मध्यप्रदेश के गांव देहात की जिन पाठशालाओं में देश की नींव तैयार होती है,उन पाठशालों में छत नहीं है। पानी का बंदोबस्त नहीं है। शौचालय नहीं है। कई बार किसी पेड़ के नीचे ही लग जाती है क्लास। पाठशाला के हाल सुन लिए। अब मास्साब के हालात भी देख लीजिए, बच्चों को इल्म की रोशनी में लाने वाले प्रदेश के गुरुजी और संविदा शिक्षकों की वेतनमान की लड़ाई सालों से जारी है। अपने साथ हुई नाइंसाफी से दुखी मास्साब का काफी वक्त तो भोपाल के धरने प्रदर्शनों में गुजर जाता है। टूटे हारे ऐसे गुरुजी किस मन से बच्चों को पढाते होंगे, कल्पना की जा सकती है। पढना लिखना सीखो, ओ मेहनत करने वालो..., स्कूल चलें हम..., ये सरकारी नारे हैं।ये नारे ये बताने के लिए हैं,कि सरकार अपना काम बखूबी कर रही है। लेकिन ऊंची आवाजों में रेडियो और टेलीविजनों पर सुनाई देते हैं, पर ये नारे जमीन पर उतरते कहीं दिखाई नहीं देते। मध्यप्रदेश के ही गांव देहात में कहीं चले जाइए, पहली से लेकर पांचवी तक सारी क्लासें ही नहीं पूरा स्कूल एक शिक्षक के भरोसे चलता दिखाई देता है, शिक्षक अगर अवकाश ले ले, तो हफ्ते में कई बार पूरे स्कूल की बेवजह ही छुट्टी हो जाती है। केन्द्र से लेकर राज्य सरकार तक सरकारें, बच्चों को लेकर स्कूली शिक्षा को लेकर चिंता तो जताती हैं, लेकिन उस चिंता पर अमल कहीं दिखाई नहीं देता। खैर, तसल्ली की जानी चाहिए कि सरकार ने फिक्र नहीं कि तो कोर्ट ने बच्चंो को स्कूलों में मिलने वाली बुनियादी सुविधाओं को लेकर सख्ती दिखाई है। सुप्रीम कोर्ट, स्कूलों में शिक्षकों की कमी को लेकर चिंतित है। कोर्ट ने केन्द्र और राज्य सरकारों को आदेश दिया है कि सारे सरकारी और निजी स्कूलों को छै महीने के भीतर पेयजल शौचालय, किचन शेड, बिजली, चाहरदीवारी का बंदोबस्त किया जाए। इतना ही नहीं, स्कूलों में पर्याप्त संख्या में शिक्षक भी होने चाहिए। जस्टिस के एस राधाकृष्णन की अध्यक्षता वाली बेंच ने इस आदेश में ये भी निर्धारित कर दिया है कि समय सीमा में ये काम होने चाहिए। समय समय पर स्टेटस रिपोर्ट पेश करें सरकारें। निजी स्कूलों को खैर छोड़ दीजिए, लेकिन सरकारी स्कूलों के हालात बद से बदतर हैं। गांव में नहीं शहरों में भी, एक कमरें में टीन के शेडों में बगैर शौचालय के कई स्कूल चल रहे हैं। और दुखद ये है कि हमारे मुल्क की बड़ी आबादी है जो इन सरकारी स्कूलों में ही तालीम पाती है। यानि देश का मुस्तकबिल तो यहीं लिखा जाता है। शिक्षा को हम अधिकार में शामिल तो कर लेते हैं, लेकिन सवाल ये खड़ा होता है कि अधिकार कितने लोगों को मिल रहा है। कहते हैं कि किसी मकान की नींव रखना सबसे मुश्किल होता है,मकान बनाने वाले की भी कोशिश होती है कि इतनी मजबूत नींव रखी जाए कि मकान फिर कभी हिले नहीं। कोर्ट शायद इस बात को समझती है कि नींव पर ध्यान देने की जरुरत है। नींव हर हाल में मजबूत होनी चाहिए। कोर्ट ने एक जनहित याचिका पर ही सही राज्य और केन्द्र सरकारों पर स्कूलों में बच्चों को बुनियादी सुविधाएं दिए जाने के मामले में जो सख्ती दिखाई है,वो इस बात की तस्दीक करती है। लेकिन अफसोस इस बात का है कि हमारी सरकारें इस बात को समझ नहीं पा रहीं। समझ नहीं पा रहीं कि नौनिहाल ही हमारी नींव हैं, नींव जितनी मजबूत होगी, उतना मजबूत देश बनेगा। तब सरकार को स्कूल चलें हम का नारा नहीं देना होगा, नौनिहाल खुद कहेंगे स्कूल चलें सब।
Tuesday, June 30, 2015
स्कूल चलें सब।
