मौसम बेईमान हो रहा है। रितुएं अब रुठने लगी हैं। मॉनसून की देरी अब हर बरस की कहानी है। लेकिन चिंता की बात ये है कि साल दर साल ये देरी बढती जा रही है। पहले जून के शुरुवाती सप्ताह में ही आ जाती थी मॉनसूनी फुहारें। फिर देरी हुई और जून के दूसरे हफ्ते में लगने लगी बरसात की झड़ी । फिर और हुई देरी और बात तीसरे हफ्ते तक पहुंची। खैर, अब तो जून महीना भी खत्म होने को है, लेकिन बरसात के बादल कहीं दिखाई नहीं दे रहे। कुल जमा चार महीने हिंदुस्तान में होती है बारिश जिसका भी एक महीना तकरीबन रीता ही बीत चुका है। मौसम में आ रहे इन बदलावों की वजह तलाशने जाएंगे, तो वहां भी खुद को ही खड़ा पाएंगे। असल में ये हमारा ही किया धरा है। जो मौसमों का गणित इस कदर बिगड़ गया है। होली तक रहने लगे हैं जाड़े और झमाझम बरसात के दिनों में भी गर्मी और उमस से हाल बेहाल है। हमने परवाह नहीं की,बढती आबादी लील गई पेड़, खेत खलिहान और पहाड़। हालात यहां तक पहुंचे कि अब तो शहरों में धरती का टुकड़ा भी देखने नहीं मिलता ं। इमारतों से पट गई है जमीन। अपनी सहुलियत के लिए, अपनी जमी और अपना आस्मां बांटते रहे, इंसान ने कुदरत की कद्र की ही नहीं । वो जो पेड़ पौधे, हरी भरी वादियां, जो बरसाती बादलों को रिझा लेती थीं,और बादल टूटकर बरसा करते थे। अब उन पेड़ों की जगह आसमान छूती मीनारों ने ले ली है। उन मीनारों से सिर्फ साफ आसमान दिखाई देता है। काले काले बादल उन मीनारों पर कभी नहीं आते। मॉनसून के रुठने की वजह तलाशता ये तस्वीर का एक पहलू है। दूसरा पहलू वो है, मॉनसून की देरी,जहां मुसीबत बन रही है। मॉनसून देर से आए तो पहली मार किसान पर पड़ती है। बुआई के लिए कुदरत के मेह का इंतजार करने वाले किसान के लिए बादल,इन दिनों आस के बादल होते हैं। उम्मीद के बादल। जो वक्त पर बरस गए तो खेत भी मुस्कुराने लगते हैं। बादल, बरसात, खेत और बुआई, इन चारों का समीकरण बिगड़ा तो तय है मंहगाई। सरकारी स्कूल में चौथी पांचवी क्लास में, भूगोल की किताब में एक पाठ हुआ करता था,जिसमें मॉनसून की एकदम नई शिनाख्त थी, जिसमें बताया जाता था कि हिंदुस्तान वो मुल्क है जहां की पूरी अर्थव्यवस्था ही मॉनसून पर निर्भर रहती है। इस नजर से देखिए तो वाकई मॉनसून केवल एक मौसम नहीं है। बरसात की झड़ी नहीं है कि जिसमें भींगकर मोहब्बत के दिन ताजा किए जाएं। कि मोहल्ले की नालियों और छोटे छोटे गड्ढों में कई दिनों तक जमा रहने वाले जिसके पानी पर,तैराई जाएं कागज की कश्तियां और बचपन की यादें साझा की जाएं। बाजार के इस दौर में, जब रिश्तों की भी मार्केटिंग होने लगी है। मॉनसून भी बाजार से अल्हैदा नहीं है। मॉनसून का देरी से आना अर्थव्यवस्था के लिए भी नई फिक्र पैदा करता है। फिक्र मंहगाई की। मॉनसून जितनी देरी से आएगा, अनाज के साथ तमाम चीजों के दाम उतनी तेजी से बढते जाएंगे। बरसात की झड़ी वाले दिनों में भी उमस का ये दौर तो एयरकंडीशंड के सहारे बर्दाश्त हो भी जाएगा, मौसम की मार हम तक पहुंचेगी भी नहीं। लेकिन मंहगाई की मार से फिर कहां बच पाएंगे। बड़ी बड़ी कंपनियों की मार्केटिंग स्ट्रेटजी के तौर पर इस्तेमाल होता है मॉनसून धमाका। तो मॉनसून सिर्फ डिस्काउंट आॅफर की पहचान बन कर ना रह जाए। दुआ कीजिए कि मॉनसून पूरे ढोल ढमाके के साथ आए। गरज चमक के साथ आए। मॉनसून देरी से सही लेकिन आता रहे इसके लिए पर्यावरण को बचाना होगा। एक एक पौधे, और एक एक पेड़ का रिश्ता है बादलों से। इस रिश्ते को टूटने मत दीजिए। रिश्ता टूटा तो मॉनसून फिर रुठ जाएगा।
Tuesday, June 30, 2015
दुआ करें,कि वक्त पर आए मॉनसून
