Sunday, June 28, 2015

सजा,तो गैस पीड़ितों के हिस्से है



छब्बीस साल पहले हुआ एक हादसा। चौदह साल बाद इस हादसे के गुनाहगारों की सजा बढाने की अपील की गई। वो भी खारिज हो गई। कितनी सस्ती है इस देश में जिंदगी की कीमत। एक मुल्क अपने चंद हजार लोगों की मौत का बदला लेने दूसरे देश में जाकर दुनिया के सबसे खुंखार आतंकवादी को मौत के घाट उतार देता है। लेकिन यहां हजारों लोगों को मौत की नींद सुला देने वाले, लाखों लोगों को मौत से  बदतर जिंदगी देने वाले हादसे के  जिम्मेदारों को कड़ी सजा भी नहीं मिल पाती। भोपाल गैस त्रासदी के गुनाहगारों को कड़ी सजा देने की सीबीआई की अपील सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दी है। गैस हादसे को गुजरे कितने बरस बीत गए। लेकिन सड़कों पर रैलियां निकालते,इंसाफ मांगते गैस पीड़ितों की तस्वीर नहीं बदली।  न्याय की ये लड़ाई जारी है अब भी। तब भी जब गैस पीड़ितों की पीढियां बदल चुकी हैं। गैस हादसे के वक्त जो जवान थे अब बूढे हो चले हैं। लेकिन संघर्ष जारी है। सुप्रीम कोर्ट में अपील खारिज हो जाना गैस त्रासदी के शिकार लोगों के लिए इंसाफ की उम्मीदों का खारिज हो जाना है।   अब लगता भी नही कि  दुनिया की इस सबसे भयानक औद्यौगिक त्रासदी के शिकार बने लोगों को कभी न्याय मिल सकेगा। तंत्र की धीमी और सुस्त रफ्तार ने सारी उम्मीदों पर पानी फेर दिया है। भोपाल गैस त्रासदी मामले में सुप्रीम कोर्ट की तल्ख टिप्पणी इस बात की तस्दीक करती है। जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि एक तो जांच एजेंसी ने 14 साल बाद ये अपील की। उस पर उसकी दलील भी संतोषजनक नहीं है। सवाल  इस बात का है कि आरोपियों को कड़ी सजा देने का ख्याल 14 साल बीत जाने के बाद क्यों आया। जब सितम्बर 1996 में सुप्रीम कोर्ट ने मामले के आरोपियों के खिलाफ धाराएं बदलने का फैसला दिया था। आखिर तभी सीबीआई ने पुर्नविचार याचिका दायर क्यों नहीं की। और 14 साल बाद भी सीबीआई कोर्ट में पहुंची तो बिना सबूतों के।  ये सही है कि हादसे के 26 बरस बीत जाने के बाद भी, इस त्रासदी के आरोपियों को कड़ी सजा दी जाती। तब भी इस फैसले से उन लोगों की भरपाई नहीं होती। जिन्हे इस हादसे में गैस पीड़ितों ने खो दिया। जो उम्र भर के मर्ज इस त्रासदी ने दिए,आरोपियों की सजा बढ़ जाने से उस पर मरहम भी नहीं लगती। लेकिन 26 साल बाद ही सही इंसाफ तो होता। ये तसल्ली तो होती कि आखिर जिनकी गल्ती से  लाखों बेगुनाह  मौत की नींद सो गए। आजीवन कारावास ना सही,दस बरस के लिए ही सही, उन्हे सजा तो मिली। बाकी दुनिया के लिए भी ये सजा सबक होती। कि देरी भले हुई लेकिन बेगुनाहों की मौत का इंसाफ हो गया। जो अपराधी हैं। सिस्टम की खामियों ने उन्हे बचा लिया है। पर फरियादी अब भी सजा भुगत रहे हैं। ये सिर्फ यूनियन कार्बाइड कारखाने से निकले मिथाइल आइसोसाइनाइट नामक जहर से हुई मौत और बीमारियों की ही सजा नही है। उसके बाद मुआवजे के नाम पर हुए मजाक की सजा भी पीड़ितों ने भुगती है। और फिर इलाज के नाम पर छलावे की सजा भी मिली है इन्हे। दुश्मन से लड़ना तो फिर भी आसान होता है। वो दिखाई देता है। लेकिन यहां लड़ाई अपनी ही सरकारों से। अपनी ही जांच एजेंसियों से है। छब्बीस बरस में छै सौ वादे हुए। जाने कितनी सरकारें आई गई। मध्यप्रदेश में गैस राहत पुर्नवास कल्याण विभाग बन गया। लेकिन जमीन पर देखिये तो कुछ भी नहीं बदला। 26 बरस बाद अपनों को खो देने के जख्म अब भी नही भरे हैं। अब जब इस हादसे के जिम्मेदार कड़ी सजा से बच निकले हैं तो गैस पीड़ितों के ये जख्म फिर हरे हो गये हैं।

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