Tuesday, June 30, 2015

स्कूल चलें सब।




मध्यप्रदेश के गांव देहात की जिन पाठशालाओं में देश की नींव तैयार होती है,उन पाठशालों में छत नहीं है। पानी का बंदोबस्त नहीं है।  शौचालय नहीं है। कई बार किसी पेड़ के नीचे ही लग जाती है क्लास। पाठशाला के हाल सुन लिए। अब मास्साब के हालात भी देख लीजिए, बच्चों को इल्म की रोशनी में लाने वाले प्रदेश के गुरुजी और संविदा शिक्षकों की वेतनमान की लड़ाई सालों से जारी है। अपने साथ हुई नाइंसाफी से दुखी मास्साब का काफी वक्त तो भोपाल के धरने प्रदर्शनों में गुजर जाता है। टूटे हारे ऐसे गुरुजी किस मन से बच्चों को पढाते होंगे, कल्पना की जा सकती है। पढना लिखना सीखो, ओ मेहनत करने वालो..., स्कूल चलें हम..., ये सरकारी नारे हैं।ये नारे ये बताने के लिए हैं,कि सरकार अपना काम बखूबी कर रही है। लेकिन ऊंची आवाजों में रेडियो और टेलीविजनों पर सुनाई देते हैं, पर ये नारे जमीन पर उतरते कहीं दिखाई नहीं देते। मध्यप्रदेश के ही गांव देहात में कहीं चले जाइए, पहली से लेकर पांचवी तक सारी क्लासें ही नहीं पूरा स्कूल एक शिक्षक के भरोसे चलता दिखाई देता है, शिक्षक अगर अवकाश ले ले, तो हफ्ते में कई बार पूरे स्कूल की बेवजह ही छुट्टी हो जाती है।  केन्द्र से लेकर राज्य सरकार तक सरकारें, बच्चों को लेकर स्कूली शिक्षा को लेकर चिंता तो जताती हैं, लेकिन उस चिंता पर अमल कहीं दिखाई नहीं देता। खैर, तसल्ली की जानी चाहिए कि सरकार ने फिक्र नहीं कि तो कोर्ट ने बच्चंो को स्कूलों में मिलने वाली बुनियादी सुविधाओं को लेकर सख्ती दिखाई है। सुप्रीम कोर्ट, स्कूलों में शिक्षकों की कमी को लेकर चिंतित है। कोर्ट ने केन्द्र और राज्य सरकारों को आदेश दिया है कि सारे सरकारी और निजी स्कूलों को छै महीने के भीतर पेयजल शौचालय, किचन शेड, बिजली, चाहरदीवारी का बंदोबस्त किया जाए। इतना ही नहीं, स्कूलों में पर्याप्त संख्या में शिक्षक भी होने चाहिए। जस्टिस के एस राधाकृष्णन की अध्यक्षता वाली बेंच ने इस आदेश में ये भी निर्धारित कर दिया है कि समय सीमा में ये काम होने चाहिए। समय समय पर स्टेटस रिपोर्ट पेश करें सरकारें। निजी स्कूलों को खैर छोड़ दीजिए, लेकिन सरकारी स्कूलों के हालात बद से बदतर हैं। गांव में नहीं शहरों में भी, एक कमरें में टीन के शेडों में बगैर शौचालय के कई स्कूल चल रहे हैं। और दुखद ये है कि हमारे मुल्क की बड़ी आबादी है जो इन सरकारी स्कूलों में ही तालीम पाती है। यानि देश का मुस्तकबिल तो यहीं लिखा जाता है। शिक्षा को हम अधिकार में शामिल तो कर लेते हैं, लेकिन सवाल ये खड़ा होता है कि अधिकार कितने लोगों को मिल रहा है। कहते हैं कि किसी मकान की नींव रखना सबसे मुश्किल होता है,मकान बनाने वाले की भी कोशिश होती है कि इतनी मजबूत नींव रखी जाए कि मकान फिर कभी हिले नहीं। कोर्ट शायद इस बात को समझती है कि नींव पर ध्यान देने की जरुरत है। नींव हर हाल में मजबूत होनी चाहिए। कोर्ट ने एक जनहित याचिका पर ही सही राज्य और केन्द्र सरकारों पर स्कूलों में बच्चों को बुनियादी सुविधाएं दिए जाने के मामले में जो सख्ती दिखाई है,वो इस बात की तस्दीक करती है। लेकिन अफसोस इस बात का है कि हमारी सरकारें इस बात को समझ नहीं पा रहीं। समझ नहीं पा रहीं  कि नौनिहाल ही हमारी नींव हैं, नींव जितनी मजबूत होगी, उतना मजबूत देश बनेगा। तब सरकार को स्कूल चलें हम का नारा नहीं देना होगा, नौनिहाल खुद कहेंगे स्कूल चलें सब।

भीड़ ले के आओ, वरना घर जाओ।


भीड़ ले के आओ, वरना घर जाओ। भीड़ की रिकार्डिंग करके देखा जाएगा कि कौन कितनी भीड़ लाया था। ये कांग्रेस जिलाध्यक्षों की बैठक से निकली खबर का सार भी है और आज की कांग्रेस का सच भी। पार्टियां, मकसद, मिशन, जज्बा, नेता  और नारा, सब किनारे हैं। ये एकदम नईनिकोर कांग्रेस है। इतनी पारदर्शी कि जहां खुलकर कहा जाता है, भीड़ लाओ और अपना पद बचाओ। ये सच है कि चाहे सरकार का आयोजन हो या विपक्ष का आंदोलन, हर जगह भीड़ की भूमिका अहम होती है। ये भी सच है कि अब नेता और पार्टी के, विचारों को सुनने समझाने और मानने वाले लोंगो का झुण्ड भीड़ नहीं कहलाता।  भीड़ की एक लाइन की परिभाषा, जो प्रलोभनों से जुटाई गई वो भीड़ है। ये सारे सच अपनी जगह हैं,लेकिन कभी कोई राजनीतिक दल इस तरह खुलकर अपने कार्यकर्ताओं को नहीं कहता कि भीड़ लाओ, वरना घर जाओ। कांग्रेस ने ये फरमान जारी किया है। पार्टी  मध्यप्रदेश में  चार अक्टूबर को सीएम का घेराव करने जा रही है। सरकार में बढता भ्रष्टाचार समेत मुद्दे कई हैं जिन पर पार्टी शिवराज सरकार को घेरेगी। लेकिन सवाल ये है कि जनता इस विरोध को कैसे सही मानेंगी जब वो जानती है कि जो विरोध करने जुटे हैं उसमें उनकी तरह के आम लोग नहीं है, ये वो लोग हैं, जो भाडेÞ पर बुलाए गए हैं। पार्टी के इस शक्ति प्रदर्शन पर कैसे करेगा कोई यकीन जबकि पहले से ही सब जानते हैं कि हर नेता इस आंदोलन के लिए पूरी शक्ति सिर्फ इसलिए लगाएगा क्योंकि भीड़ नहीं आई, तो उसकी पद और प्रतिष्ठा मुश्किल में आ जाएगी। वो दौर याद कीजिए जब विपक्षी दलों के सच्चे संघर्ष में पार्टी  कार्यकर्ता  के अलावा जनता भी साथ होती थी, ऐसी ही तो किसी भी पार्टी के लिए माहौल बना करता था, समर्थन खड़ा होता था। लेकिन आज राजनीति कहां जा रही है। विपक्ष में बैठे दल की अब तक जो परिभाषा समझी और जानी थी तो, ये वो दल कहलाते हैं सरकार को आइना दिखाना जिनका पहला कर्त्तव्य होता है, चूंकि विपक्ष में होते हैं इसलिए जहां जनता अनसुनी, अनकही रह जाती है। विपक्ष में बैठे दल वहां आवाम की आवाज बन जातें। और इतनी सच्चाई होती थी इस आवाज में कि भीड़ खुद ब खुद जुट जाती , किन्ही प्रलोभनों से भीड़ जुटानी नहीं पड़ती थी। इन दलों के वो आंदोलन होते थे, जो इतिहास में याद किए जाते । फिर कांग्रेस तो वो पार्टी है, जिसकी जमीन गांधी नेहरू, लालबहादुर शास्त्री,  जैसे  नेताओँ ने तैयार की है,वो नेता जिन्होने जनता के साथ जुड़कर आजादी का आंदोलन खड़ा किया था।  तब नेता में वो ताकत होती थी कि उसकी एक आवाज पर, जनता खड़ी हो जाती थी। उसी कांग्रेस की विरासत अब हरिप्रसाद और भूरिया जैसे नेताओं के हाथ में है। दुर्भाग्य से,उसी कांग्रेस का नेतृत्व इतना कमजोर पड़ गया है, कि उस पार्टी के प्रदेशाध्यक्ष को कहना पड़ता है कि आदिवासी जरुर हूं पर मजबूर नहीं। ये नेतृत्व की मजबूरी नहीं तो क्या है कि पार्टी के आंदोलन को सफल बनाने,एक एक जिलाध्यक्ष से अपने साथ भीड़ लाने की नसीहत दी जा रही है। मध्यप्रदेश में सरकार बनाने का सपना कांग्रेसियों की आंखों में छोड़िए सपने में भी नहीं है। लेकिन इस तरह से कांग्रेस के पहले बड़े आंदोलन के लिए बैठकों में भीड़ जुटाने की तैयारी ये बताती है कि विपक्ष के तौर पर भी कांग्रेस पूरी तरह कमजोर पड़ चुकी है। खुद पुराने कांग्रेसी ही, गलत नहीं कहते मध्यप्रदेश में पार्टी डायलिसिस पर है। अव्वल तो आठ साल में सरकार के खिलाफ सÞड़क पर संघर्ष करती कांग्रेस कहीं  दिखाई ही नहीं दी। और अब आंदोलन होने भी जा रहा है, तो भीड़ जुटानी पड़ रही है। देश के सबसे बुजुर्ग दल का ये हाल शर्मनाक है।

