ये कोचिंग का काल है। समय का वो कालखंड जहां की अच्छी पढाई के लिए बेहतर स्कूल और कॉलेज से पहले एक कामयाब कोचिंग की भी तलाश की जाती है। बीत गया वो दौर जब स्कूल के मास्टर साहब भी स्कूल के बाद अपने विद्यार्थियों को घर में छुपकर ट्यूशन पढाया करते थे। तब ये माना जाता था कि ये मास्टर साहब की और पैसा कमाने की लालसा भर है जो जानबूझकर बच्चों को क्लास में नहीं पढाने देती। और उसी लालच की वजह से मास्टर साहब के घर में ट्यूशन चलते हैं। फिर पढाई में कमजोर बच्चों के नाम पर ही सही ट्यूशन चलती रही। फिर देखते ही देखते जाने कब ये बदलाव आया कि केवल स्कूल की पढाई इम्तेहान में अव्वल आने के लिए नाकाफी होने लगी। विज्ञान और गणित और वाणिज्य से जुड़े कुछ विषय तो ऐसे दुरुह विषय हो गए कि जिनके लिए तय हो गया कि बिना ट्यूशन जाए इनकी किताबें भी नहीं उठाई जा सकतीं। जाने कब ये विषय स्कूल के लेक्चरर के बस की बात नहीं रहे। चंद बच्चों का ट्यूशन जब स्कूल कॉलेज की तरह की क्लास में तब्दील हुआ तो कोचिंग बन गया। फिर कोचिंग क्लासेस। और अब तो खैर शिक्षा के क्षेत्र में ये ऐसा फलता फूलता कारोबार है। जो कई बार निजी स्कूल कॉलेज से ज्यादा फायदे का सौदा साबित हो रहा है। पहले दूसरे शहर बच्चे कॉलेज की आगे की पढाई के लिए जाया करते थे। अब कोचिंग के लिए जाते हैं। इंदौर और कोटा ये दो शहर तो कोचिंग के लिए विख्यात हो चुके हैं। हिंदुस्तान के किसी शहर में चले जाए रेल्वे स्टेशन से लेकर शहर के प्रमुख बाजार तक कुछ और नजर आए ना आए । कोचिंग इंस्टीट्यूट के इश्तेहार आपको भरपूर मात्रा में देखने को मिल जाएगे। लेकिन इश्तेहार और असलियत में सपने और हकीकत का जितना ही फर्क होता है। कोचिंग पर कोई मॉनिटरिंग बॉडी नहीं तो दर्जनों की तादात में बच्चे एक क्लास में ठूंस दिए जाते हैं। यहां हर बच्चे की गिनती सिर्फ एक छात्र के रुप में ही नहीं होती। वो मोटी फीस देने वाले ऐसा ग्राहक भी है जिसके किसी परीक्षा में फेल होने जाने पर नुकसान सिर्फ उसका होना है,लेकिन सफल होने पर उसकी मेहनत और कामयाबी का पूरा श्रेय उसे नहीं,उसकी कोचिंग को दिया जाता है। कहते हैं जो रास्ता सीधे मंजिल तक पहुंचाता हो। वहां फिर सीढियां नहीं गिनी जाती। इसी तरह अपने बच्चों को किसी मुकाम पर देखने की ख्वाहिश में मां बाप फिर कुछ नहीं देखते। बच्चों की पढाई के बजट में स्कूल कॉलेज से दूगनी फीस कोचिंग के नाम हो जाती है। और कारोबार बन चली कोचिंग में मनमाने तरीके से फीस वसूली जाती है। कई बार तो इंजीनियरिंग के एक सेमेस्टर की फीस से भी मंहगी पढती है एक साल की कोचिंग। लेकिन सपनों का सौदा तो फिर हर कीमत पर होता है। जिसका फायदा कोचिंग के कारोबारी जमकर उठा रहे हैं। लेकिन जरुरी है कि अब सरकार निजी शिक्षण संस्थानों की तरह कोचिंग के लिए भी मापदंड तय करे। फीस तय करे। छात्रों को दी जाने वाली सुविधा तय करें। ये तय होना चाहिए कि कोचिंग में बच्चों से जो शूल्क वसूला जाता है। वो सारी सुविधाएं उस कोचिंग मे छात्रों को दी भी जा रही है या नहीं। हांलाकि कोचिंग संस्थानों पर ये लगाम इसके कारोबार बनने के पहले ही कस जानी चाहिए थी। लेकिन अब भी वक्त नहीं बीता। ये अलार्मिग टाइम है। कोचिंग, कारोबार की शक्ल तो ले चुका है। लेकिन इसके पहले कि कारोबार की तरह कोचिंग में भी नफे नुकसान के साथ छात्रों के भविष्य से खिलवाड़ शुरु हो जाए। सरकार को जाग जाना चाहिए। कोचिंग के सहारे आज अपने भविष्य का हल तलाश रहे ये होनहार इस देश का आने कल हैं।
Sunday, June 28, 2015
कोचिंग का काल