मध्यप्रदेश के गांव देहात की जिन पाठशालाओं में देश की नींव तैयार होती है,उन पाठशालों में छत नहीं है। पानी का बंदोबस्त नहीं है। शौचालय नहीं है। कई बार किसी पेड़ के नीचे ही लग जाती है क्लास। पाठशाला के हाल सुन लिए। अब मास्साब के हालात भी देख लीजिए, बच्चों को इल्म की रोशनी में लाने वाले प्रदेश के गुरुजी और संविदा शिक्षकों की वेतनमान की लड़ाई सालों से जारी है। अपने साथ हुई नाइंसाफी से दुखी मास्साब का काफी वक्त तो भोपाल के धरने प्रदर्शनों में गुजर जाता है। टूटे हारे ऐसे गुरुजी किस मन से बच्चों को पढाते होंगे, कल्पना की जा सकती है। पढना लिखना सीखो, ओ मेहनत करने वालो..., स्कूल चलें हम..., ये सरकारी नारे हैं।ये नारे ये बताने के लिए हैं,कि सरकार अपना काम बखूबी कर रही है। लेकिन ऊंची आवाजों में रेडियो और टेलीविजनों पर सुनाई देते हैं, पर ये नारे जमीन पर उतरते कहीं दिखाई नहीं देते। मध्यप्रदेश के ही गांव देहात में कहीं चले जाइए, पहली से लेकर पांचवी तक सारी क्लासें ही नहीं पूरा स्कूल एक शिक्षक के भरोसे चलता दिखाई देता है, शिक्षक अगर अवकाश ले ले, तो हफ्ते में कई बार पूरे स्कूल की बेवजह ही छुट्टी हो जाती है। केन्द्र से लेकर राज्य सरकार तक सरकारें, बच्चों को लेकर स्कूली शिक्षा को लेकर चिंता तो जताती हैं, लेकिन उस चिंता पर अमल कहीं दिखाई नहीं देता। खैर, तसल्ली की जानी चाहिए कि सरकार ने फिक्र नहीं कि तो कोर्ट ने बच्चंो को स्कूलों में मिलने वाली बुनियादी सुविधाओं को लेकर सख्ती दिखाई है। सुप्रीम कोर्ट, स्कूलों में शिक्षकों की कमी को लेकर चिंतित है। कोर्ट ने केन्द्र और राज्य सरकारों को आदेश दिया है कि सारे सरकारी और निजी स्कूलों को छै महीने के भीतर पेयजल शौचालय, किचन शेड, बिजली, चाहरदीवारी का बंदोबस्त किया जाए। इतना ही नहीं, स्कूलों में पर्याप्त संख्या में शिक्षक भी होने चाहिए। जस्टिस के एस राधाकृष्णन की अध्यक्षता वाली बेंच ने इस आदेश में ये भी निर्धारित कर दिया है कि समय सीमा में ये काम होने चाहिए। समय समय पर स्टेटस रिपोर्ट पेश करें सरकारें। निजी स्कूलों को खैर छोड़ दीजिए, लेकिन सरकारी स्कूलों के हालात बद से बदतर हैं। गांव में नहीं शहरों में भी, एक कमरें में टीन के शेडों में बगैर शौचालय के कई स्कूल चल रहे हैं। और दुखद ये है कि हमारे मुल्क की बड़ी आबादी है जो इन सरकारी स्कूलों में ही तालीम पाती है। यानि देश का मुस्तकबिल तो यहीं लिखा जाता है। शिक्षा को हम अधिकार में शामिल तो कर लेते हैं, लेकिन सवाल ये खड़ा होता है कि अधिकार कितने लोगों को मिल रहा है। कहते हैं कि किसी मकान की नींव रखना सबसे मुश्किल होता है,मकान बनाने वाले की भी कोशिश होती है कि इतनी मजबूत नींव रखी जाए कि मकान फिर कभी हिले नहीं। कोर्ट शायद इस बात को समझती है कि नींव पर ध्यान देने की जरुरत है। नींव हर हाल में मजबूत होनी चाहिए। कोर्ट ने एक जनहित याचिका पर ही सही राज्य और केन्द्र सरकारों पर स्कूलों में बच्चों को बुनियादी सुविधाएं दिए जाने के मामले में जो सख्ती दिखाई है,वो इस बात की तस्दीक करती है। लेकिन अफसोस इस बात का है कि हमारी सरकारें इस बात को समझ नहीं पा रहीं। समझ नहीं पा रहीं कि नौनिहाल ही हमारी नींव हैं, नींव जितनी मजबूत होगी, उतना मजबूत देश बनेगा। तब सरकार को स्कूल चलें हम का नारा नहीं देना होगा, नौनिहाल खुद कहेंगे स्कूल चलें सब।
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