संस्मरण सुदर्शन से सीखा जीवन



जीवन की अंतिम सांस तक वो एक साधक ही रहे। रोज की तरह उस दिन भी सुबह सैर को ही तो निकले थे, रोज की ही तरह सुबह योग किया और योग साधना के दौरान ही आखिरी सांस ले ली। साधक समाधिस्थ हो गया। बाकी दुनिया ने कहा, पूर्व सरसंघचालक कुप्प सी सुदर्शन का अवसान हो गया। लेकिन मेरे लिए वो सिर्फ पूर्व संघ प्रमुख की सीमा में नहीं बंधे थे। सुदर्शन जी का जाना मेरी निजी क्षति है। मैने उन्हे खोया है, जिनसे मैं जीवन को उसके मूल रुप में पाना सीख रहा था। उस दोपहर की याद यूं भी हमेशा मेरी चेतना में रही और अब तो वो दोपहर मेरे जीवन का अविस्मरणीय हिस्सा बन गई है जैसे। 17 सितम्बर 2005 की दोपहर थी वो, मेरी सालगिरह का दिन, उस दिन मैं सरसंघचालक कुप्प सी सुदर्शन से जन्मदिवस पर उनका आर्शीवाद लेने गया था। मेरा सौभाग्य था कि तब वे चार दिन वो एलएनसीटी के गेस्ट हाउस में ही ठहरे थे, एलएनसीटी में तब आरएएस का अभ्यास वर्ग भी लगा था। उसी दौरान मुझे उनके साथ लंबा समय व्यतीत करने का मौका भी मिल गया।संघ, की शाखाएं  किस तरह किसी व्यक्तित्व को सांचे में ढालकर गढती है,सुदर्शन जी इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण थे,  एक सच्चे स्वयंसेवक की मिसाल थे सुदर्शन। मैने उनसे मिलकर जाना था कि जीवन में एश्वर्य के लिए लगी दौड़ कितनी बेमानी है। संघ के सुप्रीमों हो जाने के बाद भी, उनके अपने जीवन में, अपनी दिनचर्या में कोई अंतर नहीं आया। तन पर धोती कुर्ता, और तय समय पर साधा भोजन। वो कहते भी थे मुझसे , जीवन अगर धन विलासता और एश्वर्य की जकड़ में आ गया तो जीवन उन्ही के इशारे पर चलेगा। लेकिन हम स्वयंसेवक हैं हमें जीवन अनुशासन के साथ अपने ढंग से जीना है। जीवन का सार ये हो कि ये जीवन किसी के काम आए। सही कहते थे सुदर्शन जी ,अवसान के बाद भी वे अपने नेत्रदान कर गए ताकि उनके जाने के बाद भी,किसी के जीवन को ज्योति मिल सके। राग व्देष से दूर सच्चाई का जीवन जीने वाला व्यक्ति संत ही होता है,भगवा बाना तो कभी नहीं पहना लेकिन सुदर्शन जी भी संत ही हो गए थे जैसे। और किसी का नहीं जानता, लेकिन मुझसे जो उन्होने कहा वो किसी संत की भविष्यवाणी की तरह सौ फीसदी सही साबित हुआ था।  सुदर्शन जी जब एलएनसीटी आए थे तो उन्होने कहा था,कोई शहर हो या संस्थान उसके करीब से अगर कोई जलधारा बहती है तो उसका, इन संस्थानों और शहरों के विकास में बहुत महत्व होता है। उन्होने लालकिले का उदाहरण भी दिया था। मुगलों के सुनहरे दौर में लाल किले के करीब से बहा करती थी यमुना। इत्तेफाक से एनएनसीटी के पास से भी एक जलधारा बहती है, और जेएन सीटी के पास से भी।  आज जब तकनीकी और चिकित्सा शिक्षा के क्षेत्र में प्रदेश ही नहंी देश में एलएनसीटी समूह का नाम सबसे पहले लिया जाता है, तो मुझे सुदर्शन जी की वो भविष्यवाणी सच साबित होती दिखाई देती है। 2005 के बाद फिर गिनती नहीं कि सुदर्शन जी से मेरी कितनी मुलाकातें हुईं। मेरी कोशिश होती थी कि एलएनसीटी जेएनसीटी, और नारायण श्री होम्योपैथी कॉलेज के सेवाकार्यो से जुड़े आयोजन में सुदर्शन जी की मौजूदगी रहे। और उनका बड़प्पन था कि कभी उन्होने मेरा आग्रह ठुकराया भी नहीं। एक और बात, जाने कितनी भाषाओं के ज्ञाता थे वो ,लेकिन मातृभाषा हिंदी से उनका अपार प्रेम था। मुझे याद है, भोपाल में अखबार मालिकों और संपादकों को उन्होने कहा था कि कोशिश होनी चाहिए कि हिंदी के अखबारों में अंग्रेजी का इस्तेमाल ना किया जाए।  सुदर्शन जी की ंिंचंता सिर्फ कहने के लिए नहीं थी, वो जो कहते उसे अमल में लाने कोशिश भी करते थे।
कुछ व्यक्तित्व ऐसे होते हैं,जो आपके मन मानस पर ही नहीं पूरे जीवन पर प्रभाव छोड़ जाते हैं, सुदर्शन जी का मेरे जीवन में वही स्थान था। मैने कभी उनमें अपने पिता को देखा। कभी अपने गुरु को। जीवन में जब भी खुद को किसी उलझन में पाता हूं, तो सुदर्शन जी की तरह सोचता हूं और रास्ता ढूंढ लेता हूं। तब लगता है कि ऐसी पुण्य आत्माएं हमें छोड़कर कहीं नहीं जाती, हमेशा हमारे साथ रहती हैं। भोपाल के संघ कार्यालय समिधा का, दूसरे माले पर बाईं तरफ बना सुदर्शन जी का कमरा भले खाली हो गया हो। 

कांग्रेस का हाथ अब जेब पर.




