Sunday, June 28, 2015

क्योंकि पंसारी पर भरोसा है



खाद्य सुरक्षा कानून की देश भर में हुई जोरदार खिलाफत के बाद अब इसके मानक नियमों में बदलाव की उम्मीद जताई जा रही है। देश भर में चाय,खोमचे वालों से लेकर किराने के थोक व्यवसाईयों तक, सबने इस कानून का कड़ा विरोध किया। उनका विरोध जायज भी था क्योंकि व्यापारी मानते हैं कि इस कानून के आ जाने के बाद देश में बहुराष्ट्रीय कंपनियों को बोलबाला होगा, और रोज खाने कमाने वालों की रोजी तो लगभग खत्म ही हो जाएगी। लेकिन खाद्य वस्तुओं में मिलावट को रोकने और उसमें तय गुणवत्ता के मुताबिक बेचने के लिए ये खाद्य सुरक्षा कानून जिनके लिए बनाया जा रहा है। इस देश का आम आदमी भी इसका स्वागत कर रहे हों ऐसा नहीं है। असल में इसके पीछे वजह कई है। वजह हिंदुस्तान का परिवेश है, यहां का कारोबार और व्यवहार है। जज्बातों में जीने वाला ये मुल्क कभी कानूनों के भरोसे नहीं चला। अब भी यहां कानून से बड़ी सजा समाज दे देता है। खाद्य सुरक्षा कानून का मामला भी ऐसा ही है। हिंदुस्तान में कारोबार भरोसे पर चलता है। वो भरोसा ही होता है जिसकी दम पर पीढियों तक परिवार में किसी एक खास किराने वाले की दुकान से घर का सामान जाता है। मुश्किल के दिनों में कई बार उधार भी और अच्छे दिनों में नकदी। खाद्य सुरक्षा कानून के आ जाने के बाद इस भरोसे के टूट जाने का डर है। यूं भी बिना कानून के डर के भी तो पंसारी खुद ही ग्राहक को अच्छी और खराब दाल का फर्क बता देता है। अब अर्थव्यवस्था पर आएं तो डिब्बा बंद फूड का चलन इस देश की अर्थव्यवस्था को प्रभावित करने वाला होगा ये तय है। अगर डिब्बा बंद फूड की शुरुवात हो गई तो जाने कितने करोड़ खोमचे वाले, चाय वाले, रोज खाने कमाने वाले बेरोजगार हो जाएंगे। इस देश की अर्थव्यवस्था ही ऐसी है,हम खाने की चीज की जितनी कीमत चुकाते हैं, वो पूरा हिस्सा एक की जेब में नहीं जाता, मुनाफे के कई हिस्से होते हैं। इको सिस्टम की तरह एक पूरी चेन होती है। थोक से लेकर खुदरा व्यापारी तक के बीच की। इस कानून के आ जाने के बाद इस कड़ी के टूट जाने का भी खतरा है। खान पान के लिहाज से भी देखें तो स्वाद के लिए जीने वाले हमारे देश में, खाने के लिए ही तो कमाते हैं,इस देश के लोगों का फ्रीज में रखा डिब्बा बंद फूड से पेट तो भर जाएगा लेकिन मन कभी नहीं भरेगा। मन तो ठेले पर पानीपूरी खाकर ही भरता है, या कागज में लिपटी कचौरी निपटाकर। कानून और उसके सख्त नियम कायदे सब अपनी जगह हैं, लेकिन कुछ मामलों में सरकार को भी समाज के हिसाब से सोचना चाहिए। हिंदुस्तान उस तरह का मुल्क नहीं हैं,ये रोज खाने कमाने वालों का देश है। ये खाने के लिए जीने वालों का देश है। ये भरोसे पर चलने वाले कारोबारियों का देश है। इसलिए सरकार को चाहिए कि खाने पीने पर कानून का डंडा चलाने से पहले अपने मुल्क और उस मुल्क में रहने वालों के मिजाज को भी समझ ले। जरुरी नहीं है कि हर बात हड़ताल से ही समझाई जाए।

No comments: