Saturday, April 28, 2018

नदी का घर सूना है




नदी बोल सकती तो कहती, कि मेरे किनारों को संभालते, मेरी सांसों की फिक्र करते। दौड़ते भागते। थक गया है मेरी फिक्र करने वाला। पेड़ पौधों की जुबान होती तो कह देते शायद कि झुलस रही धरती को को हमारे साए का अहसास कराने वाले, तपिश में छोड़ के तुम्हे ऐसे तो नहीं जाना था।
इस दौर में जब राजनेताओं की वसीयत में परिवार के लिए विधानसभा सीट, फार्म हाउस, करोड़ों की नकदी के बंटवारे लिखे जाते हों। जब राजनेता जीवन के बाद के बंदोबस्त के लिए, अपने नाम से सड़कों, विश्राम गृहों में पट्टिका लगवाते हों।
एक ऐसा भी राजनेता, जो अपनी वसीयत में लिख जाता है जब मैं सो जाऊं तो मेरी याद में एक नन्हा सा पौधा रोप देना तुम , उसे पोसना, बड़ा करना...और हां, ख्याल रखना उस पर भी मेरा नाम ना आने पाए। ......
आपके बगैर नदी उदास है.....
और नदी महोत्सव सूना.....
शिफाली...

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