यूपीए सरकार के विवादित आर्थिक सुधारों के खिलाफ भारत बंद का एलान भले एनडीए और गैर यूपीए दलों ने किया हो। लेकिन इस बार पूरा भारत बंद हुआ आम जनता की बदौलत हुआ । टेलीविजन पर और अखबारों की तस्वीरों में रेलें रोकते, दुकानें बंद करवाते भले राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता दिखाई दे रहे हों। लेकिन हकीकत ये है कि मंहगाई की मार से कराह रहा आम आदमी खुद भारत बंद में शामिल हुआ था। किसी राजनीतिक दल का समर्थन नहीं, किसी की समझाइश नहीं भारत बंद रखना आम आदमी का अपना फैसला था। यही वजह है कि व्यापारियों ने खुद आगे बढकर अपने प्रतिष्ठान बंद कर दिए। मध्यप्रदेश में भोपाल को इस बंद से हांलाकि मुक्त रखा गया, लेकिन बावजूद इसके, जो बंद का समर्थन करते थे उन व्यवसाईयों ने इस छूट के बावजूद अपनी दुकानें नहीं खोलीं। ये जागरूक हो रही जनता की तस्वीर है। अब जनता अपना जवाब खुद देना भी सीख रही है। राजनीतिक दलों को इस बंद से क्या नफा और नुकसान होगा वो अपनी जगह है लेकिन जनता ने तो अपने अंदाज में बता दिया है कि उन्होने मंहगाई बर्दाश्त नहीं। वरना ऐसा कम ही होता है। आमतौर पर तो बंद राजनीतिक मकसद के साथ होते हैंऔर जनता इन आंदोलनों में केवल इस्तेमाल के लिए होती है, लेकिन यूपीए सरकार के खिलाफ हुआ भारत बंद राजनीतिक दलों से पहले, आम जनता का सरकार को सीधा जवाब है कि अब जनता सरकार की थोपी गई मंहगाई को बर्दाश्त नहीं करेगी। उस पर मध्यप्रदेश जैसे भाजपा शासित राज्यों में तो स्थिति और भी खराब है। यहां जनता की नाराजगी दूसरे राज्यों के मुकाबले और भी ज्यादा है। वजह ये कि भारत बंद के एलान के ठीक एक दिन पहले कांग्रेस शासित राज्यों पर सरकार मेहरबान हो गई। सबकुछ सरकार के ही हाथ में है तो यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी ने कांग्रेस शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों को ये निर्देश दे दिए कि इन राज्यों में रियायती गैस सिलेंडर छै के बजाए नौ दिए जाएंगे। इन राज्यों में हर परिवार को जो तीन अतिरिक्त सिलेंडर दिए जाएंगे उनकी सब्सिडी सरकार वहन करेंगी। सिर्फ कांग्रेस नहीं सोनिया गांधी  कांग्रेस के साथ चल रही साझा सरकारों वाले राज्यों में भी ये रियायत देने जा रही है। लेकिन हैरानी इस बात की है कि जनता को राहत देने में भी राजनीति की जा रही है। यानि अगर आप कांग्रेस शासित राज्यों में नहीं रहते तो इस मंहगाई को भुगतनी आपकी मजबूरी है। और अगर कांग्रेस के राज में आप रहते हैं तो खुशकिस्मत हैं आप, क्योंकि आप पर पढने वाले मंहगाई के बोझ में अब सरकार भी हिस्सेदार बनेगी। क्योंकि यहां कातिल ही मुंसिफ है, सरकार के हाथ में है सबकुछ, मंहगाई बढाने वाले भी और राहत देने वाले भी। लेकिन ये फैसला लेते वक्त सोनिया गांधी को ये भी सोचना चाहिए था कि वे केवल भाजपा शासित राज्यों की सरकारों से भेदभाव नहीं कर रहीं, ये तो आम जनता के साथ भी बंदरबांट वाली स्थिति है। कि जैसे अंधा बांटे रेवड़ी और चीन्ह चीन्ह के दे। कांग्रेस का हाथ आम आदमी के साथ का नारा दोहराने वाली कांग्रेस नेता को भला अब कौन समझाए कि आम आदमी केवल कांग्रेस शासित राज्यों में ही नहीं रहता, भाजपा की सरकार वाले राज्यों में भी गरीब और लाचार लोग बसते हैं। आपकी राजनीति वो बेचारे क्या जानें कि भाजपा सरकार के राज में रहना उनके लिए गुनाह हो जाएगा। कांग्रेस  को समझाने चाहिए कि जनता के लिए गढा गया कांग्रेस का नारा खुद जनता ही ना बदल दे, कांग्रेस का हाथ आम आदमी के साथ नहीं आम आदमी की जेब पर है।

सूख गया क्या आंख का पानी




वो तो हक की लड़ाई लड़ रहे थे। इंसाफ के लिए जिंदगी और मौत की लड़ाई। सरकार की निगाह में सिर्फ  विकास की कहानी लिखते दो बांध हैं। उन दो बांधों से बाढ में बदलते सैकड़ों गांव और उन सैकड़ों गांवों के हजारो लोग जैसे सरकार की आंख से ओझल हो गए हैं।  जो कुछ दिखाई दिए तो उनके आगे सरकार भी झुक गई। जो अनदेखे रह गए या कर दिए गए। उन्हे बर्बरता के साथ खदेड़ दिया गया। लेकिन ये फर्क किसलिए। संघर्ष के स्वरुप में तो कोई अंतर नहीं था। भोेले आदिवासियों की मुश्किलों में भी फर्क कहां था । फर्क यहां बस दो अलग अलग बांधो और उनके प्रभावितों का है। गलते सडते पैर लिए तो सत्याग्रही औंकारेश्वर में भी खड़े थे और इंदिरा सागर में भी खड़े रहे। लेकिन नर्मदा के अलग अलग मुहानों पर खड़ी, नर्मदा की इन संतानों के सत्याग्रह से निपटने खुद सरकार ने मुखौटे पहन लिए थे जैसे। पहले आदिवासियों से हमदर्दी का मुखौटा। औंकारेश्वर में सरकार सत्याग्रहियों के आगे झुक गई,और जल सत्याग्रह खत्म हो गया। औंकारेश्वर में सरकार इंसानियत का मुखौटा पहनकर आई थी। लगा कि सरकार संवेदनशील है, अभी ये ख्याल धारणा में बदलता कि उसके पहले,  सरकार का असल चेहरा हरदा में दिखाई दे गया। ये क्रूर चेहरा था, मानवीयता का इस चेहरे में नामो निशान नहीं था। जल सत्याग्रहियों को खदेड़ती, तस्वीरों में बुजुर्गों को बेदर्दी से उठाए सरकारी नुमाइंदो की हंसी देखिए। देखकर लगता है कि इंसानियत किसी कोने में नहीं बची है। हैरानी होती है कि निहत्थे मासूम बच्चों, लाचार बूढों से निपटने के लिए निर्दयी हो गई सरकार। नर्मदा की संताने कहां कुछ कह रही थीं। वो तो खामोश खुद को सजा दिए खड़ी रहीं पानी में। ये सत्याग्रह भी इन भोले आदिवासियों ने उन्ही महात्मा से सीखा था जिनके अनुयायी हैं आप नेताजी । अपने हक की खातिर अपनी जिंदगी दांव पर लगा रहे,ये सत्याग्रही तो  हर रात इस उम्मीद में गुजार रहे थे कि कभी तो सुबह आएगी, इंसाफ की वो सुबह, जब सरकार उनके संघर्ष के आगे झुक जाएगी, इंसानियत के पैमानों पर आकर सोचेगी और उन्हे उनका हक दिलाएगी। कहां जानते थे कि जिस सुबह के इंतजार में वो बीते पंद्रह दिनों से, खुद को सजा दिए बैठे थे। वो सुबह ऐसे दर्दनाक मंजर दिखाएगी।  सत्तर साल की लक्ष्मी बाई की टांगाटोली बना ली जाएगी। और जानवरों की तरह घसीटें जाएंगे, सारे शरारत छोड़कर अपने मां बाप के साथ नर्मदा में खामोश खड़े मासूम बच्चे। ये तो सरकारी नुमाइंदों के दिए वो जख्म हैं, जो सिर्फ जिस्म पर मिले हैं। मुमकिन है कि ये जख्म  वक्त के साथ भर भी जाएंगे। लेकिन मन के घावों पर मरहम कहां लगती है, उसका इलाज तो वक्त के पास भी नहीं। सरकार ने इस बार  जिस्म के साथ घाव मन पर भी दिए हैं। जल  समाधि लेने खड़े सत्याग्रहियों से संवेदनशील सरकार ने  दो टूक कह दिया कि इंदिरा सागर के प्रभावितों को मुआवजा दिया जा चुका है, सरकार उन्हे अब एक पैसा नहीं देगी। बांध को पूरा भरेंगे ,और बिजली बनाएंगे। किसके लिए बिजली बनाएंगे, सरकार। इनके घर बुझा कर जिनके घर रोशन करने जा रहे हैं,वो भी इन जैसे इंसान ही होंगे, ये ठीक है उनके घर,  गांव, इनकी तरह बांध के दायरे में नहीं आए हैं। फिर ये आदिवासी तो सिर्फ अपना हक मांग रहे थे। अपने हिस्से का मुआवजा,कोई भीख तो नहीं मांगी थी।  हरदा के खरदना गांव  की तस्वीरें इंसानियत को शर्मसार करने वाली हैं। एक तरफ जलसमाधि के लिए तैयार खड़े सत्याग्रही हैं। दूसरे बाजू पानी से उन्हे बुरी तरह खदेड़ती सरकार। वो सरकार जिसकी आंखो का पानी भी सूख गया लगता है।

