वो तो हक की लड़ाई लड़ रहे थे। इंसाफ के लिए जिंदगी और मौत की लड़ाई। सरकार की निगाह में सिर्फ विकास की कहानी लिखते दो बांध हैं। उन दो बांधों से बाढ में बदलते सैकड़ों गांव और उन सैकड़ों गांवों के हजारो लोग जैसे सरकार की आंख से ओझल हो गए हैं। जो कुछ दिखाई दिए तो उनके आगे सरकार भी झुक गई। जो अनदेखे रह गए या कर दिए गए। उन्हे बर्बरता के साथ खदेड़ दिया गया। लेकिन ये फर्क किसलिए। संघर्ष के स्वरुप में तो कोई अंतर नहीं था। भोेले आदिवासियों की मुश्किलों में भी फर्क कहां था । फर्क यहां बस दो अलग अलग बांधो और उनके प्रभावितों का है। गलते सडते पैर लिए तो सत्याग्रही औंकारेश्वर में भी खड़े थे और इंदिरा सागर में भी खड़े रहे। लेकिन नर्मदा के अलग अलग मुहानों पर खड़ी, नर्मदा की इन संतानों के सत्याग्रह से निपटने खुद सरकार ने मुखौटे पहन लिए थे जैसे। पहले आदिवासियों से हमदर्दी का मुखौटा। औंकारेश्वर में सरकार सत्याग्रहियों के आगे झुक गई,और जल सत्याग्रह खत्म हो गया। औंकारेश्वर में सरकार इंसानियत का मुखौटा पहनकर आई थी। लगा कि सरकार संवेदनशील है, अभी ये ख्याल धारणा में बदलता कि उसके पहले, सरकार का असल चेहरा हरदा में दिखाई दे गया। ये क्रूर चेहरा था, मानवीयता का इस चेहरे में नामो निशान नहीं था। जल सत्याग्रहियों को खदेड़ती, तस्वीरों में बुजुर्गों को बेदर्दी से उठाए सरकारी नुमाइंदो की हंसी देखिए। देखकर लगता है कि इंसानियत किसी कोने में नहीं बची है। हैरानी होती है कि निहत्थे मासूम बच्चों, लाचार बूढों से निपटने के लिए निर्दयी हो गई सरकार। नर्मदा की संताने कहां कुछ कह रही थीं। वो तो खामोश खुद को सजा दिए खड़ी रहीं पानी में। ये सत्याग्रह भी इन भोले आदिवासियों ने उन्ही महात्मा से सीखा था जिनके अनुयायी हैं आप नेताजी । अपने हक की खातिर अपनी जिंदगी दांव पर लगा रहे,ये सत्याग्रही तो हर रात इस उम्मीद में गुजार रहे थे कि कभी तो सुबह आएगी, इंसाफ की वो सुबह, जब सरकार उनके संघर्ष के आगे झुक जाएगी, इंसानियत के पैमानों पर आकर सोचेगी और उन्हे उनका हक दिलाएगी। कहां जानते थे कि जिस सुबह के इंतजार में वो बीते पंद्रह दिनों से, खुद को सजा दिए बैठे थे। वो सुबह ऐसे दर्दनाक मंजर दिखाएगी। सत्तर साल की लक्ष्मी बाई की टांगाटोली बना ली जाएगी। और जानवरों की तरह घसीटें जाएंगे, सारे शरारत छोड़कर अपने मां बाप के साथ नर्मदा में खामोश खड़े मासूम बच्चे। ये तो सरकारी नुमाइंदों के दिए वो जख्म हैं, जो सिर्फ जिस्म पर मिले हैं। मुमकिन है कि ये जख्म वक्त के साथ भर भी जाएंगे। लेकिन मन के घावों पर मरहम कहां लगती है, उसका इलाज तो वक्त के पास भी नहीं। सरकार ने इस बार जिस्म के साथ घाव मन पर भी दिए हैं। जल समाधि लेने खड़े सत्याग्रहियों से संवेदनशील सरकार ने दो टूक कह दिया कि इंदिरा सागर के प्रभावितों को मुआवजा दिया जा चुका है, सरकार उन्हे अब एक पैसा नहीं देगी। बांध को पूरा भरेंगे ,और बिजली बनाएंगे। किसके लिए बिजली बनाएंगे, सरकार। इनके घर बुझा कर जिनके घर रोशन करने जा रहे हैं,वो भी इन जैसे इंसान ही होंगे, ये ठीक है उनके घर, गांव, इनकी तरह बांध के दायरे में नहीं आए हैं। फिर ये आदिवासी तो सिर्फ अपना हक मांग रहे थे। अपने हिस्से का मुआवजा,कोई भीख तो नहीं मांगी थी। हरदा के खरदना गांव की तस्वीरें इंसानियत को शर्मसार करने वाली हैं। एक तरफ जलसमाधि के लिए तैयार खड़े सत्याग्रही हैं। दूसरे बाजू पानी से उन्हे बुरी तरह खदेड़ती सरकार। वो सरकार जिसकी आंखो का पानी भी सूख गया लगता है।
Tuesday, June 30, 2015
सूख गया क्या आंख का पानी
