मध्यप्रदेश में बेटियां कम हो रही हैं। भाजपा सरकार ने लक्ष्मी बनाकर उन्हे घर की लाड़ली बनाने की कोशिश की थी। इस कोशिश के बाद भाजपा की तरफ महिलाओं का रुझान जरुर बढ गया , लेकिन प्रदेश में लगातार घट रही बेटियों की आबादी में कोई फर्क नहीं आया। आबादी के ताजा आंकड़ों ने प्रदेश में खतरे की घंटी बजा दी हैं। दस साल पहले एक हजार लड़कों पर 932 लड़कियां थी। जो अब घटकर 912 ही रह गई है। बेटी तरक्की कर रही है। आसमान छू रही है। मां बाप का सहारा बन रही है बेटी। ये सच की वो तस्वीर है जो समाज के सामने है लेकिन बावजूद कोई आंदोलन,कोई अभियान,कोई कानून बेटी को कोख में जगह नहीं दिला पा रहा। बेटी को कोख में उस वक्त तक जगह नहीं मिलेगी। जब तक समाज की, हमारी आपकी सोच में बदलाव नहीं आएगा। हैरानी होती है ये जानकर कि प्रदेश के वो शहर जहां की आबादी पढी लिखी कही जाती है वहां बेटियों की आबादी लगातार घटी है। जबकि पिछड़े समझे जाने वाले आदिवासियों के घरों में गूंज रही है बेटी की किलकारी। लेकिन तसल्ली भी है कि इन बिगड़ते हालात में सामाजिक संगठनों के जिम्मे रही बेटियों को बचाने की जिम्मेदारी खुद सरकार ने अपने हाथ में ले ली है। ये पहली बार है जब किसी सूबे में किसी राजनीतिक दल ने और उसकी सरकार ने किसी सामाजिक मुद्दे को लेकर अभियान छेड़ा है। सियासी समझ से इसके भी कई मतलब निकाले जा सकते हैं। लेकिन कई बार मुद्दे राजनीति से ऊपर भी होते हैं। बेटी पर राजनीति नहीं की जाती और होनी भी नहीं चाहिए। बेटी घर का मान होती है शायद इसीलिए समाज को कोई संदेश देने से पहले भाजपा ने भी पहले अपने घर से ही शुरुवात की है। पार्टी ने बेटी बचाने की पहली अपील अपने नेताओं और कार्यकर्ताओं से ही कि है वो कम से कम एक बेटी को गोद लें। पांच अक्टूबर, रामनवमी का दिन मध्यप्रदेश में बेटी बचाओ दिवस के रुप में मनाया जाएगा। से ये पहला प्रदेश होगा जहां बेटी को बचाने कोई दिवस घोषित हुआ है। इस दिन पूरे प्रदेश में बेटियों का पूजन करने की तैयारी है। लेकिन इस सच को समझना भी जरुरी है कि पूजने की औपचारिकता भर से बेटियों को बचाया नहीं जा सकता। कोख में उनकी सांसे नहीं थामी जा सकती। बेटों और भाईयों के बंटवारे में उसकी हिस्सेदारी तय नही की जा सकती। इसके लिए तो जमीन पर बदलाव लाने होंगे। ये सरकार को भी समझना है और समाज को भी। यकीनन लाड़ली लक्ष्मी जैसी योजनाओं से कम से कम निचले तबके में बेटी को बोझ समझने की सोच में थोड़ा बहुत ही सही फर्क आया है। लेकिन अब भी बेटियों को बचाने बदलाव की बयार चाहिए। उसकी पहचान के साथ चस्पा हो गए बोझ को निकाल पाना इतना आसान नहीं है। सरकार की कोशिशें चलने दीजिए। अब समाजों को भी अपने छोर से बेटी बचाओ आंदोलन छेड़ना होगा। सरकार की पकड़ घर घर में होती है लेकिन रसोई तक तो समाज ही पहुंचता है और इस दमदारी से पहुंचता है कि उसकी बात टाली नहीं जाती। समाज को अब ये बताना होगा कि कर्ज नहीं कहलाएंगी क्योंकि अब बेटों की तरह फर्ज निभाती हैं बेटियां। और कुछ नहीं, तो बस इतना याद दिलाना होगा कि आज जो बेटी है वो कल की मां है। जननी है। वो नहीं बची तो हम कहां बचेंगे।
Sunday, June 28, 2015
बचा लो बिटिया को..
