Friday, February 13, 2009

प्रेम एक दिवसीय

दो दिलों से शुरु होती रही प्यार की कहानी तो वही है....लेकिन रुह से निकलकर इश्क अब जिस्म हो गया है.... इश्क बदला तो बदल गया इज़हार ए इश्क का अंदाज़ भी....संत वेलेन्टाइन डे की कृपा हुई तो अपने दिल की ज़ुबाँ को आवाज़ देने तय हो गया दिन भी...प्यार के सहारे बाज़ार भी चल निकला...और भगवाधारियों की सियासत भी जिन्हे मोहब्बत के इस खास दिन खिलाफत के ज़रिये मिलती हैं सुर्खियाँ....लेकिन इन सारे तमाशों को देखते हुए सोचियेगा ज़रा क्या यही प्यार है.....
याद कीज़िये ज़रा वो ज़माना जहाँ दो फूल मिलते....और दो दिलों में प्यार हो जाता.....इज़हार ए मोहब्बत की हद दिखाने में एक मुद्दत तक शर्माता रहा सिनेमा भी....लेकिन समाज में वक्त के साथ ऐसा खुलापन आया...कि सरेआम हो गये प्यार के नज़ारे...पार्कों और बगीचों में हफ्तों और महीनों में बदलने वाला प्यार.....रुह से महसूस होने वाला अहसास था कभी, अब जिस्म की कहानी हो गया... ......वो वक्त भी था जब ज़ुबाँ खामोश रहती थी...फकत बोलती थी आँखे .....और प्यार हो जाता था...ज़ुबाँ तो अब भी खामोश है...लेकिन दो दिलों की बोली बाज़ार बोल रहा है....चीख चीख कर....हिन्दी फिल्मों में खिलौना समझकर दिल टूटा करता था...यहाँ खिलौनों के सहारे दिल मिलते हैं....पहले प्यार आया....फिर प्यार में बाज़ार...लेकिन इस तरह कि अब लगता है कि अगर बाज़ार ना होता तो मोहब्बत करने वाले इश्क के इज़हार के लिये ज़ुबाँ कहाँ से लाते......पॉश के लफ्ज़ों में प्यार करनाऔर लड़ सकना जीने पर ईमान ले आना , यही होता है धूप की तरह धरती पर खिल जानाप्यार करना और जीना उन्हें कभी नहीं आया जिन्हें ज़िन्दगी ने बनिया बना दिया....पर कौन यकीन करेगा इस ज़माने में कि सबकुछ खो देने के बाद जो आँखों से आँसू बनकर छलकता है...वही तो प्यार होता है.....

Saturday, February 7, 2009

एक आवाज़,
आवाज़ों के शोर में,
वो एक आवाज़......
अपनी सी,
आठ साल की खामोशी का लंबा वक्फ़ा....
फिर उस आवाज़ की खनक
ज़ेहन से उड़ा ले गई बीतों दिनों की धूल...
हर भूल भूला दी मैंने....
और आवाज़ के साथ खिंचती चली गई....
जाने कब पहुँच गई ज़िन्दगी के उस हिस्से में
जो अब सिर्फ यादों के हवाले है
वो एक वक्त,
कॉलेज के बूढ़े नीम के साये में जब हम दोनों किया करते
हर दर्द को साझा
ग्रेजुएशन में की पत्थरों की पढ़ाई
पर हर दुख में सिसकते
फूल जैसे थे हमारे दिल....
.हर दोस्ती की तरह क्लासरुम की बैंच से ही शुरु हुआ था
हमारी दोस्ती का सफर भी...
उसकी काइनेटिक पर फर्राटा भरते
कई बार नापा पूरा शहर.....
झील के किनारों पर बातों में खड़ी करते हम रोज़
ज़िन्दगी की नई तामीर,
आज उसी ज़िन्दगी में है हम दोनों ....
उसके सपनों से कुछ कमतर उसकी ज़िन्दगी,
मेरी ख्वाहिशों से कुछ कम मेरी ज़िन्दगी....
कॉलेज छूटे बरस गुज़र गये...
लेकिन आज मालूम हुआ....
कि मेरी तरह वो भी
इम्तेहान ही दे रही है अब तक.....
वो इम्तेहान,
जिसके नतीजे कभी नहीं आते....
सच कहूँ, तुम्हारे बाद,
ज़िन्दगी के हर मोड़ पर मिले कहने सुनने को अपने...
लेकिन सबके चेहरों पर मौसमी परतें थीं...
छलावे की, मतलब की परतें,
कोई ऐसा दोस्त नहीं मिला
जो मेरी खुशी में पाँच रुपये के दो गुलाब जामुन ले आये
मेरे ग़म में टिफिन भी ना खाये....
सेकेण्ड हैण्ड किताबों को खरीदते कम पड़ जायें जो पैसे
तो परीक्षा के दिनों में अपनी किताब मेरे हवाले कर दे
तुम्हारे बाद जानने पहचानने,अपना कहने वालों का मेला भी मिला.....
पर तुम उस भीड़ में कहीं नहीं थीं....
आठ साल पहले की बेतकल्लुफी से कहती हूँ
तू ही मेरी दोस्त है....