ऐलुमिनियम का संदूक था वो
भाई के बड़े स्कूल मे दाखिला हो जाने के बाद
उतरन मे जो मेरे हिस्से आया था
वही संदूक की जिसमे
मेहफ़ूज़ रखा था मैने तुम्हे
वो, लफ़्ज़ों से पहला वास्ता था मेरा
फिर सीखा था मैने पूरा ककहरा
पर औ से औरत और ज्ञ ग्यानी
इन दो लफ्ज़ के मानी
तब भी नहीं समझी थी
और अब भी कहाँ जान पाई हूँ
जानती हो
तुम्हारी खातिर दुनिया से लड़ी हूँ कई कई बार
तुम्हारी खातिर दुनिया से लड़ी हूँ कई कई बार
की तुम्हारी सोहबत मे रहना चाहती थी हमेशा
घर मे रसोई से पहले तलाशा तुम्हारे लिए
एक मेहफ़ूज़ कोना
तुम सिरहाने रहती
तो अपने खाकी कलेवर मे
जज़्ब कर लेती मेरे आंसू भी
कितनी बार टूटी और जो रूठी खुद से
तुम ही तो थी वो जो
मुझे ज़िन्दगी के मैदान मे लाती रहीं
बार बार,
मैं कहाँ,
तुम पढ़ती हो मुझे़
रोज़ गढ़ती हो मुझे़..
शिफाली...
#विश्व पुस्तक दिवस
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