मध्यप्रदेश में बेटियां कम हो रही हैं। भाजपा सरकार ने लक्ष्मी बनाकर उन्हे घर की लाड़ली बनाने की कोशिश की थी। इस कोशिश के बाद भाजपा की तरफ महिलाओं का रुझान जरुर बढ गया , लेकिन प्रदेश में लगातार घट रही बेटियों की आबादी में कोई फर्क नहीं आया। आबादी के ताजा आंकड़ों ने प्रदेश में खतरे की घंटी बजा दी हैं। दस साल पहले एक हजार लड़कों पर 932 लड़कियां थी। जो अब घटकर 912 ही रह गई है। बेटी तरक्की कर रही है। आसमान छू रही है। मां बाप का सहारा बन रही है बेटी। ये सच की वो तस्वीर है जो समाज के सामने है लेकिन बावजूद कोई आंदोलन,कोई अभियान,कोई कानून बेटी को कोख में जगह नहीं दिला पा रहा। बेटी को कोख में उस वक्त तक जगह नहीं मिलेगी। जब तक समाज की, हमारी आपकी सोच में बदलाव नहीं आएगा। हैरानी होती है ये जानकर कि प्रदेश के वो शहर जहां की आबादी पढी लिखी कही जाती है वहां बेटियों की आबादी लगातार घटी है। जबकि पिछड़े समझे जाने वाले आदिवासियों के घरों में गूंज रही है बेटी की किलकारी। लेकिन तसल्ली भी है कि इन बिगड़ते हालात में सामाजिक संगठनों के जिम्मे रही बेटियों को बचाने की जिम्मेदारी खुद सरकार ने अपने हाथ में ले ली है। ये पहली बार है जब किसी सूबे में किसी राजनीतिक दल ने और उसकी सरकार ने किसी सामाजिक मुद्दे को लेकर अभियान छेड़ा है। सियासी समझ से इसके भी कई मतलब निकाले जा सकते हैं। लेकिन कई बार मुद्दे राजनीति से ऊपर भी होते हैं। बेटी पर राजनीति नहीं की जाती और होनी भी नहीं चाहिए। बेटी घर का मान होती है शायद इसीलिए समाज को कोई संदेश देने से पहले भाजपा ने भी पहले अपने घर से ही शुरुवात की है। पार्टी ने बेटी बचाने की पहली अपील अपने नेताओं और कार्यकर्ताओं से ही कि है वो कम से कम एक बेटी को गोद लें। पांच अक्टूबर, रामनवमी का दिन मध्यप्रदेश में बेटी बचाओ दिवस के रुप में मनाया जाएगा। से ये पहला प्रदेश होगा जहां बेटी को बचाने कोई दिवस घोषित हुआ है। इस दिन पूरे प्रदेश में बेटियों का पूजन करने की तैयारी है। लेकिन इस सच को समझना भी जरुरी है कि पूजने की औपचारिकता भर से बेटियों को बचाया नहीं जा सकता। कोख में उनकी सांसे नहीं थामी जा सकती। बेटों और भाईयों के बंटवारे में उसकी हिस्सेदारी तय नही की जा सकती। इसके लिए तो जमीन पर बदलाव लाने होंगे। ये सरकार को भी समझना है और समाज को भी। यकीनन लाड़ली लक्ष्मी जैसी योजनाओं से कम से कम निचले तबके में बेटी को बोझ समझने की सोच में थोड़ा बहुत ही सही फर्क आया है। लेकिन अब भी बेटियों को बचाने बदलाव की बयार चाहिए। उसकी पहचान के साथ चस्पा हो गए बोझ को निकाल पाना इतना आसान नहीं है। सरकार की कोशिशें चलने दीजिए। अब समाजों को भी अपने छोर से बेटी बचाओ आंदोलन छेड़ना होगा। सरकार की पकड़ घर घर में होती है लेकिन रसोई तक तो समाज ही पहुंचता है और इस दमदारी से पहुंचता है कि उसकी बात टाली नहीं जाती। समाज को अब ये बताना होगा कि कर्ज नहीं कहलाएंगी क्योंकि अब बेटों की तरह फर्ज निभाती हैं बेटियां। और कुछ नहीं, तो बस इतना याद दिलाना होगा कि आज जो बेटी है वो कल की मां है। जननी है। वो नहीं बची तो हम कहां बचेंगे।
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