Saturday, April 28, 2018

कुहासी सुबहें दोपहरें निगल लेती हैं 
शाम का रातों से रदोबदल हो जैसे

पूस का महीना बीत गया है 
सुनते हैं कि दिन बड़े हो जायेंगे अब 
लेकिन रहेंगे तो बेमानी ही

फिर कुछ सपने घोड़ी चढ़ जायेंगे 
और फिर मुल्ताबी रेह जायेंगे कच्चे पक्के इश्क़

उम्मीदों के मांजे और मज़बूत करेंगे अबकी फिर 
और टूटा सिरा हाथ मे लिए फिर कहूँगी खुद से 
कि अपने हाथ यही तो आना था

फिर सूरज के दिन आएंगे तो मे भी आवाज दूंगी तुम्हे 
बादलों के इस शामियाने के उस पार तुम सुन लोगे ना

वो पिछले मोहल्ले के पीपल से कई बार तुम्हारी गवाही ली है
Shifalee

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