तो क्या भूख मिटा देगा मोबाइल




ऐसे वक्त में जब पूरा देश सिर्फ मंहगाई का मारा है। एक ऐसे वक्त में जब देश की आधी से अधिक आबादी की पूरे दिन की कमाई में केवल दो जून की रोटी की जुगाड़ हो पाती है।ऐसे वक्त में गरीब सरकार से क्या आस लगा सकता है भला।  सिवाए इसके कि अबकि जब प्रधानमंत्री पंद्रह अगस्त की प्राचीर से राष्ट्र को संबोधित करने आएं। तो उनके भाषण में मंहगाई से राहत की बात हो। रोटी का भरोसा हो। इस बात की गारंटी दे दे सरकार की इस देश के गरीब को और कुछ मिले ना मिले रोटी की गारंटी जरुर मिल जाएगी। लेकिन सूत्रों से छन कर आ रही खबरें, कहती हैं कि प्रधानमंत्री और उनकी सरकार को गरीब की भूख से ज्यादा उसके मोबाइल हो जाने के फिक्र है। यकीन मानिए, मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी की रहनुमाई में गरीब का पेट भरे ना भरे, वो मोबाइल के साथ हाइटेक यकीनन हो जाएगा। इस बात की गारंटी सरकार ने ले ली है।  सरकार ने देश के हर गरीब को मोबाइलधारी बनाने, सात हजार करोड़ की योजना तैयार की है। इस योजना में बीपीएल परिवारों को एक मोबाइल फोन देने का फैसला किया गया है। योजना को नाम दिया गया है हर हाथ में फोन। कांग्रेस सरकार के इस हर हाथ में फोन के चुनावी नारे से कांग्रेस की बदलती सोच का भी पता चलता है। इंदिरा गांधी से सोनिया गांधी तक आते आते कांग्रेस के बदलाव महसूस होते हैं। यही कांग्रेस तो थी जब इंदिरा गांधी ने हर हाथ को रोजी, रोटी और मकान का नारा दिया था, और पूरे देश में कांग्रेस की हवा बह निकली थी। अब भी कांग्रेस तो वही है, लेकिन ये सोनिया गांधी की कांग्रेस है। जो मानती है कि गरीबी रोजी रोटी से नहीं मोबाइल से मिटेगी। मोबाइल हाथ में लिए देश का गरीब कम से कम तस्वीरों में तो गरीब दिखाई नहीं देगा। ये सरकार का गरीबी मिटाने का अपना मोबाइल फार्मूला है। तो अब मानकर चलिए कि आने वाले वक्त में इस मुल्क में हर गरीब के हाथ में रोटी हो ना हो, मोबाइल तो हर हाथ में होगा। इतना ही नहीं,पंद्रह अगस्त की इस मोबाइल सौगात के साथ, गरीबों पर मेहरबान सरकार दो सौ मिनिट का फ्री लोकल टॉकटाइम भी देगी। सरकार ने किस सोच के साथ ये फैसला लिया है,समझ से परे है। ऐसा तो नहीं कि बंद एयरकंडीशंड कमरों में, इस तरह की योजनाओं को अंजाम देने वाले नेता और अफसर इस देश के गरीब और गरीबी से वाकिफ ही ना हों। बताइये तो जरा गरीबी रेखा के नीचे गुजर करने वाला, रामदीन जिसका पूरा दिन इस आस में गुजर जाता है कि शाम तक की हम्माली के बाद इतने पैसे हो जाएं कि आधा किलो आटा खरीद सके। मोबाइल भला उसके किस काम का है। दिन रात मजबूरी और लाचारी की जिंदगी गुजर करने वाला इस देश के आम आदमी को अपनी खबर नहीं है, तो वो सरकार से तोहफे में मिले मोबाइल से किसकी खैर खबर लेगा। बताया जाता है कि हर हाथ को मोबाइल देने की इस योजना पर सरकार प्रतिमाह सौ रुपए खर्च करेगी। सौ रुपए से कुछ ज्यादा, इस देश में बूढे लाचार लोगों को वृध्दावस्था पेंशन मिलती है। अब सरकार को कौन बताए। प्रधानमंत्री जी को कौन समझाए कि मोबाइल पर बतिया लेने से गरीब की भूख का अहसास खत्म नहीं हो जाएगा। सरकार, पेट तो रोटी मांगता है। मोबाइल से अपनी तसल्ली के लिए गरीब की तस्वीर बदल सकती है। तकदीर बदलिए, सरकार।

