Sunday, June 28, 2015

भाजपा के ब्रांड शिवराज




भाजपा की सरकार ने मध्यप्रदेश में अपने आठ बरस पूरे कर लिए। आठ बरस, तीन मुख्यमंत्री। उमा भारती, बाबूलाल गौर और फिर शिवराज सिंह चौहान। कई साल तक भाजपा सरकार का बखान, बदलते मुख्यमंत्रियों से ही होता था। लेकिन अब पिछले छै साल से मध्यप्रदेश में सत्ता का एक ही चेहरा है। सरकार का एक ही नाम, शिवराज सिंह चौहान। मध्यप्रदेश भाजपा को शिवराज की शक्ल में केवल एक चेहरा नहीं मिला । बीते छै सालों में वो भाजपा के लिए सुरक्षित कहे जाने वाले इस सूबे के ब्रान्ड बन चुके हैं। लो प्रोफाइल शिवराज लोकप्रिय हैं। और जमीन से जुड़कर जनता का दिल जीतने के टोटके भी बखूबी जानते हैं। जनता के बीच वो भरोसा का चेहरा हैं तो पार्टी में भी इतनी साख है कि भाजपा का शीर्ष नेतृत्व. मध्यप्रदेश के मामले में कभी शिवराज से आगे नहीं सोच पाता । लेकिन ये एक बाजू की तस्वीर है। दूसरे बाजू, शिवराज और उनकी सरकार की तस्वीर खुशनुमा दिखाई नहीं देती। इस तस्वीर में संगठन से सरकार तक शिवराज के खिलाफ उठ रहे बयान हैं। इस तस्वीर में,नौकरशाही पर मुख्यमंत्री की कमजोर पकड़ पर सवाल सुनाई देते है। भाजपा कहती रहे शिवराज का दामन पाक साफ है। लेकिन इस तस्वीर में, इस दामन पर शक की धुंध दिखाई देती है। भाजपा सरकार की सालिगरह ,मौका देती है,ये देखने समझने और जानने का, कि मध्यप्रदेश के इतिहास में भाजपा सरकार की सबसे लंबी पारी खेलने वाले मुख्यमंत्री ने कहां बाजी मारी और कहां चूक कर गए चौहान।

पहले खूबियां...
लो प्रोफाइल और लोकिप्रय सीएम
भाजपा शासित दूसरे राज्यों के मुख्यमत्रियों के मुकाबले शिवराज सिंह चौहान लो प्रोफाइल सीएम के तौर पर गिने जाते हैं। लो प्रोफाइल इन मायनों में कि भाजपा की अंदरुनी राजनीति में भी उन्हे जब जिस भूमिका में रखा गया।शिवराज कभी उससे बाहर नहीं आए। वो नरेन्द्र मोदी की तरह पीएम के दावेदार बनते दिखाई नहीं देते। वो राष्ट्रीय नेताओं की आंख के तारे भले ना हो, पर आंख की किरकिरी भी नहीं बनते। उमा भारती जैसे जनाधार वाली नेता की जगह लेकर खुद को स्थापित करना शिवराज  सिंह चौहान के लिए आसान नहीं था। लेकिन शिवराज की सहज,सरल , और जमीन से जुड़कर चलने की छवि का ही तो असर था कि 2008 के चुनाव में उमा भारती के लिए लोगों की सहानुभूति भी जाती रही। और इस सूबे में बजा तो केवल शिवराज का डंका।
संगठन के सपूत
शिवराज भाजपा के भरोसेमंद सिपहसालारों में गिने जाते हैं। पार्टी ने जब जैसा कहा, उन्होने वैसा ही किया। यही वजह है कि शिवराज सिंह चौहान हमेशा से भाजपा संगठन के सपूत बने रहे हैं। भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी से लेकर दूसरी पीढी के अरुण जेटली और सुषमा स्वराज तक, शिवराज का हर एक बेहतर तालमेल है। संगठन के भरोसे पर खरे उतरने का ही ईनाम था शायद कि मध्यप्रदेश में सत्ता संभालने के कुछ सालों बाद ही शिवराज को पार्टी ने पूरी तरह फ्री हैंड दे दिया।

जानते हैं, जनता के टोटके
शिवराज जनता के जज्बातों को वोट में बदलना जानते हैं। भाजपा शासित राज्यों में अपनी तरह के पहले मुख्यमंत्री जिन्होने प्रदेश का मुखिया कहलाने के बजाए अपने सूबे से रिश्ता बांध लिया।  शिवराज से पहले उमा भारती भी दीदी कहलाती थी। लेकिन उनका पार्टी केकुछ करीबियों से ही रहा दीदी का नाता। बाबूलाल गौर तो खैर इस तरह के संबोधनों में उलझे ही नहीं। लेकिन शिवराज सिंह चौहान ने मध्यप्रदेश की सत्ता संभालने के बाद जनता के जज्Þबातों से सीधे जुड़ाव के लिए टोटके शुरु कर दिए। पहले वो कुछ साल तक पांव पाव वाले भैय्या कहलाते रहे। लेकिन ये संबोधन मास अपीलिंग नहीं था. तो फिर प्रदेश की महिलाओं और बेटियों के बड़े वर्ग को प्रभावित करते हुए शिवराज सिंह चौहान ने मामा की ब्रांडिंग शुरू कर दी। लाड़ली लक्ष्मी जैसी कारगर योजना के साथ शिवराज ने ये साबित भी कर दिया कि वो केवल कहने के लिए इस सूबे के मामा नहीं हैं। लेकिन ये रिश्ता रंग लाया। इसी मामा फैक्टर की बदौलत 2008 में शिवराज सिंह चौहान दुबारा मुख्यमंत्री बन गए। चुनावी सर्वेक्षणों में ये बात साबित हो गई  कि भाजपा के हक में महिलाओं का वोटिंग परसेंटेज बढा है। और इसकी इकलौती वजह शिवराज सिंह चौहान थे।

