Sunday, June 28, 2015

सहकारिता की सियासत


भाजपा सरकार की रहनुमाई में भोपाल में हुआ अन्तर्राष्ट्रीय सहकारिता सम्मेलन। पहली नजर में,ये एक लाइन की खबर से ज्यादा कुछ नहंीं लगती। लेकिन गौर कीजिए तो ये मध्यप्रदेश में होने जा रहे बड़े बदलाव का संकेत है। ये संकेत है कि मध्यप्रदेश में, सहकारिता अब कांग्रेस के हाथों से छूट रही है। ये संकेत है कि सहकारिता आंदोलनों से जिसका कभी दूर दूर तक नाता नहीं रही,वो पार्टी भाजपा अब सहकारिता के सहारे मध्यप्रदेश में तीसरी पारी को मजबूत कर रही है। इस सूबे का इतिहास बताता है कि अब तक मध्यप्रदेश में कांग्रेस ही सहकारिता का सियासी इस्तेमाल करती आई थी। कांग्रेस ही वो पार्टी थी जिसने इस प्रदेश में कई सहकारिता आंदोलन खड़े किए। एक ऐसी पार्टी जिसमें सहकारिता के दम पर ही कई सारे नेताओं की सियासत शुरु हुई और चलती रही। सुभाष यादव, महेन्द्र सिंह कालूखेड़ा, गोविंद सिंह, कांग्रेस में ऐसे नेताओं की लंबी फेहरिस्त है, सहकारिता ने ही जिन्हे राजनीति में फलने फूलने का मौका दिया। लेकिन सत्ता से बेदखल होने के बाद कांग्रेस सहकारिता से दूर हो गई। उस आंदोलन से दूर हो गई कांग्रेस की जड़ें मजबूत करने में जिस आंदोलन ने बड़ी भूमिका निभाई थी। सहकारिता के नाम से पहचाने जाने वाले सुभाष यादव जैसे नेता अब पार्टी में रिटायरमेंट की स्थिति में पहुंच रहे हैं। एक वक्त था जब भाजपा में सहकारिता पर कोई बात नहीं थी। सहकारिता के दम पर खड़े नेताओं की फौज भी नहीं। लेकिन आठ साल सरकार में रहने के बाद भाजपा भी सत्ता में रहने के टोटके जान गई है। सबको साधने के तरीके सीख गई है। पार्टी कोई मौका, कोई मोर्चा नहीं छोड़ रही। सहकारिता प्रकोष्ठ तो पार्टी में बहुत पहले से है। लेकिन अब भाजपा सहकारिता को अपने सिध्दातों से भी जोड़ रही है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को दीनदयाल उपाध्याय का एकात्म मानववाद सहकारिता का ही दर्शन दिखाई देता है। मध्यप्रदेश में भाजपा ने अब उस सहकारिता में अपनी जड़ें जमानी करनी शुरु कर दी है। जिसका इतिहास आजादी से भी पहले का है। देश को आर्थिक रुप से मजबूत बनाने में, बोरोजगारी दूर करने में सहकारिता सम्मेलनों की अहम भूमिका रही है। इस वक्त भी देश में करीब पांच लाख से भी अधिक सहकारी समितियां काम कर रही हैं। जिनके जरिए करोड़ों लोगो को रोजगार मिल रहा है। इनमें, खेती, फर्टिलाइजर और मिल्क प्रोडक्शन जैसे खास क्षेत्र हैं जहां सहकारी समितियां सक्रीयता से काम कर रही हैं। अमूल के रुप में, देश का सबसे बड़ा कॉ आॅपरेटिव्ह मूवमेंट हम सबके सामने है। जाहिर है इन सहकारी समितियों का सियासी इस्तेमाल भी देश में होता रहा है और आगे भी होता रहेगा। खैर,वापिस मध्यप्रदेश पर आते हैं। मध्यप्रदेश में विधानसभा चुनाव में अब जबकि बमुश्किल दो साल का वक्त बचा है।   बिल्कुल ठीक वक्त पर शिवराज सरकार ने,सहकारिता पर भी दांव खेल दिया है। पार्टी जानती है कि सहकारिता के सहारे सहकारी समितियां और फिर उनके हजारो सदस्यों का समर्थन चुनाव में भाजपा की तकदीर बदल सकता है। कांग्रेस की पूछिए मत। कांग्रेस में तो सहकारिता आंदोलन ही नहीं।सहकारिता से जुड़े नेता भी फिलहाल लुप्तप्राय हैं।

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