क्या हर मामले में बनेगा इतिहास



सदन की आसंदी के अपमान में, निष्कासन नहीं,सीधे विधायकों की बर्खास्तगी। और वो भी इतनी फुर्ती में कि चुनाव आयोग को सूचना भी देदी गई और राष्ट्रपति चुनाव के मद्देनजर आयोग ने इन विधायकों की सीट को रिक्त भी घोषित कर दिया। तब लग रहा था कि मध्यप्रदेश विधानसभा के इतिहास में ये अपनी तरह का पहला मामला है। लेकिन इतिहास में तो अभी और भी बहुत कुछ दर्ज होना बाकी रह गया था। इससे आगे बढते हैं। इतिहास में अब ये भी दर्ज होगा कि विधायकों की बर्खास्तगी के बाद फिर सत्ताधारी दल ने ही पहल की, बर्खास्त विधायकों के खेद जताते पत्र के साथ, भाजपा उनकी बहाली में ऐसे जुट गई कि जैसे बहाली का मामला खुद उनकी पार्टी के विधायकों का हो। सरकार में बैठे सारे दिग्गज संविधान खंगलाने में जुट गए, इतिहास की नजीरें ढूंढी जाने लगीं, कि कोई रास्ता तो निकले जिससे इन बर्खास्त विधायकों की बहाली हो जाए।  संसदीय ज्ञान रखने वाले लगातार कहते रहे कि चुनाव आयोग के रिक्त स्थान की घोषणा के बाद विधायकों की बहाली मुश्किल है। लेकिन विधानसभा अध्यक्ष का आत्मविश्वास कहता रहा, सब संभव है। राज्यपाल की अनुमति के बाद विधायकों की बहाली के लिए विशेष सत्र का एलान हो गया।फिर वही हुआ जो मध्यप्रदेश के इतिहास में पहले कभी नहीं हुआ था। शुक्रवार को जब सदन के विशेष सत्र में विधायकों की बर्खास्तगी का मामला आएगा, तो फिर एक बार इतिहास बनेगा। मध्यप्रदेश विधानसभा के इतिहास में ये पहली बार होगा जब एक ऐसे मामले की चर्चा सदन में की जाएगी जो मामला पहले से ही न्यायालय में विचाराधीन है। जो संसदीय नियम कायदों से ताल्लुक नहीं रखते, वो भी इतना तो जानते हीं है कि सदन में उन मामलों पर चर्चा कभी नहीं होती जो न्यायालय में विचाराधीन होते हैं। सदन हमेशा इन मामलों पर चर्चा से बता है। लेकिन इस बार इस मायने में भी मध्यप्रदेश विधानसभा में इतिहास बनने जा रहा है। लेकिन हर मामले में इतिहास बनाने पर आमदा भाजपा की इन कोशिशों के एक बात,आम आदमी ही नहीं कांग्रेसियों के भी समझ से परे हो गई है,कि आख्रिर भाजपा इन बर्खास्त विधायकों की बहाली के लिए इस कदर क्यों तुली हुई है। इतनी फिक्र इतनी परवाह तो खुद कांग्रेस ने नहीं की, जिनकी पार्टी के ये दमदार विधायक कहलाते थे। उस दिन के बाद आज दिन तक कांग्रेस के किएधरे पर नजर दौड़ाएं तो  खुद कांग्रेस ने इन नेताओं के साथ हुई नाइंसाफी को लेकर इतनी आवाज बुलंद नहीं की। जितनी कसरत उनकी वापसी के लिए भाजपा कर रही है। कांग्रेस तो अपने नेताओं की शहादत को एक हफ्ता भी नहीं भुना पाई। एक दिन विधानसभा में धरना और फिर दूसरे दिन युवक कांग्रेस के पूर्व निर्धारित कार्यक्रम को नया रुप देकर बर्खास्त विधायकों के हक में कांग्रेसियों का प्रदर्शन। खानापूर्ति की तरह कांग्रेस ने अपनी भूमिका निभा दी। राजनीति की राहें रपटीली तो होती हैं लेकिन ये कैसा भटकाव है जिसमें, कांग्रेस के ही नेता अपने बर्खास्त विधायकों की बहाली पर सवाल उठाते सुनाई देते हैं। और स्वस्थ लोकतंत्र की दुहाई देती भाजपा बर्खास्त विधायकों की बहाली के लिए जुटी दिखाई देती है। राजनीति की ये कौन सी रीत है? कैसी सियासी मजबूरी? हर मामले में इतिहास बनाने की ये कैसी जिद है जिसमें सारे कानून कायदे तार तार हुए जाते हैं।

ताकि मर्यादा बची रहे...



राजनीतिक दल रोजी, रोटी और मकान के वादे करते हैं। सरकारें शिक्षा,स्वास्थ्य और रोजगार देने के दावे करती हैं। लेकिन आम आदमी से जुड़ी कई ऐसी समस्याएं होती हैं, सरकार से ज्यादा जो समाज के दायरे में आ जाती हैं। गांव देहात में मुंह अंधेरे महिलाओं का शौच जाना एक ऐसी ही समस्या है। ये एक ऐसा विषय है जिस पर महिलाओं के हक की बात करने वाले महिला संगठनों ने भी कभी बहुत खुलकर बात नहीं की। एक बारगी सोचिए जरा,कितना मुश्किल होता होगा, मुंह अंधेरे महिलाओं का सिर्फ इसलिए शौच को जाना कि फिर दिन के उजियारे में औरत की अस्मिता पर सवाल ना खड़े हो जाएं। ये और बात है कि खुले में तो पुरुष भी शौच जाने से परहेज करते हैं। खैर, सदियों से सिलसिला चलता रहा और गरीबी की तरह, इस कुव्यवस्था को भी महिलाओं ने अपने जीवन की नियति मान लिया। रही बात समाज की तो समाज ने भी कभी सवाल नहीं उठाए अपनी और से इन हालात को बदलने की कोई कोशिश भी नहीं की। लेकिन पहली बार सरकार ने इस ओर अपनी चिंता दिखाई है। मध्यप्रदेश की शिवराज सरकार वाकई तारीफ की हकदार है। जो औरतों की हिफाजत के लिए उनके अपने घर में शौचालय बनवाने  प्रदेश के गांव गांव में मर्यादा अभियान शुरु करने जा रही है। समाज जो तस्वीर ना बदल सका सरकार उस तस्वीर को बदलने की कोशिश कर रही है। शिवराज सरकार के पंचायत एवं ग्रामीण विकास विभाग ने इस मर्यादा अभियान की शुरुवात की है। औरत की मर्यादा को ध्यान में रखते तैयार किए गए इस अभियान में घर में शौचालय बनवाने का पूरा खर्च अब सरकार उठाएगी। घर में टॉयलेट बनवाने सरकार से मिलेगी नौ हजार की मदद, और इच्छुक परिवार को केवल नौ सौ रुपए अपनी ओर से मिलाने होंगे। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने बीते साल जब बेटी बचाओ अभियान के प्रचार प्रसार पर लाखों रुपए खर्च किए थे, तो कई सवाल खड़े हुए थे। लेकिन सरकार की सरपरस्ती में महिलाओं की मर्यादा के मद्देनजर शुरु हुआ ये मर्यादा अभियान तस्दीक है इस बात की, कि महिलाओं के विषय में सरकार की फिक्र सतही नहीं है। गांव के हर घर में, शौचालय के लिए मिलने वाली नौ हजार रुपए की सरकारी मदद गांव की तस्वीर से पहले औरत की तकदीर बदल देगी । औरतों की सुरक्षा उनकी शिक्षा पर बहस चलती रही। पर अब तक कहां किसी सरकार ने ये ख्याल किया।  एक दम जमीन पर ऐसा कोई बदलाव नहीं आया जिसे औरत की सुरक्षा, उसकी मर्यादा को बचाने की कोशिश कहा जा सके। अगर ये अभियान कामयाब रहता है,दूसरे सरकारी एलानों की तरह होर्डिंग्स के सरकारी प्रचारों में दिखने के बजाए जमीन पर भी आता है। तो गांव देहात में रहने वाली महिलाओं को, सरकार की ओर से मिली ये बड़ी राहत होगी। भारतीय समाज पर कितना बड़ा दाग है ये कि परंपराओं में बंधी हमारे देश की महिलाएं वैसे तो पुरुषों से पर्दा करती हैं। लेकिन उन्ही महिलाओं को अपने नितांत निजी दैनिक कार्य के लिए भी सार्वजनिक जगहों पर जाना पड़ता है। गांव देहात से कई बार इस तरह की खबरें भी आती हैं, कि फलां गांव में खुले में, शौच के लिए गई महिला के साथ बदसलूकी की गई। बदसलूकी करने वाले को सजा भी मिल जाती है। लेकिन इसके बावजूद औरत के साथ इंसाफ तो फिर भी नहंीं होता। वो तो फिर दिल में दहशत लिए, वक्त से पहले मूंह अंधेरे उठकर शौच के लिए खेतों की मेढों के पीछे, दालन में पेड़ों की ओट में जाने को मजबूर बनी रहती है। मुमकिन है कि मर्यादा अभियान के साथ जब गांव के घर घर में सरकारी मदद से शौचालय बनेंगे तो ये हालात भी बदलेंगे। सियासत और उसके पैमाने अपनी जगह हैं लेकिन फिलहाल महिलाओं के लिए शिवराज सरकार का सूचकांक, संवेदनशीलता को छू रहा है।

गौर सोनिया प्रसंग



 भाजपा के वरिष्ठ नेता बाबूलाल गौर, सोनिया गांधी को त्याग की मूर्ति कह गए। नहीं, उनकी जÞबान नहीं फिसली। किसी राजनीति के तहत वो ऐसा कह गए हों, ऐसा भी नहीं। बस कह गए। राजनीति के पैमानों पर गौर का ये बयान गलत भी हो सकता है। आमतौर पर राजनीति के ककहरे में तो सिखाया भी यही जाता है कि दूसरे दल के नेता की जितनी हो सके बुराईयां तलाशो। उसकी अच्छाईयों को देखने से भी परहेज करो, उनकी सार्वजनिक तौर पर प्रशंसा तो फिर बहुत दूर की बात है। राजनीति के मापदंडों में गौर का ये बयान बिल्कुल फिट नहीं है, ये सही है। यही वजह है कि इस तरह के उदाहरण राजनीति के इतिहास में ढूंढे नहीं मिलते, गौर साहब से पहले बिल्कुल इसी तरह का बयान अटल जी ने इंदिरा गांधी को लेकर दिया था। 1971 में भारत पाकिस्तान युध्द के दौर की बात है ये। तब अटलजी ने इंदिरा गांधी को देवी के रुप में संबोधित किया था। आज राजनीति का जो स्तर है उसमें अटलजी का  ये उदाहरण गले ना उतरना स्वाभाविक है। लेकिन राजनीति से अलग हटकर देखिए तो एक इंसान ने दूसरे की कर्मठता को सराहा है, उसके त्याग का सम्मान किया है, खुले दिल से उसकी प्रशंसा की है। गौर साहब सोनिया गांधी की शान में जो कुछ कह गए उसके राजनीतिक मतलब इसलिए भी नहीं निकाले जाने चाहिए, क्योंकि गौर साहब ने ये सबकुछ किसी राजनीतिक लाभ की प्रत्याक्षा में नहीं कहा। लगभग पूरी उम्र भाजपा में गुजार देने के बाद अब गौर कांग्रेस में जाएंगे नहीं, ये भी तय है। आमतौर पर नेता अपनी पार्टी के बड़े नेताओं के कसीदे पढ़ते हैं, जिसका नेताओं को देर सबेर फायदा भी मिलता है।  ऐसे में दूसरे दल की नेता का गौरव गान करके गौर साहब को सीधा फायदा मिलेगा ऐसा भी नहीं लगता। हैरानी इस बार भाजपा के रवैये को लेकर भी है, खुले दिल से अपनी हर बात कह देने वाले गौर साहब ने जितने बड़े दिल से ये बयान दिया। भाजपा ने भी उसी बड़प्पन से उस बयान को संभाल  भी लिया। कांग्रेसियों ने लाख इसे राजनीतिक रंग देने की कोशिश की हो। गौर साहब के बंगले पर बधाईयां और मुबारकें देने पहुंचे हो कांग्रेसी । लेकिन प्रदेश भाजपा तो इस पूरे एपीसोड पर खामोश रही। मध्यप्रदेश भाजपा के सबसे बुजुर्गवार नेताओं में शामिल गौर साहब इसी तरह के नेता हैं। शुरुआत से यहीं अंदाज है उनका। भाजपा वामपंथियों की खिलाफत करती है। लेकिन रूस की यात्रा से लौटे गौर साहब ने वामपंथियों से मिले उपहार को अपने घर में पूरे आदर और सम्मान के साथ जगह दी थी। कैबिनेट की बैठक से लेकर पार्टी के सम्मेलनों में भी गौर को जब जो कहना होता कह देते है। सो अब भी कह गए हैं। लेकिन इस बयान के साथ एक बहस तो गौर साहब ने छेड़ ही दी है। बहस इस पर की राजनीति के कायदे कुछ लचीले होने चाहिए। नेता भी इंसान ही तो हैं,और फिर राजनीति में किसी की अच्छाई को सिर्फ इसलिए तो नामंजूर नहीं किया जा सकता क्योंकि वो दूसरे दल का है। अब गौर के बहाने ही सही नेताओं के नजरिए का चश्मा बदल जाए तो अच्छा। 

दुआ करें,कि वक्त पर आए मॉनसून


मौसम बेईमान हो रहा है। रितुएं अब रुठने लगी हैं। मॉनसून की देरी अब हर बरस की कहानी है। लेकिन चिंता की बात ये है कि साल दर साल ये देरी बढती जा रही है। पहले जून के शुरुवाती सप्ताह में ही आ जाती थी मॉनसूनी फुहारें। फिर देरी हुई और  जून के दूसरे हफ्ते में लगने लगी बरसात की झड़ी । फिर और हुई देरी और बात तीसरे हफ्ते तक पहुंची। खैर, अब तो जून महीना भी खत्म होने को है, लेकिन बरसात के बादल कहीं दिखाई नहीं दे रहे। कुल जमा चार महीने हिंदुस्तान में होती है बारिश जिसका भी एक महीना तकरीबन रीता ही बीत चुका है। मौसम में आ रहे इन बदलावों की वजह तलाशने जाएंगे, तो वहां भी खुद को ही खड़ा पाएंगे। असल में ये हमारा ही किया धरा है। जो मौसमों का गणित इस कदर बिगड़ गया है। होली तक रहने लगे हैं जाड़े और झमाझम बरसात के दिनों में भी गर्मी और उमस से हाल बेहाल है। हमने परवाह नहीं की,बढती आबादी लील गई पेड़, खेत खलिहान और पहाड़। हालात यहां तक पहुंचे कि अब तो शहरों में धरती का टुकड़ा भी देखने नहीं मिलता ं। इमारतों से पट गई है जमीन। अपनी सहुलियत के लिए, अपनी जमी और अपना आस्मां बांटते रहे, इंसान ने कुदरत की कद्र की ही नहीं । वो जो पेड़ पौधे, हरी भरी वादियां, जो बरसाती बादलों को रिझा लेती थीं,और  बादल टूटकर बरसा करते थे। अब उन पेड़ों की जगह आसमान छूती मीनारों ने ले ली है। उन मीनारों से सिर्फ साफ आसमान दिखाई देता है। काले काले बादल उन मीनारों पर कभी नहीं आते। मॉनसून के रुठने की वजह तलाशता ये तस्वीर का एक पहलू है। दूसरा पहलू वो है, मॉनसून की देरी,जहां मुसीबत बन रही है। मॉनसून देर से आए तो पहली मार किसान पर पड़ती है। बुआई के लिए कुदरत के मेह का इंतजार करने वाले किसान के लिए बादल,इन दिनों आस के बादल होते हैं। उम्मीद के बादल। जो वक्त पर बरस गए तो खेत भी मुस्कुराने लगते हैं। बादल, बरसात, खेत और बुआई, इन चारों का समीकरण बिगड़ा तो तय है मंहगाई। सरकारी स्कूल में चौथी पांचवी क्लास में, भूगोल की किताब में एक पाठ हुआ करता था,जिसमें मॉनसून की एकदम नई शिनाख्त थी, जिसमें बताया जाता था कि हिंदुस्तान वो मुल्क है जहां की पूरी अर्थव्यवस्था ही मॉनसून पर निर्भर रहती है। इस नजर से देखिए तो वाकई मॉनसून केवल एक मौसम नहीं है। बरसात की झड़ी नहीं है कि जिसमें भींगकर मोहब्बत के दिन ताजा किए जाएं। कि मोहल्ले की नालियों और छोटे छोटे गड्ढों में कई दिनों तक जमा रहने वाले जिसके पानी पर,तैराई जाएं कागज की कश्तियां और बचपन की यादें साझा की जाएं। बाजार के इस दौर में, जब रिश्तों की भी मार्केटिंग होने लगी है। मॉनसून भी बाजार से अल्हैदा नहीं है। मॉनसून का देरी से आना अर्थव्यवस्था के लिए भी नई फिक्र पैदा करता है। फिक्र मंहगाई की। मॉनसून जितनी देरी से आएगा, अनाज के साथ तमाम चीजों के दाम उतनी तेजी से बढते जाएंगे। बरसात की झड़ी वाले दिनों में भी उमस का ये दौर तो एयरकंडीशंड के सहारे बर्दाश्त हो भी जाएगा, मौसम की मार हम तक पहुंचेगी भी नहीं। लेकिन मंहगाई की मार से फिर कहां बच पाएंगे। बड़ी बड़ी कंपनियों की मार्केटिंग स्ट्रेटजी के तौर पर इस्तेमाल होता है मॉनसून धमाका। तो मॉनसून सिर्फ डिस्काउंट आॅफर की पहचान बन कर ना रह जाए। दुआ कीजिए कि मॉनसून पूरे ढोल ढमाके के साथ आए। गरज चमक के साथ आए। मॉनसून देरी से सही लेकिन आता रहे इसके लिए पर्यावरण को बचाना होगा। एक एक पौधे, और एक एक पेड़ का रिश्ता है बादलों से। इस रिश्ते को टूटने मत दीजिए। रिश्ता टूटा तो मॉनसून फिर रुठ जाएगा।