सख्त भी और सहज भी

इस सूबे के आम आदमी के साथ खड़े होकर देखिए, तो शिवराज सिंह चौहान बेहद सहज और सरल इंसान दिखाई देते हैं। वो समाज के हर तबके के लिए फिक्रमंद है इसलिए मुख्यमंत्री निवास पर समाज के हर तबके की पंचायतें बुलाते हैं. जनता से सीधी बात करते हैं। उनकी समस्याएं सुनते हैं। मुख्यमंत्री निवास में जनता दरबार तो पहले भी लगते रहे हैं। लेकिन मुख्यमंत्री पूरी सहजता और सरलता के साथ आम लोगों को उपलब्ध हो सके, इसके लिए शिवराज सिंह चौहान ने नए प्रयोग किए हैं। और कुछ हद तक वो कारगर भी कहे जा सकते हैं। सहज हैं तो सख्त भी हैं। नौकरशाही पर कमजोर पकड़ के आरोप का असर कहिए लेकिन शिवराज सिंह चौहान ने दागी आईएएस अफसरों के मामले में सख्ती दिखाई और उनके निलंबन में देर नहीं लगाई। लेकिन कई बार लगता है कि बहुत से मामलों में वो अपनी इस सख्त छवि का इस्तेमाल भी नहीं कर पाते। वजह ये है कि उनके अपने मंत्रीमण्डल में काम कर रहे कई सारे प्रेशर ग्रुप के चलते वो कई बार सख्ती से फैसले नहीं ले पाते।



खूबियां हैं तो खामियां भी हैं....

नौकरशाह चलाते हैं सरकार

मध्यप्रदेश में नौकरशाह चलाते हैं सरकार? शिवराज सिंह चौहान ने जिस दिन से इस प्रदेश की सत्ता संभाली ।  ये जुमला प्रशासनिक अमले से लेकर सियासी हल्कों तक जोर पकड़ता रहा है।  शिवराज के विरोधियों को छोड़िए उनकी अपनी ही पार्टी के लोग भी दबी जुबान में मंजूर करते रहे हैं, कि मुख्यमंत्री की नौकरशाही पर पकड़ कमजोर है और ये सरकार असल में तो नौकरशाह चला रहे हैं। कैबिनेट की बैठकों से लेकर मुख्यमंत्री की अनौपचारिक चर्चा के दौरान मत्रियों से हुए वन टू वन में कई बार शिवराज मंत्रीमण्डल के सदस्यों ने ये दुखड़ा रोया है कि अफसर उनकी सुनते नहीं है, उनका काम नहीं करते।

सबके अपने अपने राग

सबकी अपनी ढपली अपना राग, ये शिवराज कैबिनेट का हाल है। राज्य से जुड़े मुद्दों पर ही नहीं, राष्ट्रीय मुद्दों पर भी कई बार कैबिनेट में सहमति नहीं बन पाती। पूरी कैबिनेट ही कई तरह के पॉवर ग्रुप्स में बंटी हुई है। मंत्रियों के बीच आपस में भी, और मुख्यमंत्री के साथ भी, संवाद की स्थिति डगमगाई हुई है। भीतर की ये उथल पुथल अब सतह पर सुनाई और दिखाई भी देने लगी है। शिवराज कैबिनेट के दमदार मंत्री कैलाश विजयवर्गीय का खुद को शोले का ठाकुर बता चुके हैं। बाबूलाल गौर अपने बयानों में सरकार पर उंगली उठा चुके हैं। और अब तो संगठन के पदाधिकारी भी सरेआम सरकार को आईना दिखा रहे हैं। अगर मध्यप्रदेश में विपक्ष मजबूत होता तो इन हालात का फायदा उठा सकता था। लेकिन शिवराज और उनकी कैबिनेट को तसल्ली करनी चाहिए कि कमजोर कांग्रेस में इस सबको लेकर कोई हलचल नहीं, लेकिन ये संकेत भी सरकार के लिए ठीक नहीं कि पार्टी और सरकार के भीतर के लोग ही अपनी सरकार के कामकाज पर सवाल उठा रहे हैं।

दामन पर शक की धुंध

वैसे शिवराज सिंह चौहान स्वच्छ छवि के नेता कहे जाते हैं। भ्रष्ट्राचार के मामलों में एक डंपर मामला ही है, जो सुर्खियों में रहा है। यूं शिवराज सिंह का दामन दागदार दिखाई नहीं देता। लेकिन इस दामन पर विरोधियों को ही नहीं, पार्टी के अपने लोगों की शक की धुंध दिखाई देती है।  2013 के विधानसभा चुनाव के पहले शिवराज को ये कोशिश करनी होगी कि शक की ये धुंध भी छंट जाए।

मंत्री भी कम्फर्ट जोन में नहीं,

संवादहीनता और अलग अलग गुटों में बंटी शिवराज सरकार के भीतर घुटन बढ रही है। अभी तक मंत्री इसे महसूस करते रहे लेकिन अब तो जिसको जब जहां मौका मिल रहा है। अपनी इस घुटन को शिवराज कैबिनेट के सदस्य जाहिर भी कर रहे हैं। किसी मुद्दे पर असहमति,मतभेद ,स्वस्थ आंतरिक लोकतंत्र दिखाते हैं. लेकिन शिवराज कैबिनेट में मनभेद की स्थिति है। शिवराज की किचन कैबिनेट में शामिल कुछ मंत्रियों को छोड़ दें तो शिवराज के कुनबे में भरोसे की दीवार हर स्तर पर दरक रही है।

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