महिला दिवस। एक दिन महिला के नाम का। लेकिन दिन छोड़िए। महिला को दिन के किसी हिस्से से भी अलग करना मुश्किल है। पलटकर देखिए तो सही। वो जहां है। जिस शक्ल में है,खुद को झौंककर अपनी दुनिया मुकम्मल कर रही है। फिर वो घर की चाहरदीवारी हो या दुनियादारी। सुबह से शुरु कीजिए, मां की आवाज के अलार्म से ही तो होती है हर घर में सुबह। दफ्तर में खुलने वाला दोपहर का टिफिन बीवी की फिक्र है कि आप भूखे ना रहें। बहन के प्यार में बुने स्वेटर के सहारे गुजर जाते हैं जाने कितने भाईयों के जाड़े। ये औरत का एक मोर्चा है। एक फ्रंट,जहां जन्म के साथ उसे मिल जाती है जिम्मेदारियां। जो उसे निभानी हैं, फिर चाहे जैसे हो। लेकिन औरत का दिन इन जवाबदारियों पर आकर ही खत्म नहीं हो जाता। अभी दिन का दूसरा हिस्सा तो बाकी है। जहां इन सारी भूमिकाओं से अलग वो खुद अपने मन की नायिका बन रही होती है। वो मोर्चा जहां वो खुद को जिंदा रखती है। दिन का वो हिस्सा है जहां लिखती है वो खुद अपनी कामयाबी की कहानी। इंदिरा गांधी, कल्पना चावला, इंदिरा नूई, मदर टेरेसा,किरन बेदी, खुद को भूलकर एक मुकाम के लिए जुट जाने वाली इन कामयाब महिलाओं के किस्से छोड़ दीजिए। यहां बात उन औरतों की है। जिनका संघर्ष। जिनकी कामयाबी कहीं चीन्ही नहीं जाती। कहीं किसी किताब में दर्ज नहीं है इनकी मुश्किल जिंदगी के किस्से। अलस्सुबह शुरु हो जाती है आम कही जाने वाली इस औरत की मैराथन। दिन के हर हिस्से में वो नई शक्ल लिए होती है। सुबह फिक्रमंद मां की तरह बच्चों को तैयार करके स्कूल भेजती है। जिम्मेदार बीवी की तरह घर और दफ्तर की उलझनों में पति का साथ निभाती है। और फिर घर की देहरी से निकलकर उस दुनिया में आ जाती है। जहां उसे रोज खुद को साबित करना है। कहीं बैंक मैनेजर, कहीं अफसर। कहीं डॉक्टर कहीं इंजीनियर। कहीं सरकारी दफ्तर में बाबू तो कहीं कुछ और। घर के साथ बाहर की इस दुनिया में भी उसकी काबिलियत का रोज नया इम्तेहान होता है। औरत है। कमजोर है। सहानुभूति की हकदार है। सनातन काल से चले आ रहे महिलाओं को लेकर ये जुमले उसे मजबूत बनाते हैं। घर और बाहर, दो रस्सियों पर एक साथ दौड़ रही इस औरत को महिला होने का कोई प्रीविलेज मिलता हो ऐसा भी नहीं है। कोई रियायत, कोई प्रोत्साहन उसे चाहिए भी नहीं। वो नहीं चाहती कि इस सबके बदले उसे, पेट्रोल पंप पर आगे आ जाने का आप मौका दे दें। बस में सीट खाली कर दें। इसका मतलब ये भी नहीं कि महिला ने पुरुषों से मोर्चा ले लिया है। महिलाएं पुरुषों को पीछे छोड़ रही हैं,ऐसे किसी मुकाबले में भी खुद को नहीं रखना चाहती है औरत। क्योंकि उसका संघर्ष तो खुद से है। कहां से शुरु होना है और कहां पहुंचना है, अपने लिए, उसने खुद खींची है अपनी लकीरें। कोई जरुरी नहीं कि किसी खास दिन आप, संगोष्ठियों में, परिचर्चाओं में महिला का गौरव गान सुनाएं। कोई जरुरी नहीं कि उसे कविताओं में बांधे, उस पर सहानुभूति जताएं। बस इतना कीजिए इस बार। कि उसे उसके होने का हक दे दीजिए। कि अपने फैसले वो खुद ले सके। उसे उसका आसमान, उसकी जमीन दे दीजिए। तुम नहीं कर पाओगी, क्योंकि तुम औरत हो। ये जेहन से निकाल दीजिए हमेशा के लिए। तब शायद महिलाओं के लिए किसी दिवस की जरुरत भी नहीं होगी। जो दिन के हर हिस्से में अपने मुकम्मल रुप में मौजूद है उसे किसी दिन की जरुरत है भी कहां।
Sunday, June 28, 2015
एक दिन महिला के नाम का
