भाजपा के वरिष्ठ नेता बाबूलाल गौर, सोनिया गांधी को त्याग की मूर्ति कह गए। नहीं, उनकी जÞबान नहीं फिसली। किसी राजनीति के तहत वो ऐसा कह गए हों, ऐसा भी नहीं। बस कह गए। राजनीति के पैमानों पर गौर का ये बयान गलत भी हो सकता है। आमतौर पर राजनीति के ककहरे में तो सिखाया भी यही जाता है कि दूसरे दल के नेता की जितनी हो सके बुराईयां तलाशो। उसकी अच्छाईयों को देखने से भी परहेज करो, उनकी सार्वजनिक तौर पर प्रशंसा तो फिर बहुत दूर की बात है। राजनीति के मापदंडों में गौर का ये बयान बिल्कुल फिट नहीं है, ये सही है। यही वजह है कि इस तरह के उदाहरण राजनीति के इतिहास में ढूंढे नहीं मिलते, गौर साहब से पहले बिल्कुल इसी तरह का बयान अटल जी ने इंदिरा गांधी को लेकर दिया था। 1971 में भारत पाकिस्तान युध्द के दौर की बात है ये। तब अटलजी ने इंदिरा गांधी को देवी के रुप में संबोधित किया था। आज राजनीति का जो स्तर है उसमें अटलजी का ये उदाहरण गले ना उतरना स्वाभाविक है। लेकिन राजनीति से अलग हटकर देखिए तो एक इंसान ने दूसरे की कर्मठता को सराहा है, उसके त्याग का सम्मान किया है, खुले दिल से उसकी प्रशंसा की है। गौर साहब सोनिया गांधी की शान में जो कुछ कह गए उसके राजनीतिक मतलब इसलिए भी नहीं निकाले जाने चाहिए, क्योंकि गौर साहब ने ये सबकुछ किसी राजनीतिक लाभ की प्रत्याक्षा में नहीं कहा। लगभग पूरी उम्र भाजपा में गुजार देने के बाद अब गौर कांग्रेस में जाएंगे नहीं, ये भी तय है। आमतौर पर नेता अपनी पार्टी के बड़े नेताओं के कसीदे पढ़ते हैं, जिसका नेताओं को देर सबेर फायदा भी मिलता है। ऐसे में दूसरे दल की नेता का गौरव गान करके गौर साहब को सीधा फायदा मिलेगा ऐसा भी नहीं लगता। हैरानी इस बार भाजपा के रवैये को लेकर भी है, खुले दिल से अपनी हर बात कह देने वाले गौर साहब ने जितने बड़े दिल से ये बयान दिया। भाजपा ने भी उसी बड़प्पन से उस बयान को संभाल भी लिया। कांग्रेसियों ने लाख इसे राजनीतिक रंग देने की कोशिश की हो। गौर साहब के बंगले पर बधाईयां और मुबारकें देने पहुंचे हो कांग्रेसी । लेकिन प्रदेश भाजपा तो इस पूरे एपीसोड पर खामोश रही। मध्यप्रदेश भाजपा के सबसे बुजुर्गवार नेताओं में शामिल गौर साहब इसी तरह के नेता हैं। शुरुआत से यहीं अंदाज है उनका। भाजपा वामपंथियों की खिलाफत करती है। लेकिन रूस की यात्रा से लौटे गौर साहब ने वामपंथियों से मिले उपहार को अपने घर में पूरे आदर और सम्मान के साथ जगह दी थी। कैबिनेट की बैठक से लेकर पार्टी के सम्मेलनों में भी गौर को जब जो कहना होता कह देते है। सो अब भी कह गए हैं। लेकिन इस बयान के साथ एक बहस तो गौर साहब ने छेड़ ही दी है। बहस इस पर की राजनीति के कायदे कुछ लचीले होने चाहिए। नेता भी इंसान ही तो हैं,और फिर राजनीति में किसी की अच्छाई को सिर्फ इसलिए तो नामंजूर नहीं किया जा सकता क्योंकि वो दूसरे दल का है। अब गौर के बहाने ही सही नेताओं के नजरिए का चश्मा बदल जाए तो अच्छा।
Tuesday, June 30, 2015
गौर सोनिया प्रसंग
