कुहासी सुबहें दोपहरें निगल लेती हैं
शाम का रातों से रदोबदल हो जैसे
पूस का महीना बीत गया है
सुनते हैं कि दिन बड़े हो जायेंगे अब
लेकिन रहेंगे तो बेमानी ही
फिर कुछ सपने घोड़ी चढ़ जायेंगे
और फिर मुल्ताबी रेह जायेंगे कच्चे पक्के इश्क़
उम्मीदों के मांजे और मज़बूत करेंगे अबकी फिर
और टूटा सिरा हाथ मे लिए फिर कहूँगी खुद से
कि अपने हाथ यही तो आना था
फिर सूरज के दिन आएंगे तो मे भी आवाज दूंगी तुम्हे
बादलों के इस शामियाने के उस पार तुम सुन लोगे ना
वो पिछले मोहल्ले के पीपल से कई बार तुम्हारी गवाही ली है
Shifalee
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