Saturday, April 28, 2018

जो, मैं भी जी ही लेती 
सिल्क साड़ी का सपना...
चूड़ियों में खनकना...
पायलों में ठुमकना....
तुम्हे देखती 
थोड़ी पलकें झुकाकर
फुदकती मटकती
मैं चोटी घुमाकर....
हौले हौले में गाती 
बेवजह मुस्कुराती 
मैं यूं बोलती जैसे 
चिड़िया हो चहकी
मैं ऐसे गुजरती
रात रानी ज्यूं महकी...
कि कंधा पकड़कर मैं बाइक पे आती
पहले शर्ट खींचती फिर मैं सैल्फी खिंचाती
मगर ये हो ना सका....
मगर ये हो ना सका...
और अब ये आलम है.....
कि देखूं में अपनी किताबों का सपना
कि रूटीन है मेरा लड़ना झगड़ना
कि हाथों में मैने, टू डू लिस्ट थामी
कि पैरों में हर दम ही रहती सुनामी
कि पलकों से पहले, मैं चश्मा संभालू 
ठहाकों में हंस लूं मैं जोरों से गा लूं 
कि कंधे से कंधा मिलाकर खड़ी मैं
तुम्हारी ही खातिर तो जग से लड़ी मैं....

इसे देखो....इसे जानों, फिर समझो ये कहानी
इन फितूरी, औरतों की कीमत...
तुम क्या समझों जानी....
----शिफाली

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