स्कूल बस में, उम्मीद चढती हैं...सपने चढते हैं....
स्कूली बस के साथ हुए ऐसे हादसे हमेशा सिर्फ खबर ही नहीं होते। वो डर बनकर आते है। वो कानों से चढते है और आंखों से उतरते है आंसू बनकर। स्कूल बस में दुनियादारी नहीं चढती। स्कूली बसों में मासूमियत सवार होती है। डीपीएस की उस बस में सवार 12 बच्चे भी भीड़ भर ही तो नहीं थे । वो बच्चे फिक्र थे । सपने थे। उम्मीदें थे। और कहीं कहीं जीने की इकलौती वजह भी थे। वो खिलें पूरे रंग और ताब के साथ इसी कोशिश में तो सड़कों पर दस से पांच की दौड़ लगी हुई है। फिर कौन इन मासूम हसरतों को। जीने की इन इकलौती वजहों को, मौत वाली बसों में सवार कर जाता है? क्या जिम्मेदार सिर्फ बेकाबू नीली पीली बसों के ड्राइवर हैं? क्या जिम्मेदार नो एंट्री में सुबह सुबह चले आने वाले टैंकर हैं? हादसों के बाद जिम्मेदारियां तो हर बार तय होती हैं। सख्ती होती है लेकिन हादसे तो फिर भी होते हैं। उन बच्चों के लिए दुख के साथ बस इतना सा संतोष है हाथ, कि इस बार उन बच्चों में आपके घर का चिराग नहीं था। पर एक भरोसा ही तो है। जिस भरोसे पर बच्चे उस हादसे के बाद आज सुबह फिर बसों में सवार हुए हैं। फिर स्कूल गए हैं। और उसी भरोसे की डोर थामें दोपहर तक घर भी लौट आएंगे । लेकिन यकीन मानिए ये हादसा भरोसे की इस डोर को कमजोर कर गया है...
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