Saturday, April 28, 2018

पर रंग छोड़ जाते हैं....


उस लड़की ने मुट्ठी में भींच लिए रंग और भागने लगी...वो फागुन की दोपहरों में गलियों को नापती......सड़कों पर बेपरवाह झूमती...भाई की ढोलक पर बेपरवाह होकर नाचती....इस घर से उस घर में फुदकती भागती...चुपके से रंग आती चेहरों को...अपनों को गैरों को...उसने मुट्ठी से रंग छूटने नहीं दिए...कि जैसे इन्ही रंगों की रंगत से जिंदगी रंग जानी है....कि ये रंग उस रंगरेज को दे आएगी....कि उम्र की चूनर धानी रंग दे..ओ..रंगरेज...हर रंग उसके पास अपना तर्जुमा लिए आया ....कोई अपनाईत का...कोई भरोसे का रंग....कोई चाहत का...कोई छूटी मोहब्बत का रंग...कुछ रंग जो पल भर को मिले और रुठे...कुछ रंग चो चुटकी से चढे और उम्र भर का संग बनें.....वो भागती रही मुट्ठी में रंगों का भरम लिए....और रंग साल दर साल छूटते रहे.....कि अब वो फागुन को रंगों में नहीं ढूंढती ...उन टूटे छूटे पत्तों में तलाशती है... रंगों से सराबोर दिनों में जो छोड़ जाते हैं अपनी शाखें....

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