Sunday, June 28, 2015

जागो! नेता जागो


लोकतंत्र का पहला सबक स्कूल में मिलता है। जब अपनी पूरी क्लास के साथ आप क्लास रिप्रजेंटेटिव चुनते हैं। अपनी क्लास के लिए एक ऐसे मुखिया का चुनाव करते हैं। जो पढने लिखने में अव्वल होता है। जो अपनी क्लास के हर दुख सुख का साथी होता है। ये सही है कि पैंतालीस पचास बच्चों की क्लास और दस बारह लाख के मतदाताओं वाली संसदीय सीट के चुनाव में धरती और आसमान जितना फर्क है। जाहिर सी बात है यहां एक क्लास को नहीं एक देश को चलाने हम अपना नेता चुनते हैं। लेकिन फर्क ये भी है कि अपना मॉनीटर चुनते वक्त हम जितनी खूबियां उसमें तलाशते हैं, नेता चुनते वक्त ये सावधानी नहीं बरतते। वजह सिर्फ ये भी नहीं है कि हमारा चुनाव गलत है। वजह ये भी है कि हमारे पास विकल्प भी नहीं होता। पढे लिखे काबिल नेता का विकल्प मिलता नहीं, और मजबूरन अपने इलाके, अपने देश की बागडोर हम ऐसे नेताओं के हाथों में सौंप देते हैं,जो सिर्फ राजनीति करना जानते हैं। जनता से जुड़ी हर बात के लिए वो अफसरों के मोहताज होते हैं। नेता हमारे नुमाइंदे हैं। उम्मीद करते हैं,कि सदन में वो हमारी आवाज उठाएगें। लेकिन फिर खबरें तो फिर भी यही बनती हैं कि फलां सीट के सांसद तो सवाल ही नहीं पूछते। फिर ये किस्सा सिर्फ एक सीट पर नहीं सिमट जाता। ताजा बनगी लोकपाल बिल की ले लीजिए। भ्रष्टाचार को खत्म करने लाए जा रहे लोकपाल बिल पर सदन में विशेष चर्चा हुई। यूपीए सरकार के विश्वासमत के बाद चार साल में ये दूसरा  मौका था जब देश की जनता टीवी पर नजरे जमाए थी कि क्या कहते हैं हमारे नेताजी। जिसने जो बोला। सबने सुना। लेकिन पर्दे केपीछे की कहानी ये है कि उसी संसद में बैठे कई सांसदों को ठीक ठीक मालूम ही नही था कि ये लोकपाल बला क्या है? उन्होने जनलोकपाल और सरकारी लोकपाल बिल के ड्राफ्ट पढे तक नहीं थे। और उस पर गजह ये है कि अब महीना भर बीत जाने के बाद भी भ्रष्टाचार को खत्म करने तैयार हो रहे इस बिल का ड्राफ्ट उनकी नजरों से नहीं गुजरा। भ्रष्टाचार के खिलाफ एक सशक्त लोकपाल की दलील देने वाले भी नहीं जानते कि लोकपाल और जनलोकपाल में फर्क क्या है। जनता कहे कि वो ये सब नहीं जानती, तो समझ में आता है। लेकिन उसी जनता ने जिन्हे अपना प्रतिनिधि बनाकर भेजा। उन्हे भी अगर इसकी जानकारी नहीं है तो ये बात हैरान करने वाली है। होना तो ये चाहिए था खुद हमारे जनप्रतिनिधि। सियासत के हमारे नुमाइंदे जनता के बीच जाते और उन्हे लोकपाल बिल है क्या ये समझाते। और अपनी जनता की राय के मुताबिक सदन में अपनी बात रखते। लेकिन हो उल्टा रहा है। जनता सांसदों को समझाने उनका घेराव करने पर मजबूर हो रही है। उन्हे समझाने जा रही है। यकीन करना पड़ता है कि नेता सिर्फ सियासत की भाषा समझते हैं। राजनीति के दांवपेंच जानते हैं। इसीलिए जब बात उनकी अपनी कुर्सी पर आती है तो सब एक आवाज हो जाते हैं। राइट टू री कॉल और राइट टू रिजेक्ट जैसे अधिकारों पर जनआंदोलनों के शुरु होने से पहले ही सांसदों ने इनकी खिलाफत शुरु कर दी है। इस विरोध के बाद मुमकिन है कि जनता को राइट टू री कॉल और राइट टू रिजेक्ट का अधिकार ना भी मिले। लेकिन पांच साल में एक बार ही सही लोकतंत्र में जनता की भी बारी आएगी। तो अपनी बारी का इंतजार कीजिए। और उस दिन के लिए अभी से गांठ बांध लीजिए कि अबकि काबिल नेता चुनकर भेजना है, पढा लिखा ऐसा नुमाइंदा। जो जनता की बात पूरी दमदारी से सदन तक पहुंचाए। जनता के लिए बनने वाले कानूनों को समझे और उसे जनता को समझाए। एक ऐसा नेता  जो  जनता का , जनता के लिए ,जनता द्वारा बनाए गए लोकतंत्र में सिर्फ भरोसा नही करता उसके मुताबिक चलता भी है। एक ऐसा नेता चुने अबकि बार। जागो जनता। और अब नेता को जगाओ।  

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