मौसम बेईमान हो रहा है। रितुएं अब रुठने लगी हैं। मॉनसून की देरी अब हर बरस की कहानी है। लेकिन चिंता की बात ये है कि साल दर साल ये देरी बढती जा रही है। पहले जून के शुरुवाती सप्ताह में ही आ जाती थी मॉनसूनी फुहारें। फिर देरी हुई और जून के दूसरे हफ्ते में लगने लगी बरसात की झड़ी । फिर और हुई देरी और बात तीसरे हफ्ते तक पहुंची। खैर, अब तो जून महीना भी खत्म होने को है, लेकिन बरसात के बादल कहीं दिखाई नहीं दे रहे। कुल जमा चार महीने हिंदुस्तान में होती है बारिश जिसका भी एक महीना तकरीबन रीता ही बीत चुका है। मौसम में आ रहे इन बदलावों की वजह तलाशने जाएंगे, तो वहां भी खुद को ही खड़ा पाएंगे। असल में ये हमारा ही किया धरा है। जो मौसमों का गणित इस कदर बिगड़ गया है। होली तक रहने लगे हैं जाड़े और झमाझम बरसात के दिनों में भी गर्मी और उमस से हाल बेहाल है। हमने परवाह नहीं की,बढती आबादी लील गई पेड़, खेत खलिहान और पहाड़। हालात यहां तक पहुंचे कि अब तो शहरों में धरती का टुकड़ा भी देखने नहीं मिलता ं। इमारतों से पट गई है जमीन। अपनी सहुलियत के लिए, अपनी जमी और अपना आस्मां बांटते रहे, इंसान ने कुदरत की कद्र की ही नहीं । वो जो पेड़ पौधे, हरी भरी वादियां, जो बरसाती बादलों को रिझा लेती थीं,और बादल टूटकर बरसा करते थे। अब उन पेड़ों की जगह आसमान छूती मीनारों ने ले ली है। उन मीनारों से सिर्फ साफ आसमान दिखाई देता है। काले काले बादल उन मीनारों पर कभी नहीं आते। मॉनसून के रुठने की वजह तलाशता ये तस्वीर का एक पहलू है। दूसरा पहलू वो है, मॉनसून की देरी,जहां मुसीबत बन रही है। मॉनसून देर से आए तो पहली मार किसान पर पड़ती है। बुआई के लिए कुदरत के मेह का इंतजार करने वाले किसान के लिए बादल,इन दिनों आस के बादल होते हैं। उम्मीद के बादल। जो वक्त पर बरस गए तो खेत भी मुस्कुराने लगते हैं। बादल, बरसात, खेत और बुआई, इन चारों का समीकरण बिगड़ा तो तय है मंहगाई। सरकारी स्कूल में चौथी पांचवी क्लास में, भूगोल की किताब में एक पाठ हुआ करता था,जिसमें मॉनसून की एकदम नई शिनाख्त थी, जिसमें बताया जाता था कि हिंदुस्तान वो मुल्क है जहां की पूरी अर्थव्यवस्था ही मॉनसून पर निर्भर रहती है। इस नजर से देखिए तो वाकई मॉनसून केवल एक मौसम नहीं है। बरसात की झड़ी नहीं है कि जिसमें भींगकर मोहब्बत के दिन ताजा किए जाएं। कि मोहल्ले की नालियों और छोटे छोटे गड्ढों में कई दिनों तक जमा रहने वाले जिसके पानी पर,तैराई जाएं कागज की कश्तियां और बचपन की यादें साझा की जाएं। बाजार के इस दौर में, जब रिश्तों की भी मार्केटिंग होने लगी है। मॉनसून भी बाजार से अल्हैदा नहीं है। मॉनसून का देरी से आना अर्थव्यवस्था के लिए भी नई फिक्र पैदा करता है। फिक्र मंहगाई की। मॉनसून जितनी देरी से आएगा, अनाज के साथ तमाम चीजों के दाम उतनी तेजी से बढते जाएंगे। बरसात की झड़ी वाले दिनों में भी उमस का ये दौर तो एयरकंडीशंड के सहारे बर्दाश्त हो भी जाएगा, मौसम की मार हम तक पहुंचेगी भी नहीं। लेकिन मंहगाई की मार से फिर कहां बच पाएंगे। बड़ी बड़ी कंपनियों की मार्केटिंग स्ट्रेटजी के तौर पर इस्तेमाल होता है मॉनसून धमाका। तो मॉनसून सिर्फ डिस्काउंट आॅफर की पहचान बन कर ना रह जाए। दुआ कीजिए कि मॉनसून पूरे ढोल ढमाके के साथ आए। गरज चमक के साथ आए। मॉनसून देरी से सही लेकिन आता रहे इसके लिए पर्यावरण को बचाना होगा। एक एक पौधे, और एक एक पेड़ का रिश्ता है बादलों से। इस रिश्ते को टूटने मत दीजिए। रिश्ता टूटा तो मॉनसून फिर रुठ जाएगा।
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