भारत में भ्रष्टाचार की ठीक ठीक उम्र बता पाना तो मुश्किल है। लेकिन इस बात की कोई भी सौ फीसदी गारंटी ले लेगा कि इस वक्त करप्शन अपने सुनहरे दौर में है। मध्यप्रदेश में छै महीने के भीतर लोकायुक्त का दूसरा ऐसा छापा है, जहां लागू नहीं हुए लोकपाल के डी श्रेणी में आने वाले सरकार कारींदे के घर ने फिर खजाना उगला है। चंद लाख नहीं, करोड़ों का खजाना। ग्वालियर के अदने से कर्मचारी के बाद अब देश भर में उज्जैन के चपरासी के चर्चे हैं। करप्शन का कमाल देखिए दस हजार महीने की पगार पाने वाला कर्मचारी पांच करोड़ की संपत्ति का आसामी बन गया। मुमकिन है कि संपत्ति का ये आंकड़ा दस करोड़ तक भी पहुंच जाए। उज्जैन नगर निगम के चपरासी नरेन्द्र देशमुख तस्दीक है इस बात की कि देश का ईमान जगाने, अनशन करने वाले, अन्ना की लड़ाई बेमानी नहीं है। भष्टाचार की जड़ें गहरी हो चुकी है, कितनी बार ही सुना और कहा गया ये जुमला भी सरकार के सबसे छोटे कहे जाने वाले इस कर्मचारी के घर से निकली काली कमाई के आंकड़ों के आगे बेमानी सा लगता है। ईमान अब जैसे सिर्फ किस्सों में रहता है। या फिर नैतिक शिक्षा की किताबों में पाठ बनकर बच्चों को पढाने के काम आता है। वो भी तब तक जब तक कि ये बच्चे बेईमानी करने की उम्र में नहंीं पहुंच जाते। बेईमानी से जुड़ा एक दिलचस्प पहलू ये भी है कि भ्रष्टाचार की खरपतवार हर कहीं नहीं होती। उसके लिए सही जमीन बीज खाद मिलनी चाहिए। नगर निगम जैसे जनता से सीधे जुड़ाव रखने वाले विभाग भष्ट्राचार के लिए ऊपजाऊ धरती की तरह हैं। जितने बोएंगे उससे चौगुना पाएंगे। जनता की जरुरतों से सीधे जुड़े ये विभाग ऊपरी गारंटी की कमाई लिए होते हैं। याददाश्त पर अगर जोर डालें, देशमुख से पहले भोपाल नगर निगम के पीआरओ के पास भी इसी तरह अकूत संपत्ति निकली थी, और सुर्खियों में आए थे हामिद अली। ं इन विभागों में काली कमाई के लेन देन की वजह तलाशनें जाएं तो एक तरफ सुविधा शुल्क देने की आदि जनता दिखाई देती है, तो दूसरी तरफ सरकारी सिस्टम और बाबूओं का ढीला रवैया। जिसमें तय वक्त में किसी काम का हो पाना नामुमकिन है ये तय मानिए। जरुरी सरकारी फाईलें भी महीनों में एक टेबल से दूसरे टेबल के मुकाम को तय करती है। रफ्तार बढाने इस फाईल में रिश्वत के पंख लगाने पड़ते हैं। फिर दिनों का काम फिर मिनिटों में हो जाता है। सरकारी नियम कायदों की रुकावटों को पार करते हुए, तय वक्त में अपना काम करवाने, कब सौ पचास रुपए से शुरु हुआ ये सिलसिला, आदत बन जाता है, पता ही नहीं चलता। देशमुख की पांच करोड़ की संपत्ति में जाने कितने ऐसे छोटी मोटी रिश्वतों के ऐसे पचास सौ के नोट होंगे। जो सरकारी फाईलों को रफ्तार देने उनके साथ लग कर आए होंगे, और इस चपरासी की जेब से होते हुए बैंक के खातों तक पहुंचे हैं। आज से पहले तक. जब भी लोकपाल पर बहस हुई,ये मंजूर किया जाता रहा कि पहले दूसरे दर्जे पर लगाम लगा दी जाए तो भ्रष्टाचार को ईलाज हो सकता है। पूरी बीमारी भले खत्म नहीं होगी लेकिन काबू में तो आ ही जाएगी। लेकिन जिस देश में नगर निगम का चपरासी काली कमाई की काबिलियत से होटलों ,फैक्ट्रियों, फार्म हाउसों का मालिक बन रहा हो। वहां अब कैसे ये तय होगा कि सफाई ऊपर से शुरु की जाए या फिर नीचे से। कानून तो सजा दे सकता है, ईमान की गारंटी तो इंसान को खुद ही लेनी पड़ती है। जब तक ऐसा नहीं होता, तब तक, चंद हजार की पगार वाले चपरासी करोड़ों की काली कमाई के मालिक बनते रहेगे। आप और हम बस हैरान होकर देखते रहेंगे।
Sunday, June 28, 2015
करोड़ों के बेईमान
