Sunday, June 28, 2015

ये लक्षण अच्छे हैं..



 दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र होने का गुरुर तो हमेशा से था । लेकिन आजादी के 64 साल बाद जाकर कहीं ये देश उस लोकतंत्र को महसूस कर पाया है। महाराष्ट्र के एक छोटे से गांव के बुजुर्ग अन्ना हजारे के साथ देश भर के हजारों नौजवानों का रामलीला मैदान में एकजुट होना, लोकतंत्र की आहट भर थी। लेकिन लोकपाल की स्थाई समिति की रिपोर्ट के खिलाफ अन्ना के साथ अनशन पर बैठे भाजपाई,कम्यूनिस्ट, अकाली, जनतादल यू और समाजवादी नेताओं की तस्वीर कहती है कि लोकतंत्र अब मजबूत हो चला है। ये तस्वीर कहती है कि जनता की आवाज इस देश में अब बेअसर नहीं होगी। ये सही है कि मजबूत लोकपाल पर अन्ना हजारे और सरकार की लड़ाई जारी है अभी। सरकार झुकी नहीं है अब तक। लेकिन इस देश के भाग्यविधाता नेताओं का अन्ना के साथ आना भी कम बात नहीं। विपक्षी दलों ने इस तरह जनता के सामने आकर जिन मुद्दों पर मंजूरी दी है, जिन्हे सही ठहराया है,जाहिर है संसद में अब ये दल पल्टी नहीं खा सकते। अन्ना हजारे के साथ देश के हजारों लाखों लोगों की आवाज ही तो थी जो इन नेताओं को संसद से सड़क तक खींच ले लाई। ऐसा लगता है कि जैसे लोकपाल के एक मुद्दे ने इस देश को रिएक्टिव होना सिखा दिया। अब देश की जनता चुपचाप संसद में प्रस्ताव पारित कर थोप दिए गए किसी सरकार के फैसले को यूं ही मंजूर नहीं कर लेती। एफडीआई की बात ले लीजिए। विदेशी किराने पर जिस तरह से सड़कों पर उतरकर जनता के विरोध प्रदर्शन हुए, जिस तरह से व्यापारियों कारोबारियों ने अपना एतराज दर्ज कराया। विदेशी किराने के खिलाफ बुलंद होती, ये जनता की ही तो आवाज थी जिसकी नामंजूरी के बाद सरकार को अपने बढे हुए कदम वापिस खिंचने पड़े और एफडीआई पर अपना फैसला ठंडे बस्ते में डालना पड़ा। ये लक्षण भी लोकतंत्र की मजबूती के ही हैं। ये देश अब प्रतिक्रिया देना सीख रहा है। सरकारों को सिखा रहा है, कि चुनाव जिताकर भले भेज दिया हो लेकिन फैसले एकतरफा नहीं होंगे। जनता को सबकुछ बताना होगा। भौतिकी का सिध्दांत है क्रिया की प्रतिक्रिया। यहां भी वही सिध्दांत काम करता है।  ये नेताओं से उठता जनता का भरोसा है जो गुस्सा बनकर बाहर आता है। भरोसे के टूटने की वजह इतनी की गिनती नहीं। भोपाल में यूनियन कार्बाइड कारखाने को स्थापित करने की मंजूरी देते वक्त लापरवाही सरकार ने की, लेकिन सजा भोपाल के लोग आज तक भुगत रहे हैं। जनता उस वक्त जागरुक होती, तो शायद सरकार शहर की आबादी के बीच यूनियन कार्बाडड प्लांट को मंजूरी नहीं दे पाती। लेकिन गैस त्रासदी जैसे हादसे भोग लेने के बाद जनता भी चेत गई। सरकार की सरपरस्ती में बढते भ्रष्टाचार के बाद इस देश की जनता ने भी ये जान लिया कि नेताओं को चुनकर भेजना लोकतंत्र की प्रक्रिया का एक हिस्सा हो सकता है, पर इन नेताओं के भरोसे इस देश को नहीं छोड़ा जा सकता। नेता भरोसे के काबिल होते, तो लोकपाल के लिए जो आवाज सड़क से उठ रही है,वो संसद में सुनाई देनी चाहिए थी, पर अब नेता भी जान रहे हैं कि पांच साल में मूंहदिखाने और जीत जाने के मौसम बीत गए। अब तो जनता रोज जवाब मांगती है। वो भी ये जान गए हैं कि लोकतंत्र में केवल जनता है जो नेता बनाती है। बिना किसी पार्टी का सहारा लिया,नेता बने अन्ना हजारे बानगी हैं। टीवी पर चाय का एक विज्ञापन आता है देश उबल रहा है, फिर आएगा, जोश,दम,मिठास, बदलेगा देश का रंग। तो उबलने दीजिए देश को,लोकतंत्र की मजबूती के लिए ये जरुरी है

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