भाजपा के वरिष्ठ नेता बाबूलाल गौर, सोनिया गांधी को त्याग की मूर्ति कह गए। नहीं, उनकी जÞबान नहीं फिसली। किसी राजनीति के तहत वो ऐसा कह गए हों, ऐसा भी नहीं। बस कह गए। राजनीति के पैमानों पर गौर का ये बयान गलत भी हो सकता है। आमतौर पर राजनीति के ककहरे में तो सिखाया भी यही जाता है कि दूसरे दल के नेता की जितनी हो सके बुराईयां तलाशो। उसकी अच्छाईयों को देखने से भी परहेज करो, उनकी सार्वजनिक तौर पर प्रशंसा तो फिर बहुत दूर की बात है। राजनीति के मापदंडों में गौर का ये बयान बिल्कुल फिट नहीं है, ये सही है। यही वजह है कि इस तरह के उदाहरण राजनीति के इतिहास में ढूंढे नहीं मिलते, गौर साहब से पहले बिल्कुल इसी तरह का बयान अटल जी ने इंदिरा गांधी को लेकर दिया था। 1971 में भारत पाकिस्तान युध्द के दौर की बात है ये। तब अटलजी ने इंदिरा गांधी को देवी के रुप में संबोधित किया था। आज राजनीति का जो स्तर है उसमें अटलजी का ये उदाहरण गले ना उतरना स्वाभाविक है। लेकिन राजनीति से अलग हटकर देखिए तो एक इंसान ने दूसरे की कर्मठता को सराहा है, उसके त्याग का सम्मान किया है, खुले दिल से उसकी प्रशंसा की है। गौर साहब सोनिया गांधी की शान में जो कुछ कह गए उसके राजनीतिक मतलब इसलिए भी नहीं निकाले जाने चाहिए, क्योंकि गौर साहब ने ये सबकुछ किसी राजनीतिक लाभ की प्रत्याक्षा में नहीं कहा। लगभग पूरी उम्र भाजपा में गुजार देने के बाद अब गौर कांग्रेस में जाएंगे नहीं, ये भी तय है। आमतौर पर नेता अपनी पार्टी के बड़े नेताओं के कसीदे पढ़ते हैं, जिसका नेताओं को देर सबेर फायदा भी मिलता है। ऐसे में दूसरे दल की नेता का गौरव गान करके गौर साहब को सीधा फायदा मिलेगा ऐसा भी नहीं लगता। हैरानी इस बार भाजपा के रवैये को लेकर भी है, खुले दिल से अपनी हर बात कह देने वाले गौर साहब ने जितने बड़े दिल से ये बयान दिया। भाजपा ने भी उसी बड़प्पन से उस बयान को संभाल भी लिया। कांग्रेसियों ने लाख इसे राजनीतिक रंग देने की कोशिश की हो। गौर साहब के बंगले पर बधाईयां और मुबारकें देने पहुंचे हो कांग्रेसी । लेकिन प्रदेश भाजपा तो इस पूरे एपीसोड पर खामोश रही। मध्यप्रदेश भाजपा के सबसे बुजुर्गवार नेताओं में शामिल गौर साहब इसी तरह के नेता हैं। शुरुआत से यहीं अंदाज है उनका। भाजपा वामपंथियों की खिलाफत करती है। लेकिन रूस की यात्रा से लौटे गौर साहब ने वामपंथियों से मिले उपहार को अपने घर में पूरे आदर और सम्मान के साथ जगह दी थी। कैबिनेट की बैठक से लेकर पार्टी के सम्मेलनों में भी गौर को जब जो कहना होता कह देते है। सो अब भी कह गए हैं। लेकिन इस बयान के साथ एक बहस तो गौर साहब ने छेड़ ही दी है। बहस इस पर की राजनीति के कायदे कुछ लचीले होने चाहिए। नेता भी इंसान ही तो हैं,और फिर राजनीति में किसी की अच्छाई को सिर्फ इसलिए तो नामंजूर नहीं किया जा सकता क्योंकि वो दूसरे दल का है। अब गौर के बहाने ही सही नेताओं के नजरिए का चश्मा बदल जाए तो अच्छा।
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