भारत में भ्रष्टाचार की ठीक ठीक उम्र बता पाना तो मुश्किल है। लेकिन इस बात की कोई भी सौ फीसदी गारंटी ले लेगा कि इस वक्त करप्शन अपने सुनहरे दौर में है। मध्यप्रदेश में छै महीने के भीतर लोकायुक्त का दूसरा ऐसा छापा है, जहां लागू नहीं हुए लोकपाल के डी श्रेणी में आने वाले सरकार कारींदे के घर ने फिर खजाना उगला है। चंद लाख नहीं, करोड़ों का खजाना। ग्वालियर के अदने से कर्मचारी के बाद अब देश भर में उज्जैन के चपरासी के चर्चे हैं। करप्शन का कमाल देखिए दस हजार महीने की पगार पाने वाला कर्मचारी पांच करोड़ की संपत्ति का आसामी बन गया। मुमकिन है कि संपत्ति का ये आंकड़ा दस करोड़ तक भी पहुंच जाए। उज्जैन नगर निगम के चपरासी नरेन्द्र देशमुख तस्दीक है इस बात की कि देश का ईमान जगाने, अनशन करने वाले, अन्ना की लड़ाई बेमानी नहीं है। भष्टाचार की जड़ें गहरी हो चुकी है, कितनी बार ही सुना और कहा गया ये जुमला भी सरकार के सबसे छोटे कहे जाने वाले इस कर्मचारी के घर से निकली काली कमाई के आंकड़ों के आगे बेमानी सा लगता है। ईमान अब जैसे सिर्फ किस्सों में रहता है। या फिर नैतिक शिक्षा की किताबों में पाठ बनकर बच्चों को पढाने के काम आता है। वो भी तब तक जब तक कि ये बच्चे बेईमानी करने की उम्र में नहंीं पहुंच जाते। बेईमानी से जुड़ा एक दिलचस्प पहलू ये भी है कि भ्रष्टाचार की खरपतवार हर कहीं नहीं होती। उसके लिए सही जमीन बीज खाद मिलनी चाहिए। नगर निगम जैसे जनता से सीधे जुड़ाव रखने वाले विभाग भष्ट्राचार के लिए ऊपजाऊ धरती की तरह हैं। जितने बोएंगे उससे चौगुना पाएंगे। जनता की जरुरतों से सीधे जुड़े ये विभाग ऊपरी गारंटी की कमाई लिए होते हैं। याददाश्त पर अगर जोर डालें, देशमुख से पहले भोपाल नगर निगम के पीआरओ के पास भी इसी तरह अकूत संपत्ति निकली थी, और सुर्खियों में आए थे हामिद अली। ं इन विभागों में काली कमाई के लेन देन की वजह तलाशनें जाएं तो एक तरफ सुविधा शुल्क देने की आदि जनता दिखाई देती है, तो दूसरी तरफ सरकारी सिस्टम और बाबूओं का ढीला रवैया। जिसमें तय वक्त में किसी काम का हो पाना नामुमकिन है ये तय मानिए। जरुरी सरकारी फाईलें भी महीनों में एक टेबल से दूसरे टेबल के मुकाम को तय करती है। रफ्तार बढाने इस फाईल में रिश्वत के पंख लगाने पड़ते हैं। फिर दिनों का काम फिर मिनिटों में हो जाता है। सरकारी नियम कायदों की रुकावटों को पार करते हुए, तय वक्त में अपना काम करवाने, कब सौ पचास रुपए से शुरु हुआ ये सिलसिला, आदत बन जाता है, पता ही नहीं चलता। देशमुख की पांच करोड़ की संपत्ति में जाने कितने ऐसे छोटी मोटी रिश्वतों के ऐसे पचास सौ के नोट होंगे। जो सरकारी फाईलों को रफ्तार देने उनके साथ लग कर आए होंगे, और इस चपरासी की जेब से होते हुए बैंक के खातों तक पहुंचे हैं। आज से पहले तक. जब भी लोकपाल पर बहस हुई,ये मंजूर किया जाता रहा कि पहले दूसरे दर्जे पर लगाम लगा दी जाए तो भ्रष्टाचार को ईलाज हो सकता है। पूरी बीमारी भले खत्म नहीं होगी लेकिन काबू में तो आ ही जाएगी। लेकिन जिस देश में नगर निगम का चपरासी काली कमाई की काबिलियत से होटलों ,फैक्ट्रियों, फार्म हाउसों का मालिक बन रहा हो। वहां अब कैसे ये तय होगा कि सफाई ऊपर से शुरु की जाए या फिर नीचे से। कानून तो सजा दे सकता है, ईमान की गारंटी तो इंसान को खुद ही लेनी पड़ती है। जब तक ऐसा नहीं होता, तब तक, चंद हजार की पगार वाले चपरासी करोड़ों की काली कमाई के मालिक बनते रहेगे। आप और हम बस हैरान होकर देखते रहेंगे।
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