Saturday, April 28, 2018

वो बायस्कोप बचपन वाला..

वो बायस्कोप बचपन वाला...जिसमें रुकी हुई चिड़िया भी उड़ती मालूम होती थी...गुजरे कोई दस पंद्रह बरस बायस्कोप की किसी चिड़िया की तरह ही उड़ गए...उस खामोश इमारत से पूछती हों, तुम तो जानती हो.. तलाशी लो ना कभी....तुम्हारी देहरी दरवाज़ें पे दर्ज होंगे , मेरी भागती दोपहरों और जागती रातों के सबूत ....किसी दीवार पर...पसीने से तर मेरे हाथों के निशां मिल जाएं शायद...इमारतें तो गवाही भी होती हैं ना वक्त की.....इतिहास तो तुम इमारतों से ही रंगा हुआ है....
इमारत बोली तुम्हारे पसीने पर तो बरसों पहले मनो धूल जम चुकी ..सीलन की बू आने लगी है अब तो....
....हजारों हज़ार किलोमीटर की वों सड़कें...गांव कस्बों शहरों को नापते दिन....उन सड़कों से पूछती हूं...तुम गवाही दे सकती हो मेरी रफ्तार की...बोलीं..., सड़कों की याददाश्त तो यूं भी बहुत कमजोर होती है...
गुजर चुके काफिले सिर्फ गुबार छोड़ते...उन काफिलों का दस्तावेज नहीं होतीं सड़कें....
................
फिर वो चेहरे जो मेरे साथ साथ चले, कुछ पीछे छूटे कुछ आगे बढे....कुछ वो जिनसे खुद में छूटी खड़ी हूं कई बरसों के फासले पर....उन चेहरों से चाहकर भी ना पूछा गया मुझसे...जो जिंदगी की सांप सीढी के साथ अपना बर्ताव बदलते रहे...
.....................
किससे कहूं कि . जिसे मुकाम कहते हैं ना... वहां निशां छोड़ने को ही थी कि पीछे से कोई बेहद करीबी आवाज आई ....और लौटना पड़ गया था मुझे.....बस एक लम्हे की खता थी....
खैर....अब उम्र का हासिल ये कि जिंदगी की किताब तुम्हारे हिस्से हर बार कोरे पन्ने ही लाएगी.. ...तुम पर है कि स्याही उंडेले जाने से एन पहले लिख डालो अपने हिस्से की कहानी.....
शिफ़ाली

No comments: