Sunday, June 28, 2015

जिंदगी छीन लेने से बड़ा कोई गुनाह नहीं



किसी की जिंदगी छीन लेने से बड़ा कोई गुनाह नहीं हो सकता। कानून में भी हत्या के मुजरिम को उम्र कैद की सजा सुनाई जाती है। लेकिन अपराध से घृणा करो अपराधी से नहीं,गांधी जी के दिए इस मूल मंत्र पर चल रही सरकारें अब अपराधियों से भी सहानुभूति दिखा रही हैं। मध्यप्रदेश में अभी सात महीने पहले शुरु हुई खुली जेल इसकी मिसाल है। हत्या जैसे संगीन इल्जाम अपने सिर पर लिए इन अपराधियों के लिए ये खुली जेल जैसे सजा का हिस्सा नहीं सम्मान है।  खुली जेल की अनोखी सजा है। सजा में है लेकिन आजाद हवा में जीते हैं। जिन परिवार वालों से मुलाकात को भी तड़पते थे उनके साथ रहते हैं।  सरकार ने इनकी खातिर कुदरती खूबसूरती वाले इलाके में आशियाने बनाए हैं। जिनमें इनकी गृहस्थी  के साजोसामान के साथ इनके लिए काम धंधे का भी पूरा बंदोबस्त सरकार करती है। इस पूरे नजारे को अगर उस शख्स की नजर से देखा जाए जिसका कोई अपना इन्ही मे से किसी कैदी की वजह से दुनिया से चला गया। तो कई सवाल खड़े होंगे। सवाल खड़ा होगा कि आखिर ये दया किसके लिए है? उस शख्स के लिए जिसके हाथ किसी के खून से रंगे हैं। जिसने किसी का घर उजाड़ा है। उसे सजा देने के बजाए सरकार सम्मान के साथ उसका घर सजा रही है किसलिए? सवाल ये भी उठेगा कि सजा अगर इतनी आसान हो जाएगी तो फिर प्रायश्चित कैसे होगा ? लेकिन संदेह के साथ कुछ सवाल और खड़े होंगे, जो समाज से आते हैं, क्या कड़ी सजा के साथ जेल में नए अपराधी तैयार नहीं होते? एक अपराध की सजा भुगतने आया अपराधी जेल के माहौल में और खूंखार बनकर समाज में वापिस नहीं लौटता? मुमकिन है कि ये खुली जेल उसी खुंखार अपराधी को इंसान बनाने की एक कोशिश हो। शायद इसीलिए आजीवन कारावास की एक चौथाई सजा काट लेने के बाद कुछ चुंिनंदा कैदियों को यहां भेजा जाता है। वो चुने हुए कैदी हैं जो ये मानते हैं कि उनसे गुनाह हुआ। अपने किए का प्रायश्चित करते हैं। और फिर नए सिरे से जिंदगी शुरु करना चाहते हैं। किसी अपने की हत्या के साथ जिसका सबकुछ गया उन बेकसूरों के सवाल अपनी जगह जायज हैं। लेकिन अपराध फिर उनका भी क्या है। जो अपराधी के अपने हैं,जेल के बाहर ही सही चौदह साल की सजा तो उन्होने भी भुगती है। असल में कैदियों को उनकी सजा के आखिरी अंतराल में भेजे जाने का मकसद ही यही है कि जिस समाज से वो अपराधी होने का दाग अपने माथे पर लेकर आए थे। जब जेल से छूटे तो समाज में उसी पहचान के साथ ना जाएं। उसी सोच के साथ फिर समाज में उनकी वापिसी ना हो । ये सही है कि एक पल के गुस्से ने उन्हे अपराधी बना दिया। पर ये किसी के भी साथ हो सकता है। इसीलिए ये गुंजाइश रखनी होगी कि एक बार गुनाह कर लेने के बाद कोई उसका आदि ना होने पाए। उसे इतनी सहानुभूति,इतनी दया और अपनापन दिया जाए, कि वो हिंसा से किनारा कर ले।  खुली जेल का ये कॉन्सेप्ट असल में एक सॉइकोलॉजिकल ट्रीटमेंट है। एक कैदी को अपनों के साथ रखकर पहले उसके आस पास  भावना की मजबूत दीवारें खड़ी की जाती हैं। कि अगर भागा भी तो पंछी लौट कर तो फिर घोसले में ही आएगा। और फिर सजा में रहते हुए समाज में उसकी सम्मानजनक वापिसी के बाद उसे ये बताने और जताने की कोशिश होती है कि उसे माफी मिल गई है । होशंगाबाद में रह रहे 21 कैदियों ने अपने हाथों पर लगे गुनाह के दाग धो लिए हैं। कैदियों के रजिस्टर से पहले जब वो रोज समाज में अ आमद दर्ज कराते हैं। तब सरकार की कोशिश यहां कामयाब होती दिखाई देती है।

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