यही है नारा यही संदेश,हरा भरा हो मध्यप्रदेश। कोई बीस साल पहले तक सरकारी विज्ञापनों की साथ पर्यावरण को बचाने का संदेश देते ये होर्डिग सड़कों पर दिखाई दे जाते थे। हैरानी इस बात की होती थी कि तब इन नारों की जरुरत नहीं थी। ये प्रदेश इस नारे पर खरा था। और हरा भरा था। वक्त के साथ आबादी बढ़ी। और आबादी के साथ बढते फैलते गए शहर। शहरों ने पहले जंगलों को चट किया। फिर खेतों को निगला और अब गांव भी शहर का हिस्सा होने लगे। फिर विकास का खाका तय हुआ। चौड़ी सड़कें। आं्रख की हद से भी ऊंचे मल्टीप्लेक्स। शॉपिंग मॉल। लेकिन तरक्की की इस उजली तस्वीर में पेड़ पौधों के लिए कोई गुंजाइश नहीं छोड़ी गई। हर नगर को महानगर की हमशक्ल बनाने की होड़ में जाने कब बूढ़े दरख्तों ने दम तोड़ दिया। और पौधे उम्र से पहले कुचल दिए गए। पहले सिर्फ व्यवसायिक इलाकों में ही पेड़ पौधे दिखाई नहीं देते थे। लेकिन अब रिहायशी इलाकों में भी पेड़ ढूंढे नहीं मिलते। बस ईंट सीमेंट की ईमारतों के जंगल है जहां तक नजर जाए। अभी बीस साल पहले तक घर में आंगन होते थे। और आंगन में नीम अमरुद और आम के पेड़। लेकिन बढ़ती आबादी ने वो जमीन भी छीन ली। अब अपार्टमेंट का जमाना है। फ्लैट संस्कृति का जमाना। जो आज के आदमी के लिए जरुरी भी है और उसकी मजबूरी भी। अब आसमान में टंगा इंसान कहां से लाएगा आंगन और नीम। लेकिन इंसान ने जंगलों को काट कर बनाए अपार्टमेंट में पेड़ पौधों का अपना शौक पूरा करने बोनसाई भी तलाश लिए। अपने शौक के लिए किसी बढ़ते पेड़ को बौना बना कर दिया। असल में तो हमने खुद अपनी जरुरतों के लिए ,अपनी जिंदगी के लिए पर्यावरण की मौत मंजूर कर ली। उन पेड़ों की मौत जिनकी बदौलत हम जीवन पाते हैं। पेट्रोल के दाम जितनी तेजी से बढ़ रहे हैं। उतनी ही तेजी से सड़कों पर बढ़ रहा है वाहनों का काफिला। भोजन में ही नहीं हवा में भी मिलावट है। प्रदूषित हवा के साथ आई वो मिलावट जो हमारे भीतर जाकर बीमारियों की जड़ बन रही है। लेकिन पर्यावरण की जड़ों को सींचने और बचाने की परवाह हम अब भी नहीं कर रहे। याद कीजिये उस दौर को जब बाग बगीचों में बरगद की छांव में चैन की नींद आ जाती थी। लेकिन अब एयरकंडीशनर में भी बेचैनी है। कागज के लिफाफे में सब्जी भाजी से लेकर किराने तक का सारा सामान मिलता था। पर अब तो पॉलीथीन का युग है। पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाली वो पॉलीथीन जो प्रदूषण तो बढ़ाती ही है, लाख नष्ट किए जाने के बावजूद किसी ना किसी रुप में बची रह जाती है। हम खुद विकास के नाम पर कुदरत के साथ ज्यादती करते रहे। हमने अपने घर के लिए काट डाले जंगल। अपने रास्तों के लिए पेड़ खत्म कर दिए। लेकिन ये एक तरफा नहीं था। हमारी ज्यादती हो चुकी । अब कुदरत की बारी है अब वो हिसाब मांग रही है हमसे। जमीन और आसमान के बीच में फ्लैटों में झूल रही आबादी अब ताजा हवा के लिए तरसती है। ये उस ज्यादती का ही तो सिला है कि मौसमों ने अपना मिजाज बदल लिया है। झमाझम बारिश के दिन उमस लिए सूखे बीत जाते हैं। और तीखी गर्मी के दिनों में घिर आते हैं बादल। हमने हमेशा कुदरत से लेना सीखा। देना नहीं। आज कुदरत की मार फिर हमे नसीहत दे रही है । कि वक्त रहते बचा लें हम खत्म होते पर्यावरण को। एक एक पौधे के साथ फिर अपने आस पास हरी भरी दुनिया खड़ी कर लें। पेड़ जिंदा रह गए तो बच जाएंगी हमारी भी सांसे।
Sunday, June 28, 2015
फिर हो जाए हरी भरी दुनिया..