Sunday, June 28, 2015

गरीब को गाली मत बनाओ..



हिंदुस्तान में इसे लिहाज भी कहते हैं। जज्बात में जीने वाले भारतीय समाज की संवेदनाओं और सहानुभूति से जुड़े कायदे कहलाते हैं ये कि हम काले को भी काला कहने में संकोच करते हैं। नेत्रहीन को कभी नहीं कहते कि तुम अंधे हो। विकलांग या अपाहिज को हम लंगड़ा कहकर कभी नहीं पुकारते। हम कभी भी, किसी की हैसियत से उसकी पहचान नहीं बनाते। सिर्फ इसलिए कि किसी को भी बेइज्जत करने के लिए काफी,ये सारे संबोधन मन को दुख पहुंचाने वाले होते हैं, और मन की ठेस हमेशा तन के घाव से बहुत गहरी होती है। लेकिन मध्यप्रदेश के खंडवा जिले के खालवा गांव में, जो कुछ हुआ वो,समाज और इंसानियत के इन कायदों को ही तार तार करने वाली है। संविधान और उसमें हर इंसान को मिले अधिकारों की बात तो फिलहाल छोड़ ही दीजिए।  इस गांव के हर दूसरे घर की दीवार पर नाम की जगह, उस घर में रहने वाले लोगों की पहचान लिखी है, पहचान ये कि वो गरीब हैं। ये उस गांव के लोगों का दर्द नहीं है, सरकार की सहुलियत के लिए गांव वालों से किया गया भद्दा मजाक है ये। प्रशासन ने इस गांव के लिए ये लिखित आदेश दिया है कि गरीब अपने घर के आगे ये लिखवाए कि मैं गरीब हूं। ताकि गरीब की आसानी से पहचान हो सके। कितना अजीब लगता है ये सुनना और पढना कि मैं गरीब हूं। जैसे गरीबी कोई बीमारी है। जैसे गरीबी मनुष्य में ही ऐसी कोई प्रजाति है, जिसे समाज में अब तक स्वीकारा नहीं गया। याद कीजिए, सरकार की खींची गरीबी रेखा की लकीर के पहले कहां तय हुई थी गरीब की परिभाषा और उसके पैमाने। तब तो मोटर गाड़ी और कोठी वाला होकर भी, किसी बेटी का बाप  खुद को गरीब ही कहता था। लेकिन यहां खुद को गरीब कहने में फर्क था, फर्क इसलिए कि अच्छाखास अमीर आदमी खुद सामान्य बताने के लिए गरीब कह रहा है और वो भी अपनी मर्जी से। लेकिन खालवा गांव में सरकार दबाव देकर गरीब को कह रही है कि अपने घर पर लिख्खो कि तुम गरीब हो। नेता तक अपने भाषणों में जिनके मान का पूरा ख्याल रखते हैं और गरीब कहने के बजाए, उन्हे समाज की आखिरी पांत में खड़ा व्यक्ति बताते हैं, उस जरुरतमंद इंसान को सरकारी योजनाओं और कार्यक्रमों का लाभ देने गरीब होने का पहचान पत्र बीपीएल कार्ड तो पहले से ही बना हुआ है। कोई भी गरीब, सरकार के मुताबिक गरीब है ये दिखाने के लिए ये कार्ड ही काफी है। अब गरीबों को छंटाई के लिए ये जरुरी तो नहीं कि उसके घर पर ही गरीब लिखवा दिया जाए। कल इतने पर भी बात नहीं बनेगी तो गरीब के माथे पर और हाथ पर भी गरीब लिखवाएंगे। प्रशासन संवेदनाओं पर भले ना चले, लेकिन संविधान भी शासन को इस बात की इजाजत नहीं देता कि किसी की हैसियत का इस तरह दीवारों पर मखौल उड़ाया जाए। सिर्फ सरकारी मदद के लिए ये पहचान बताना बिल्कुल वैसा ही है कि जैसे किसी से मदद मांगी जाए और वो कहे कि पहले भिखारी बनकर मेरे पास आओ, तब मदद मिलेगी। यकीन मानिए,खालवा गांव के इन लोगों को सरकारी योजनाओं के लाभ से इतना सुकूंन कभी नहीं मिला होगा, जितना बड़ा घाव गरीबी को उनकी पहचान उनकी शिनाख्त बना देने के बाद मिला है। गरीबी पहली बार उन्हे गाली की तरह लगी होगी। लेकिन तफ्सील में जाइए तो  उनकी गरीबी के लिए भी वो अकेले ही जिम्मेदार हो ऐसा भी नहीं है, उनके हक का वो पैसा जो उन्हे गरीबी की लक्ष्मण रेखा से बाहर ले आता, उस पैसे ने जाने कितने अफसरों मंत्रियों को अमीर बनाया है। जिस गरीब की इज्जत उछालने चले हैं, उसी गरीब पर तो होती आई है सदियों से राजनीति। सरकारें चलती रही हैं। भूल मत जाइये कि उसी गरीब के नाम पर बनते हैं विभाग और प्रशासन में बैठे अधिकारियों की नौकरी चलती हैं। बस फर्क सिर्फ इतना है कि उसकी दीवार पर लिख दिया जाता है कि वो गरीब है।  

