मैं भी अन्ना। भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई में बहुत तेजी से उछला था ये एक नारा। जैसे अन्ना ईमानदारी का परफेक्ट पैमाना बन गए थे। बेईमानी से हारी जनता के लिए उम्मीद बन गए अन्ना। एक ऐसी आवाज जिस पर भरोसा करने का दिल करता था। देश को भ्रष्ट हुए पचास साल बीत जाने के बाद हमें कोई अन्ना मिला। ईमान का नायक अन्ना। लेकिन अन्ना तो इस देश में हमेशा से थे। अकेले, किसी दागदार अफसर के खिलाफ लड़ते अन्ना। किसी विभाग में बढ रहे भ्रष्टाचार को उजागर करते अन्ना। यकीन मानिए भ्रष्टाचार के खिलाफ दिल्ली के रामलीला मैदान से शुरु हुए संघर्ष में शामिल होना जितना आसान है। हकीकत की जमीन पर ये लड़ाई उतनी आसान नहीं। अपनी पगार में बढी मुश्किल से गुजर कर रहे एक बाबू के लिए कितना मुश्किल होता होगा सौ पांच सौ रुपए की भी रिश्वत ठुकरा पाना। जिंदगी की जरुरतों और ईमान के बीच दिमाग में घंटो लंबा संघर्ष चलता होगा। रामलीला मैदान तो फिर बहुत बाद में आता है। असल में भ्रष्टाचार के खिलाफ पहली लड़ाई तो खुद हमारे भीतर से शुरु होती है। सौ पांच सौ रुपए से लेकर लाख दो लाख की रिश्वत को ठुकरा देने वाले भी तो अन्ना ही हैं। ये वो अन्ना हैं जिन्होने अपने ईमान को किसी भी बोली और कीमत पर बिकने नहीं दिया। फिर इसकी सजा बतौर भले तबादले झेले। तमाम मुसीबतों से गुजरना पड़ा। घर से लेकर बाहर तक ईमानदारी की कीमत चुकाई, घर वालों के ताने सुने, और बाहर सनकी तक कहलाए लेकिन हर हाल में अपने ईमान पर टिके रहे। खुद के भीतर पनप रही बेईमानी से संघर्ष पहली लड़ाई है। दूसरी लड़ाई फिर सीधे सीधे होती है। भ्रष्ट और नाकारा सिस्टम में रहते हुए भ्रष्ट अफसरों और विभागों के खिलाफ होती है ये लड़ाई। सरकारी विभागों में ऐसे जाने कितने कर्मचारी होंगे। वो अदने से कर्मचारी, जिन्होने अपने बिकाऊ सरपरस्तों के खिलाफ आवाज उठाने की हिम्मत दो दिखा दी लेकिन उसके बाद से बस सजा ही भुगत रहे हैं। भ्रष्टाचार के खिलाफ कश्मीर से कन्याकुमारी तक एक हो रहे देश में ये हालात हैं। असल में बेईमानी की जितनी मजबूत सांठ गांठ है। उतना पक्का गठबंधन ईमान वालों का नहीं है। इसीलिए जब भी बेईमानों के खिलाफ ईमानदार आवाज उठती है। उसकी बोलती बंद कर दी जाती है। नौकरशाहों से लेकर नेता तक इतना पक्का और मजबूत जोड़ है बेईमानी का। कि इसमें कहीं कोई गुंजाइश ही नहीं रहती। जो इससे टकराने की कोशिश करता है। खुद दर दर की ठोकरे खाने को मजबूूर हो जाता है। इस तरह से उलझा दिया जाता है उसे कि वो बेईमानी की लड़ाई भूलकर खुद को बचाने में जुट जाता है। बीज विकास निगम के अधिकारी.............................की तरह, इस सिस्टम में सैकड़ों हजारों मिसालें होगीं। जिन्होने भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाई लेकिन अब बिना पगार के अपनी नौकरी बचाने संघर्ष कर रहे हैं। ईमान की लड़ाई लड़ रहे इन लोगों को कही कोई नागरिक अभिनंदन नहीं चाहिए। कोई तमगा नहीं, कोई ख्वाहिश नहीं कि वो भीड़ में अलग पहचाने जाएं। लेकिन बेईमानों की फौज से अकेले लड़ रहे समाज के इन छोटे मोटे नायकों का इतना तो हक बनता है कि हम ईमान के इस संघर्ष में इन्हे टूटने ना दें। लोकायुक्त की तरह जनलोकपाल बिल भी कुछ नहीं कर पाएगा, जब तक लोगों के खून से बेईमानी नहीं निकलेगी। ऊपरी कमाई की सनातनी आदत नहीं बदलेगी। भ्रष्टाचार की गुलामी से मुक्ति एक क्रांति से कुछ नहीं बदलने का,इस मुक्ति के लिए कई सारी छोटी मोटी क्रान्तियां करनी होंगी। जो,जहां है वहीं से क्रान्ति शुरु करे।
Sunday, June 28, 2015
भ्रष्टाचार की लड़ाई
