Sunday, June 28, 2015

बस, कसाब की मौत लिख दो।



13 जुलाई की तारीख को गुज़रे तीन महीने ही तो हुए हैं अभी। मुंबई के घाव अभी भरने को ही थे कि दिल्ली फिर हिल गई। फिर कुछ दिनों और महीनों के लिए अनदेखी अनजानी मौत का खतरा पूरे देश पर मंडराने लगा। अगला निशाना कहां, अनुमान लगाए जाने लगे। फिर दौड़ पड़ीं शक की सुईयां। हाईकोर्ट में संसद सत्र के दौरान बम धमाका हुआ तो हाईअलर्ट का असर भी जाता रहा । पुलिस से से लेकर सुरक्षा एजेसिंयों तक सब हमेशा की तरह हरकत में आ गए। हरकत में तों नेता भी आए। लेकिन फिर वही हरकत कर गए। अपनों की चिथड़ा होती लाशें देख चुके लोग जिस हरकत पर सिर्फ विलाप कर सकते हैं। राहुल गांधी की बात अबकि सुबोध कांत सहाय ने आगे बढाई, खुमारी में नहीं पूरे होशो हवास में कह गए अब लोग ऐसे जीने के आदी हो चुके हैं। लोग जीने के नहीं बम धमाकों में में मरने के आदी हो चुके हैं, मुमकिन है सहाय सहाब ने ये बयान अगले ब्लास्ट के लिए महफूज रख लिया हो। इतना सबकुछ हुआ लेकिन बेगुनाहों के मारे जाने के बाद हुआ। जबकि देश के गृह मंत्री ने संसद में बेशर्मी से ही सही ये मंजूर किया कि हम जुलाई से जानते थे दुश्मन के मंसूबे लेकिन बम ब्लास्ट तो हो गया।  क्यों हुआ? कैसे हुआ? सुरक्षा एजेंसियों का क्या? दिल्ली पुलिस कहां थी? ये सारे सवाल देश की सौ करोड़ जनता के हैं। थक हार कर जिसने ये पूछना भी अब छोड़ दिया है। फ्लश बैक में चलिए तो  भ्रष्टाचार के खिलाफ एक जुट, वंदे मातरम के नारे लगाते हिंदुस्तान की तस्वीर अभी टीवी चैनलों से उतरी भी नही थी कि फिर वो मंजर सामने आ गया। नीम से भी कड़वा सच कहती वो तस्वीर कि इतने लाचार हैं हम कि दुश्मन हमारे घर आता है और जब चाहे जहां चाहे मौत दे जाता है। जगह। तारीख। सब वो मुकर्रर करता है। हमारी सिर्फ मौत तय होती है। असल में वो जानता है कि इस मुल्क में अफसरों से चूक होना कोई नई बात नहीं। वो जानता है कि इस देश के नेता अपने बयानों से आम लोगों को बम धमाकों  के साथ जीना सिखाने लगे हैं। वो जानता है कि मंदिर में ,रेल्वेस्टेशन पर, संसद में और अब कोर्ट में जहां चाहो जितनी लाशें बिछाओ उनके भाई तो जेल में हर हाल में महफूज हैं। और रहेंगे सरकार की मेहरबानी से। वो ये भी जानता है कि जिस दयालु देश में प्रधानमंत्री के हत्यारों की दया याचिका पर एक राज्य की पूरी विधानसभा अपनी मुहर लगा देती हो और राष्ट्रपति से दया की अपील करती हो। वहां उस देश की जेलों में कैद उसके भाईयों को किस बात की परवाह। तभी तो  अदालत के जिन गलियारों से कसाब और अफजल गुरु जैसे आतंकवादियों को फांसी के फैसले सुनाई देने चाहिए थे। उस अदालत  की देहरी पर अमनप्रीत मारा जाता है। वकील अमनप्रीत दिल्ली हाईकोर्ट में जिसकी वकालात का पहला दिन जिंदगी का आखिरी दिन बन गया। नाम बदलते चलिए , पुणे के जर्मन बेकरी से जामा मस्जिद तक और वाराणसी से दिल्ली तक। हर कहीं हर बार अमनप्रीत पर ही होता है निशाना। अमनप्रीत जो इस देश का आम आदमी है। वही बनता है हर बार दुश्मन के हौसले का सबूत। उसी की लाश के चीथड़े सरकार के सामने इस बात की तस्दीक होते हैं कि देख लो  देश का दिल फिर छलनी हो गया है। लेकिन मुश्किल ये है अमनप्रीत की पैरवी करने वाला कहीं कोई नहीं होता । मत करो उसकी पैरवी। इस आम आदमी की परवाह भी मत करो लेकिन अगर कर सको तो इतना करना कि देश की जेलों में दामाद बने कसाबों और अफजल गुरुओं की मौत की तारीख लिख जाए इस बार। मुआवजे का मरहम तो हर बात देती है सरकार इस बार ये तसल्ली भी दे दे कि वो दुश्मन को जवाब देना भी जानती है।

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