यही है नारा यही संदेश,हरा भरा हो मध्यप्रदेश। कोई बीस साल पहले तक सरकारी विज्ञापनों की साथ पर्यावरण को बचाने का संदेश देते ये होर्डिग सड़कों पर दिखाई दे जाते थे। हैरानी इस बात की होती थी कि तब इन नारों की जरुरत नहीं थी। ये प्रदेश इस नारे पर खरा था। और हरा भरा था। वक्त के साथ आबादी बढ़ी। और आबादी के साथ बढते फैलते गए शहर। शहरों ने पहले जंगलों को चट किया। फिर खेतों को निगला और अब गांव भी शहर का हिस्सा होने लगे। फिर विकास का खाका तय हुआ। चौड़ी सड़कें। आं्रख की हद से भी ऊंचे मल्टीप्लेक्स। शॉपिंग मॉल। लेकिन तरक्की की इस उजली तस्वीर में पेड़ पौधों के लिए कोई गुंजाइश नहीं छोड़ी गई। हर नगर को महानगर की हमशक्ल बनाने की होड़ में जाने कब बूढ़े दरख्तों ने दम तोड़ दिया। और पौधे उम्र से पहले कुचल दिए गए। पहले सिर्फ व्यवसायिक इलाकों में ही पेड़ पौधे दिखाई नहीं देते थे। लेकिन अब रिहायशी इलाकों में भी पेड़ ढूंढे नहीं मिलते। बस ईंट सीमेंट की ईमारतों के जंगल है जहां तक नजर जाए। अभी बीस साल पहले तक घर में आंगन होते थे। और आंगन में नीम अमरुद और आम के पेड़। लेकिन बढ़ती आबादी ने वो जमीन भी छीन ली। अब अपार्टमेंट का जमाना है। फ्लैट संस्कृति का जमाना। जो आज के आदमी के लिए जरुरी भी है और उसकी मजबूरी भी। अब आसमान में टंगा इंसान कहां से लाएगा आंगन और नीम। लेकिन इंसान ने जंगलों को काट कर बनाए अपार्टमेंट में पेड़ पौधों का अपना शौक पूरा करने बोनसाई भी तलाश लिए। अपने शौक के लिए किसी बढ़ते पेड़ को बौना बना कर दिया। असल में तो हमने खुद अपनी जरुरतों के लिए ,अपनी जिंदगी के लिए पर्यावरण की मौत मंजूर कर ली। उन पेड़ों की मौत जिनकी बदौलत हम जीवन पाते हैं। पेट्रोल के दाम जितनी तेजी से बढ़ रहे हैं। उतनी ही तेजी से सड़कों पर बढ़ रहा है वाहनों का काफिला। भोजन में ही नहीं हवा में भी मिलावट है। प्रदूषित हवा के साथ आई वो मिलावट जो हमारे भीतर जाकर बीमारियों की जड़ बन रही है। लेकिन पर्यावरण की जड़ों को सींचने और बचाने की परवाह हम अब भी नहीं कर रहे। याद कीजिये उस दौर को जब बाग बगीचों में बरगद की छांव में चैन की नींद आ जाती थी। लेकिन अब एयरकंडीशनर में भी बेचैनी है। कागज के लिफाफे में सब्जी भाजी से लेकर किराने तक का सारा सामान मिलता था। पर अब तो पॉलीथीन का युग है। पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाली वो पॉलीथीन जो प्रदूषण तो बढ़ाती ही है, लाख नष्ट किए जाने के बावजूद किसी ना किसी रुप में बची रह जाती है। हम खुद विकास के नाम पर कुदरत के साथ ज्यादती करते रहे। हमने अपने घर के लिए काट डाले जंगल। अपने रास्तों के लिए पेड़ खत्म कर दिए। लेकिन ये एक तरफा नहीं था। हमारी ज्यादती हो चुकी । अब कुदरत की बारी है अब वो हिसाब मांग रही है हमसे। जमीन और आसमान के बीच में फ्लैटों में झूल रही आबादी अब ताजा हवा के लिए तरसती है। ये उस ज्यादती का ही तो सिला है कि मौसमों ने अपना मिजाज बदल लिया है। झमाझम बारिश के दिन उमस लिए सूखे बीत जाते हैं। और तीखी गर्मी के दिनों में घिर आते हैं बादल। हमने हमेशा कुदरत से लेना सीखा। देना नहीं। आज कुदरत की मार फिर हमे नसीहत दे रही है । कि वक्त रहते बचा लें हम खत्म होते पर्यावरण को। एक एक पौधे के साथ फिर अपने आस पास हरी भरी दुनिया खड़ी कर लें। पेड़ जिंदा रह गए तो बच जाएंगी हमारी भी सांसे।
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