मैं भी अन्ना। भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई में बहुत तेजी से उछला था ये एक नारा। जैसे अन्ना ईमानदारी का परफेक्ट पैमाना बन गए थे। बेईमानी से हारी जनता के लिए उम्मीद बन गए अन्ना। एक ऐसी आवाज जिस पर भरोसा करने का दिल करता था। देश को भ्रष्ट हुए पचास साल बीत जाने के बाद हमें कोई अन्ना मिला। ईमान का नायक अन्ना। लेकिन अन्ना तो इस देश में हमेशा से थे। अकेले, किसी दागदार अफसर के खिलाफ लड़ते अन्ना। किसी विभाग में बढ रहे भ्रष्टाचार को उजागर करते अन्ना। यकीन मानिए भ्रष्टाचार के खिलाफ दिल्ली के रामलीला मैदान से शुरु हुए संघर्ष में शामिल होना जितना आसान है। हकीकत की जमीन पर ये लड़ाई उतनी आसान नहीं। अपनी पगार में बढी मुश्किल से गुजर कर रहे एक बाबू के लिए कितना मुश्किल होता होगा सौ पांच सौ रुपए की भी रिश्वत ठुकरा पाना। जिंदगी की जरुरतों और ईमान के बीच दिमाग में घंटो लंबा संघर्ष चलता होगा। रामलीला मैदान तो फिर बहुत बाद में आता है। असल में भ्रष्टाचार के खिलाफ पहली लड़ाई तो खुद हमारे भीतर से शुरु होती है। सौ पांच सौ रुपए से लेकर लाख दो लाख की रिश्वत को ठुकरा देने वाले भी तो अन्ना ही हैं। ये वो अन्ना हैं जिन्होने अपने ईमान को किसी भी बोली और कीमत पर बिकने नहीं दिया। फिर इसकी सजा बतौर भले तबादले झेले। तमाम मुसीबतों से गुजरना पड़ा। घर से लेकर बाहर तक ईमानदारी की कीमत चुकाई, घर वालों के ताने सुने, और बाहर सनकी तक कहलाए लेकिन हर हाल में अपने ईमान पर टिके रहे। खुद के भीतर पनप रही बेईमानी से संघर्ष पहली लड़ाई है। दूसरी लड़ाई फिर सीधे सीधे होती है। भ्रष्ट और नाकारा सिस्टम में रहते हुए भ्रष्ट अफसरों और विभागों के खिलाफ होती है ये लड़ाई। सरकारी विभागों में ऐसे जाने कितने कर्मचारी होंगे। वो अदने से कर्मचारी, जिन्होने अपने बिकाऊ सरपरस्तों के खिलाफ आवाज उठाने की हिम्मत दो दिखा दी लेकिन उसके बाद से बस सजा ही भुगत रहे हैं। भ्रष्टाचार के खिलाफ कश्मीर से कन्याकुमारी तक एक हो रहे देश में ये हालात हैं। असल में बेईमानी की जितनी मजबूत सांठ गांठ है। उतना पक्का गठबंधन ईमान वालों का नहीं है। इसीलिए जब भी बेईमानों के खिलाफ ईमानदार आवाज उठती है। उसकी बोलती बंद कर दी जाती है। नौकरशाहों से लेकर नेता तक इतना पक्का और मजबूत जोड़ है बेईमानी का। कि इसमें कहीं कोई गुंजाइश ही नहीं रहती। जो इससे टकराने की कोशिश करता है। खुद दर दर की ठोकरे खाने को मजबूूर हो जाता है। इस तरह से उलझा दिया जाता है उसे कि वो बेईमानी की लड़ाई भूलकर खुद को बचाने में जुट जाता है। बीज विकास निगम के अधिकारी.............................की तरह, इस सिस्टम में सैकड़ों हजारों मिसालें होगीं। जिन्होने भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाई लेकिन अब बिना पगार के अपनी नौकरी बचाने संघर्ष कर रहे हैं। ईमान की लड़ाई लड़ रहे इन लोगों को कही कोई नागरिक अभिनंदन नहीं चाहिए। कोई तमगा नहीं, कोई ख्वाहिश नहीं कि वो भीड़ में अलग पहचाने जाएं। लेकिन बेईमानों की फौज से अकेले लड़ रहे समाज के इन छोटे मोटे नायकों का इतना तो हक बनता है कि हम ईमान के इस संघर्ष में इन्हे टूटने ना दें। लोकायुक्त की तरह जनलोकपाल बिल भी कुछ नहीं कर पाएगा, जब तक लोगों के खून से बेईमानी नहीं निकलेगी। ऊपरी कमाई की सनातनी आदत नहीं बदलेगी। भ्रष्टाचार की गुलामी से मुक्ति एक क्रांति से कुछ नहीं बदलने का,इस मुक्ति के लिए कई सारी छोटी मोटी क्रान्तियां करनी होंगी। जो,जहां है वहीं से क्रान्ति शुरु करे।
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment