Tuesday, June 30, 2015

भीड़ ले के आओ, वरना घर जाओ।


भीड़ ले के आओ, वरना घर जाओ। भीड़ की रिकार्डिंग करके देखा जाएगा कि कौन कितनी भीड़ लाया था। ये कांग्रेस जिलाध्यक्षों की बैठक से निकली खबर का सार भी है और आज की कांग्रेस का सच भी। पार्टियां, मकसद, मिशन, जज्बा, नेता  और नारा, सब किनारे हैं। ये एकदम नईनिकोर कांग्रेस है। इतनी पारदर्शी कि जहां खुलकर कहा जाता है, भीड़ लाओ और अपना पद बचाओ। ये सच है कि चाहे सरकार का आयोजन हो या विपक्ष का आंदोलन, हर जगह भीड़ की भूमिका अहम होती है। ये भी सच है कि अब नेता और पार्टी के, विचारों को सुनने समझाने और मानने वाले लोंगो का झुण्ड भीड़ नहीं कहलाता।  भीड़ की एक लाइन की परिभाषा, जो प्रलोभनों से जुटाई गई वो भीड़ है। ये सारे सच अपनी जगह हैं,लेकिन कभी कोई राजनीतिक दल इस तरह खुलकर अपने कार्यकर्ताओं को नहीं कहता कि भीड़ लाओ, वरना घर जाओ। कांग्रेस ने ये फरमान जारी किया है। पार्टी  मध्यप्रदेश में  चार अक्टूबर को सीएम का घेराव करने जा रही है। सरकार में बढता भ्रष्टाचार समेत मुद्दे कई हैं जिन पर पार्टी शिवराज सरकार को घेरेगी। लेकिन सवाल ये है कि जनता इस विरोध को कैसे सही मानेंगी जब वो जानती है कि जो विरोध करने जुटे हैं उसमें उनकी तरह के आम लोग नहीं है, ये वो लोग हैं, जो भाडेÞ पर बुलाए गए हैं। पार्टी के इस शक्ति प्रदर्शन पर कैसे करेगा कोई यकीन जबकि पहले से ही सब जानते हैं कि हर नेता इस आंदोलन के लिए पूरी शक्ति सिर्फ इसलिए लगाएगा क्योंकि भीड़ नहीं आई, तो उसकी पद और प्रतिष्ठा मुश्किल में आ जाएगी। वो दौर याद कीजिए जब विपक्षी दलों के सच्चे संघर्ष में पार्टी  कार्यकर्ता  के अलावा जनता भी साथ होती थी, ऐसी ही तो किसी भी पार्टी के लिए माहौल बना करता था, समर्थन खड़ा होता था। लेकिन आज राजनीति कहां जा रही है। विपक्ष में बैठे दल की अब तक जो परिभाषा समझी और जानी थी तो, ये वो दल कहलाते हैं सरकार को आइना दिखाना जिनका पहला कर्त्तव्य होता है, चूंकि विपक्ष में होते हैं इसलिए जहां जनता अनसुनी, अनकही रह जाती है। विपक्ष में बैठे दल वहां आवाम की आवाज बन जातें। और इतनी सच्चाई होती थी इस आवाज में कि भीड़ खुद ब खुद जुट जाती , किन्ही प्रलोभनों से भीड़ जुटानी नहीं पड़ती थी। इन दलों के वो आंदोलन होते थे, जो इतिहास में याद किए जाते । फिर कांग्रेस तो वो पार्टी है, जिसकी जमीन गांधी नेहरू, लालबहादुर शास्त्री,  जैसे  नेताओँ ने तैयार की है,वो नेता जिन्होने जनता के साथ जुड़कर आजादी का आंदोलन खड़ा किया था।  तब नेता में वो ताकत होती थी कि उसकी एक आवाज पर, जनता खड़ी हो जाती थी। उसी कांग्रेस की विरासत अब हरिप्रसाद और भूरिया जैसे नेताओं के हाथ में है। दुर्भाग्य से,उसी कांग्रेस का नेतृत्व इतना कमजोर पड़ गया है, कि उस पार्टी के प्रदेशाध्यक्ष को कहना पड़ता है कि आदिवासी जरुर हूं पर मजबूर नहीं। ये नेतृत्व की मजबूरी नहीं तो क्या है कि पार्टी के आंदोलन को सफल बनाने,एक एक जिलाध्यक्ष से अपने साथ भीड़ लाने की नसीहत दी जा रही है। मध्यप्रदेश में सरकार बनाने का सपना कांग्रेसियों की आंखों में छोड़िए सपने में भी नहीं है। लेकिन इस तरह से कांग्रेस के पहले बड़े आंदोलन के लिए बैठकों में भीड़ जुटाने की तैयारी ये बताती है कि विपक्ष के तौर पर भी कांग्रेस पूरी तरह कमजोर पड़ चुकी है। खुद पुराने कांग्रेसी ही, गलत नहीं कहते मध्यप्रदेश में पार्टी डायलिसिस पर है। अव्वल तो आठ साल में सरकार के खिलाफ सÞड़क पर संघर्ष करती कांग्रेस कहीं  दिखाई ही नहीं दी। और अब आंदोलन होने भी जा रहा है, तो भीड़ जुटानी पड़ रही है। देश के सबसे बुजुर्ग दल का ये हाल शर्मनाक है।

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