महिला दिवस। एक दिन महिला के नाम का। लेकिन दिन छोड़िए। महिला को दिन के किसी हिस्से से भी अलग करना मुश्किल है। पलटकर देखिए तो सही। वो जहां है। जिस शक्ल में है,खुद को झौंककर अपनी दुनिया मुकम्मल कर रही है। फिर वो घर की चाहरदीवारी हो या दुनियादारी। सुबह से शुरु कीजिए, मां की आवाज के अलार्म से ही तो होती है हर घर में सुबह। दफ्तर में खुलने वाला दोपहर का टिफिन बीवी की फिक्र है कि आप भूखे ना रहें। बहन के प्यार में बुने स्वेटर के सहारे गुजर जाते हैं जाने कितने भाईयों के जाड़े। ये औरत का एक मोर्चा है। एक फ्रंट,जहां जन्म के साथ उसे मिल जाती है जिम्मेदारियां। जो उसे निभानी हैं, फिर चाहे जैसे हो। लेकिन औरत का दिन इन जवाबदारियों पर आकर ही खत्म नहीं हो जाता। अभी दिन का दूसरा हिस्सा तो बाकी है। जहां इन सारी भूमिकाओं से अलग वो खुद अपने मन की नायिका बन रही होती है। वो मोर्चा जहां वो खुद को जिंदा रखती है। दिन का वो हिस्सा है जहां लिखती है वो खुद अपनी कामयाबी की कहानी। इंदिरा गांधी, कल्पना चावला, इंदिरा नूई, मदर टेरेसा,किरन बेदी, खुद को भूलकर एक मुकाम के लिए जुट जाने वाली इन कामयाब महिलाओं के किस्से छोड़ दीजिए। यहां बात उन औरतों की है। जिनका संघर्ष। जिनकी कामयाबी कहीं चीन्ही नहीं जाती। कहीं किसी किताब में दर्ज नहीं है इनकी मुश्किल जिंदगी के किस्से। अलस्सुबह शुरु हो जाती है आम कही जाने वाली इस औरत की मैराथन। दिन के हर हिस्से में वो नई शक्ल लिए होती है। सुबह फिक्रमंद मां की तरह बच्चों को तैयार करके स्कूल भेजती है। जिम्मेदार बीवी की तरह घर और दफ्तर की उलझनों में पति का साथ निभाती है। और फिर घर की देहरी से निकलकर उस दुनिया में आ जाती है। जहां उसे रोज खुद को साबित करना है। कहीं बैंक मैनेजर, कहीं अफसर। कहीं डॉक्टर कहीं इंजीनियर। कहीं सरकारी दफ्तर में बाबू तो कहीं कुछ और। घर के साथ बाहर की इस दुनिया में भी उसकी काबिलियत का रोज नया इम्तेहान होता है। औरत है। कमजोर है। सहानुभूति की हकदार है। सनातन काल से चले आ रहे महिलाओं को लेकर ये जुमले उसे मजबूत बनाते हैं। घर और बाहर, दो रस्सियों पर एक साथ दौड़ रही इस औरत को महिला होने का कोई प्रीविलेज मिलता हो ऐसा भी नहीं है। कोई रियायत, कोई प्रोत्साहन उसे चाहिए भी नहीं। वो नहीं चाहती कि इस सबके बदले उसे, पेट्रोल पंप पर आगे आ जाने का आप मौका दे दें। बस में सीट खाली कर दें। इसका मतलब ये भी नहीं कि महिला ने पुरुषों से मोर्चा ले लिया है। महिलाएं पुरुषों को पीछे छोड़ रही हैं,ऐसे किसी मुकाबले में भी खुद को नहीं रखना चाहती है औरत। क्योंकि उसका संघर्ष तो खुद से है। कहां से शुरु होना है और कहां पहुंचना है, अपने लिए, उसने खुद खींची है अपनी लकीरें। कोई जरुरी नहीं कि किसी खास दिन आप, संगोष्ठियों में, परिचर्चाओं में महिला का गौरव गान सुनाएं। कोई जरुरी नहीं कि उसे कविताओं में बांधे, उस पर सहानुभूति जताएं। बस इतना कीजिए इस बार। कि उसे उसके होने का हक दे दीजिए। कि अपने फैसले वो खुद ले सके। उसे उसका आसमान, उसकी जमीन दे दीजिए। तुम नहीं कर पाओगी, क्योंकि तुम औरत हो। ये जेहन से निकाल दीजिए हमेशा के लिए। तब शायद महिलाओं के लिए किसी दिवस की जरुरत भी नहीं होगी। जो दिन के हर हिस्से में अपने मुकम्मल रुप में मौजूद है उसे किसी दिन की जरुरत है भी कहां।
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment