Sunday, June 28, 2015

गरीब को गाली मत बनाओ..



हिंदुस्तान में इसे लिहाज भी कहते हैं। जज्बात में जीने वाले भारतीय समाज की संवेदनाओं और सहानुभूति से जुड़े कायदे कहलाते हैं ये कि हम काले को भी काला कहने में संकोच करते हैं। नेत्रहीन को कभी नहीं कहते कि तुम अंधे हो। विकलांग या अपाहिज को हम लंगड़ा कहकर कभी नहीं पुकारते। हम कभी भी, किसी की हैसियत से उसकी पहचान नहीं बनाते। सिर्फ इसलिए कि किसी को भी बेइज्जत करने के लिए काफी,ये सारे संबोधन मन को दुख पहुंचाने वाले होते हैं, और मन की ठेस हमेशा तन के घाव से बहुत गहरी होती है। लेकिन मध्यप्रदेश के खंडवा जिले के खालवा गांव में, जो कुछ हुआ वो,समाज और इंसानियत के इन कायदों को ही तार तार करने वाली है। संविधान और उसमें हर इंसान को मिले अधिकारों की बात तो फिलहाल छोड़ ही दीजिए।  इस गांव के हर दूसरे घर की दीवार पर नाम की जगह, उस घर में रहने वाले लोगों की पहचान लिखी है, पहचान ये कि वो गरीब हैं। ये उस गांव के लोगों का दर्द नहीं है, सरकार की सहुलियत के लिए गांव वालों से किया गया भद्दा मजाक है ये। प्रशासन ने इस गांव के लिए ये लिखित आदेश दिया है कि गरीब अपने घर के आगे ये लिखवाए कि मैं गरीब हूं। ताकि गरीब की आसानी से पहचान हो सके। कितना अजीब लगता है ये सुनना और पढना कि मैं गरीब हूं। जैसे गरीबी कोई बीमारी है। जैसे गरीबी मनुष्य में ही ऐसी कोई प्रजाति है, जिसे समाज में अब तक स्वीकारा नहीं गया। याद कीजिए, सरकार की खींची गरीबी रेखा की लकीर के पहले कहां तय हुई थी गरीब की परिभाषा और उसके पैमाने। तब तो मोटर गाड़ी और कोठी वाला होकर भी, किसी बेटी का बाप  खुद को गरीब ही कहता था। लेकिन यहां खुद को गरीब कहने में फर्क था, फर्क इसलिए कि अच्छाखास अमीर आदमी खुद सामान्य बताने के लिए गरीब कह रहा है और वो भी अपनी मर्जी से। लेकिन खालवा गांव में सरकार दबाव देकर गरीब को कह रही है कि अपने घर पर लिख्खो कि तुम गरीब हो। नेता तक अपने भाषणों में जिनके मान का पूरा ख्याल रखते हैं और गरीब कहने के बजाए, उन्हे समाज की आखिरी पांत में खड़ा व्यक्ति बताते हैं, उस जरुरतमंद इंसान को सरकारी योजनाओं और कार्यक्रमों का लाभ देने गरीब होने का पहचान पत्र बीपीएल कार्ड तो पहले से ही बना हुआ है। कोई भी गरीब, सरकार के मुताबिक गरीब है ये दिखाने के लिए ये कार्ड ही काफी है। अब गरीबों को छंटाई के लिए ये जरुरी तो नहीं कि उसके घर पर ही गरीब लिखवा दिया जाए। कल इतने पर भी बात नहीं बनेगी तो गरीब के माथे पर और हाथ पर भी गरीब लिखवाएंगे। प्रशासन संवेदनाओं पर भले ना चले, लेकिन संविधान भी शासन को इस बात की इजाजत नहीं देता कि किसी की हैसियत का इस तरह दीवारों पर मखौल उड़ाया जाए। सिर्फ सरकारी मदद के लिए ये पहचान बताना बिल्कुल वैसा ही है कि जैसे किसी से मदद मांगी जाए और वो कहे कि पहले भिखारी बनकर मेरे पास आओ, तब मदद मिलेगी। यकीन मानिए,खालवा गांव के इन लोगों को सरकारी योजनाओं के लाभ से इतना सुकूंन कभी नहीं मिला होगा, जितना बड़ा घाव गरीबी को उनकी पहचान उनकी शिनाख्त बना देने के बाद मिला है। गरीबी पहली बार उन्हे गाली की तरह लगी होगी। लेकिन तफ्सील में जाइए तो  उनकी गरीबी के लिए भी वो अकेले ही जिम्मेदार हो ऐसा भी नहीं है, उनके हक का वो पैसा जो उन्हे गरीबी की लक्ष्मण रेखा से बाहर ले आता, उस पैसे ने जाने कितने अफसरों मंत्रियों को अमीर बनाया है। जिस गरीब की इज्जत उछालने चले हैं, उसी गरीब पर तो होती आई है सदियों से राजनीति। सरकारें चलती रही हैं। भूल मत जाइये कि उसी गरीब के नाम पर बनते हैं विभाग और प्रशासन में बैठे अधिकारियों की नौकरी चलती हैं। बस फर्क सिर्फ इतना है कि उसकी दीवार पर लिख दिया जाता है कि वो गरीब है।  

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