ये कोचिंग का काल है। समय का वो कालखंड जहां की अच्छी पढाई के लिए बेहतर स्कूल और कॉलेज से पहले एक कामयाब कोचिंग की भी तलाश की जाती है। बीत गया वो दौर जब स्कूल के मास्टर साहब भी स्कूल के बाद अपने विद्यार्थियों को घर में छुपकर ट्यूशन पढाया करते थे। तब ये माना जाता था कि ये मास्टर साहब की और पैसा कमाने की लालसा भर है जो जानबूझकर बच्चों को क्लास में नहीं पढाने देती। और उसी लालच की वजह से मास्टर साहब के घर में ट्यूशन चलते हैं। फिर पढाई में कमजोर बच्चों के नाम पर ही सही ट्यूशन चलती रही। फिर देखते ही देखते जाने कब ये बदलाव आया कि केवल स्कूल की पढाई इम्तेहान में अव्वल आने के लिए नाकाफी होने लगी। विज्ञान और गणित और वाणिज्य से जुड़े कुछ विषय तो ऐसे दुरुह विषय हो गए कि जिनके लिए तय हो गया कि बिना ट्यूशन जाए इनकी किताबें भी नहीं उठाई जा सकतीं। जाने कब ये विषय स्कूल के लेक्चरर के बस की बात नहीं रहे। चंद बच्चों का ट्यूशन जब स्कूल कॉलेज की तरह की क्लास में तब्दील हुआ तो कोचिंग बन गया। फिर कोचिंग क्लासेस। और अब तो खैर शिक्षा के क्षेत्र में ये ऐसा फलता फूलता कारोबार है। जो कई बार निजी स्कूल कॉलेज से ज्यादा फायदे का सौदा साबित हो रहा है। पहले दूसरे शहर बच्चे कॉलेज की आगे की पढाई के लिए जाया करते थे। अब कोचिंग के लिए जाते हैं। इंदौर और कोटा ये दो शहर तो कोचिंग के लिए विख्यात हो चुके हैं। हिंदुस्तान के किसी शहर में चले जाए रेल्वे स्टेशन से लेकर शहर के प्रमुख बाजार तक कुछ और नजर आए ना आए । कोचिंग इंस्टीट्यूट के इश्तेहार आपको भरपूर मात्रा में देखने को मिल जाएगे। लेकिन इश्तेहार और असलियत में सपने और हकीकत का जितना ही फर्क होता है। कोचिंग पर कोई मॉनिटरिंग बॉडी नहीं तो दर्जनों की तादात में बच्चे एक क्लास में ठूंस दिए जाते हैं। यहां हर बच्चे की गिनती सिर्फ एक छात्र के रुप में ही नहीं होती। वो मोटी फीस देने वाले ऐसा ग्राहक भी है जिसके किसी परीक्षा में फेल होने जाने पर नुकसान सिर्फ उसका होना है,लेकिन सफल होने पर उसकी मेहनत और कामयाबी का पूरा श्रेय उसे नहीं,उसकी कोचिंग को दिया जाता है। कहते हैं जो रास्ता सीधे मंजिल तक पहुंचाता हो। वहां फिर सीढियां नहीं गिनी जाती। इसी तरह अपने बच्चों को किसी मुकाम पर देखने की ख्वाहिश में मां बाप फिर कुछ नहीं देखते। बच्चों की पढाई के बजट में स्कूल कॉलेज से दूगनी फीस कोचिंग के नाम हो जाती है। और कारोबार बन चली कोचिंग में मनमाने तरीके से फीस वसूली जाती है। कई बार तो इंजीनियरिंग के एक सेमेस्टर की फीस से भी मंहगी पढती है एक साल की कोचिंग। लेकिन सपनों का सौदा तो फिर हर कीमत पर होता है। जिसका फायदा कोचिंग के कारोबारी जमकर उठा रहे हैं। लेकिन जरुरी है कि अब सरकार निजी शिक्षण संस्थानों की तरह कोचिंग के लिए भी मापदंड तय करे। फीस तय करे। छात्रों को दी जाने वाली सुविधा तय करें। ये तय होना चाहिए कि कोचिंग में बच्चों से जो शूल्क वसूला जाता है। वो सारी सुविधाएं उस कोचिंग मे छात्रों को दी भी जा रही है या नहीं। हांलाकि कोचिंग संस्थानों पर ये लगाम इसके कारोबार बनने के पहले ही कस जानी चाहिए थी। लेकिन अब भी वक्त नहीं बीता। ये अलार्मिग टाइम है। कोचिंग, कारोबार की शक्ल तो ले चुका है। लेकिन इसके पहले कि कारोबार की तरह कोचिंग में भी नफे नुकसान के साथ छात्रों के भविष्य से खिलवाड़ शुरु हो जाए। सरकार को जाग जाना चाहिए। कोचिंग के सहारे आज अपने भविष्य का हल तलाश रहे ये होनहार इस देश का आने कल हैं।
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