वो तो हक की लड़ाई लड़ रहे थे। इंसाफ के लिए जिंदगी और मौत की लड़ाई। सरकार की निगाह में सिर्फ विकास की कहानी लिखते दो बांध हैं। उन दो बांधों से बाढ में बदलते सैकड़ों गांव और उन सैकड़ों गांवों के हजारो लोग जैसे सरकार की आंख से ओझल हो गए हैं। जो कुछ दिखाई दिए तो उनके आगे सरकार भी झुक गई। जो अनदेखे रह गए या कर दिए गए। उन्हे बर्बरता के साथ खदेड़ दिया गया। लेकिन ये फर्क किसलिए। संघर्ष के स्वरुप में तो कोई अंतर नहीं था। भोेले आदिवासियों की मुश्किलों में भी फर्क कहां था । फर्क यहां बस दो अलग अलग बांधो और उनके प्रभावितों का है। गलते सडते पैर लिए तो सत्याग्रही औंकारेश्वर में भी खड़े थे और इंदिरा सागर में भी खड़े रहे। लेकिन नर्मदा के अलग अलग मुहानों पर खड़ी, नर्मदा की इन संतानों के सत्याग्रह से निपटने खुद सरकार ने मुखौटे पहन लिए थे जैसे। पहले आदिवासियों से हमदर्दी का मुखौटा। औंकारेश्वर में सरकार सत्याग्रहियों के आगे झुक गई,और जल सत्याग्रह खत्म हो गया। औंकारेश्वर में सरकार इंसानियत का मुखौटा पहनकर आई थी। लगा कि सरकार संवेदनशील है, अभी ये ख्याल धारणा में बदलता कि उसके पहले, सरकार का असल चेहरा हरदा में दिखाई दे गया। ये क्रूर चेहरा था, मानवीयता का इस चेहरे में नामो निशान नहीं था। जल सत्याग्रहियों को खदेड़ती, तस्वीरों में बुजुर्गों को बेदर्दी से उठाए सरकारी नुमाइंदो की हंसी देखिए। देखकर लगता है कि इंसानियत किसी कोने में नहीं बची है। हैरानी होती है कि निहत्थे मासूम बच्चों, लाचार बूढों से निपटने के लिए निर्दयी हो गई सरकार। नर्मदा की संताने कहां कुछ कह रही थीं। वो तो खामोश खुद को सजा दिए खड़ी रहीं पानी में। ये सत्याग्रह भी इन भोले आदिवासियों ने उन्ही महात्मा से सीखा था जिनके अनुयायी हैं आप नेताजी । अपने हक की खातिर अपनी जिंदगी दांव पर लगा रहे,ये सत्याग्रही तो हर रात इस उम्मीद में गुजार रहे थे कि कभी तो सुबह आएगी, इंसाफ की वो सुबह, जब सरकार उनके संघर्ष के आगे झुक जाएगी, इंसानियत के पैमानों पर आकर सोचेगी और उन्हे उनका हक दिलाएगी। कहां जानते थे कि जिस सुबह के इंतजार में वो बीते पंद्रह दिनों से, खुद को सजा दिए बैठे थे। वो सुबह ऐसे दर्दनाक मंजर दिखाएगी। सत्तर साल की लक्ष्मी बाई की टांगाटोली बना ली जाएगी। और जानवरों की तरह घसीटें जाएंगे, सारे शरारत छोड़कर अपने मां बाप के साथ नर्मदा में खामोश खड़े मासूम बच्चे। ये तो सरकारी नुमाइंदों के दिए वो जख्म हैं, जो सिर्फ जिस्म पर मिले हैं। मुमकिन है कि ये जख्म वक्त के साथ भर भी जाएंगे। लेकिन मन के घावों पर मरहम कहां लगती है, उसका इलाज तो वक्त के पास भी नहीं। सरकार ने इस बार जिस्म के साथ घाव मन पर भी दिए हैं। जल समाधि लेने खड़े सत्याग्रहियों से संवेदनशील सरकार ने दो टूक कह दिया कि इंदिरा सागर के प्रभावितों को मुआवजा दिया जा चुका है, सरकार उन्हे अब एक पैसा नहीं देगी। बांध को पूरा भरेंगे ,और बिजली बनाएंगे। किसके लिए बिजली बनाएंगे, सरकार। इनके घर बुझा कर जिनके घर रोशन करने जा रहे हैं,वो भी इन जैसे इंसान ही होंगे, ये ठीक है उनके घर, गांव, इनकी तरह बांध के दायरे में नहीं आए हैं। फिर ये आदिवासी तो सिर्फ अपना हक मांग रहे थे। अपने हिस्से का मुआवजा,कोई भीख तो नहीं मांगी थी। हरदा के खरदना गांव की तस्वीरें इंसानियत को शर्मसार करने वाली हैं। एक तरफ जलसमाधि के लिए तैयार खड़े सत्याग्रही हैं। दूसरे बाजू पानी से उन्हे बुरी तरह खदेड़ती सरकार। वो सरकार जिसकी आंखो का पानी भी सूख गया लगता है।
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment