई हों....उतारती हूं तो लगता है कि घर से दूर निकल आई हूं कहीं पहन लेती हूं, तो अम्मा के साथ सिगड़ी तापने लगती हूं बरामदे में बैठकर....
पर बाबा यहां एक ही मौसम है....बस एक मुंजमिद खामोशी .....
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बाबा, चांदनी फूल आई होगी अब तो...
गुजरते जाड़े में आम पर बौर भी आ जाएगा....
भाई से कहना..मेरे हिस्से वाली कैरियां
वो ही रख ले...
अबकि मैं लड़ने नहीं आऊंगी उसके पास
मैं भी क्यूं आऊं खट्टी झूठी कैरियां खाने इतनी दूर वहां
बाबा....पर आप भी झूठ क्यूं कहते थे,
कि तू पास ही रहेगी,
आंगन के आम जितनी पास
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अम्मा से कहना, तसल्ली कर ले
अब कैंची की तरह ज़बान नहीं चलती मेरी
अच्छी लड़कियां जोर से नहीं हंसती
अच्छी लड़कियां गाना नहीं गाती
अच्छी लड़कियां खिड़की पर नहीं आती
अच्छी लड़कियां.., सच नहीं कह पातीं
कुछ नहीं भूली हूं
और सच कहूं कुछ याद भी नहीं है...
कि कब जोर से हंसी थी आखिरी बार...
कब जोर का गाना गाया था...
खिड़की खुल भी जाए इत्तेफाक से तो किसी दीवार के आगे
ही खुलती है
.......
बाबा,
वो दादी का पलंग...अलमारी,
वो पुराना कमजोर सोफा
सब महफूज़ है ना घर में
फिर मैं कैसे छूट गई हूं.....
शिफाली
( नोट-.....ताकि हमारी जिंदगी में पोस्टकार्ड और अंर्तदेशीय बनें रहें....चिट्ठी लिखिए कि लाल डिब्बा उदास है...
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