फिर कहानियों में रह जाएंगे बाघ



अच्छा ही हुआ कि दो साल पहले ही मध्यप्रदेश से टाइगर स्टेट का तमगा छीन लिया गया। वरना जिस तरह से प्रदेश में हफ्ते भर के भीतर दो बाघों का शिकार हुआ है।  ये घटनाएं मध्यप्रदेश के वन विभाग और सरकार को शर्मसार कर देने के लिए काफी होतीं। शर्मसार होने की वजहें तो खैर अब भी मौजूद हैं। वन्य प्राणियों की हिफाजत के लिए बनाए गए नेशनल पार्क के सुरक्षा बंदोबस्त की कलई उतर जाती है और बांधवगढ नेशनल पार्क में बाघ का शिकार हो जाता है। सप्ताह भर के भीतर मध्यप्रदेश में ही दूसरी बार फिर बाघ का शिकार होता है, वो भी कहीं दूर नहीं, भोपाल के पास कठौतिया के जंगलों में, उन जंगलों में जिन्हे अब तक सरकार फॉरेस्ट रिजर्व घोषित नहीं कर पाई। अभी बहुत दिन नहीं हुए जब पूरे देश में ये चिंता थी कि भारत में बाघ तेजी से कम हो रहे हैं। 2006 में भारत में केवल 1411 बाघ बचे रह गए थे, भारत सरकार और सामाजिक संगठनों की कोशिश से बाघों की आबादी फिर बढी और ये ग्राफ 1704 पहुंच गया। लेकिन मध्यप्रदेश जो कभी टाइगर स्टेट था, वहां देश में बढ रही बाघ की आबादी के व्युत्क्रमानुपात में हुआ सबकुछ। मध्यप्रदेश में 2006 में 300 बाघ हुआ करते थे, जो 2011 की गणना में 257 ही रह गए हैं। और ये सिलसिला अब भी थमा नहीं है,2011 में पन्ना नेशनल पार्क में गायब हुए बाघों के बाद, बांधवगढ नेशनल पार्क में एक बाघिन की दुर्घटना में चल बसी। उसी साल कान्हा नेशनल पार्क में दो बाघों की मौत हो गई। और अब फिर ताजा मामला भोपाल के पास के जंगलों का, जहां एक बाघ का शिकार हुआ और दूसरी बाघिन लापता है। हर बार  बाघ की मौत के बाद जांच कमेंटियां बनती है, वन विभाग से लेकर वन मंत्री तक हरकत में आते हैं, फिर हालात जस के तस हो जाते हैं। लेकिन मध्यप्रदेश में बाघों की आबादी लगातार कम होने के बावजूद बाघों को बचाने के कोई सख्त कदम नहीं उठाए जाते। वन विभाग में अब भी मैदानी स्टॉफ की कमी है। जो हैं भी, वो बाघों की सुरक्षा करने के बजाए अफसरों की चाकरी में लगे हैं। एक तरफ आईटी के साथ वन विभाग हाइटेक हो रहा है, दूसरी तरफ विभाग को शिकारियों से संबंधित सूचनाएं ही नहीं मिल पाती और बाघों का शिकार हो जाता है। भोपाल के पास कठौतिया के जंगलों में हुई इस घटना के पहले भी भारत सरकार ने मध्यप्रदेश सरकार को चेताया था कि मध्यप्रदेश में शिकारी सक्रीय हैं,लेकिन इसके बाद भी वन विभाग के सूचना तंत्र को खबर  नहीं मिल पाई और बाघ का शिकार हो गया। मध्यप्रदेश में बाघों की इन हालात के लिए ऊपर से नीचे तक पूरा सिस्टम जिम्मेदार है। बाघों को बचाने के लिए जो गंभीरता होनी चाहिए वो कहीं नजर नहीं आती। ना अफसर मुस्तैद हैं ना विभाग के मंत्री सख्त। हाल ही में बाघ के शिकार पर प्रदेश सरकार के वन मंत्री का बयान बेहद गैरजिम्मेदाराना था, उन्होने कहा, कि छै सौ मीटर के दायरे की सुरक्षा कर पाना बेहद मुश्किल है। वन मंत्री के बयान पर जाएं तो फिर होने दीजिए बाघों का शिकार, अभी मध्यप्रदेश से टाइगर स्टेट का तमगा छिना है, कल टाइगर इस प्रदेश में होते हैं ये पहचान भी छिन जाएगी।  फिर जैसे आज की पीढी सुनती है कि ये प्रदेश कभी टाइगर स्टेट था.  कल आने वाली पीढी के लिए बाघ किस्से कहानियों में ही रह जाएंगे।

फिर जनता करेगी पाई पाई का हिसाब



पेट्रोल आठ रुपए पैंतालीस पैसे मंहगा हो चुका है।  पेट्रोल के दामों में अब तक का सबसे बड़ा इजाफा है ये। दिल थामे रखिए क्योंकि डीजल और रसोई गैस के दाम बढने अभी बाकी हैं। ताज्जुब ये भी है कि आम आदमी की सरकार समझकर जिसे हमने चुनकर भेजा था, वो सरकार दाम बढा रही है, और मंहगाई अपने मत्थे भी नहीं ले रही। मजबूर सरकार के लाचार नुमाइंदे कहते हैं, पेट्रोलियम कंपनियों ने दाम बढाए हमारे हाथ में अब कुछ नहीं है। तेल कंपनियों रोना रो देती हैं कि कंपनियां घाटे में हैं क्या करें। लेकिन हकीकत ये है कि सरकार की मजबूरी भी दिखावा है, और कंपनियों के आंसू भी झूठे। उल्टे तेल कंपनियां तो भारी मुनाफे में चल रही हैं। अब तक बीते दो सालों में चौदह बार पेट्रोल के दामों में इजाफा हो चुका है, और अबकि तो ऐसा इजाफा हुआ कि जो आम आदमी की कमर नहीं रीढ ही तोड़ देने वाला है। ऐसा कतई नहीं होगा कि पेट्रोल के दामों में हुई इस बेतहाशा वृध्दि के बाद अचानक जनता साईकिल की सवारी पर जाएगी। हर हाल में गाड़ी तो चलती है, लेकिन ये गाड़ी अब सुकूंन से नहीं चलेगी। और अगर आज इस बढती मंहगाई में आम आदमी को घर गृहस्थी और गाड़ी का सुकून नहीं मिला तो कल सरकार का सुकून भी छिन जाएगा,ये तय है। अभी तक सड़कों पर विपक्षी दल के कार्यकर्ता आते थे, नेता बयानों में बढती मंहगाई पर रोष जताते थे, लेकिन अब हालात बेकाबू हो चले हैं। कोई ताज्जुब नहीं कि अब देश की जनता खुद मोर्चा संभाल ले और कल सड़कों पर उतर आए। सियासी दलों को अब इन हालात को समझना होगा। केन्द्र में बैठी यूपीए सरकार अगर हालात का अंदाज नहीं लगा पा रही तो राज्य सरकारों को ही समय रहते आवाम की नब्ज पकड़ लेनी चाहिए। आम चुनाव अभी दो साल दूर हैं। लेकिन मध्यप्रदेश जैसे राज्यों में तो चुनावी मौसम आ चुका है। सड़कों पर उतरकर केन्द्र की यूपीए सरकार के खिलाफ नारे लगाकर, थाली कटोरी बजाकर आपकी जिम्मेदारी पूरी नहीं हो जाती। ये सबकुछ तो सियासत की औपचारिकताएं भर हैं। इसके फायदे फौरी तौर पर भी नहीं मिलने और चुनाव बाद भी नहीं। इतनी तसल्ली रखिए कि कांग्रेस अगर मंहगाई लाई है तो आम आदमी तो इसी बात से ही उससे दूर हो जाएगा और विकल्प के तौर पर विपक्ष में बैठे दल को ही तलाशेगा। लेकिन विपक्षी दलों को अगर इस मौके का सियासी फायदा उठाना है तो खुद कुछ करकेभी बताना होगा।  कम से कम मध्यप्रदेश जैसे राज्य जहां चुनाव अब नजदीक ही हैं। इन राज्यों को अपनी रणनीति बदलनी होगी, केवल सड़कों पर कांग्रेस को कोसने से काम नहीं चलेगा। मध्यप्रदेश सरकार चाहे तो इस मुफीद मौके का पूरा फायदा उठा सकती है। मध्यप्रदेश में इस समय पेट्रोल आठ रुपए पैंतालीस पैसे मंहगा हुआ है, ठीकरा पूरा केन्द्र सरकार के सिर है, ऐसे में अगर राज्य की सरकार पेट्रोल पर लगी वैट की दरें ही कुछ कम कर देती है, तो आम आदमी की जेब पर इस मंहगाई में कुछ बोझ तो कम होगा। एक ऐसे वक्त में जब आम आदमी हर तरफ से मायूस और परेशान है। राज्य सरकार से मिली ये छोटी सी राहत भी वोटर का रुख बदल सकती है। यूं भी मध्यप्रदेश उन राज्यों में शुमार है जहां वैट की दरें सबसे ज्यादा है। लंबे समय से विपक्ष में बैठी कांग्रेस सरकार पर ये आरोप लगाती रही है कि मंहगाई पर केन्द्र को कोसने वाली राज्य सरकार खुद अपने राज्य में वैट की दरें कम क्यों नहीं करती। एक साल बाद तो जनता पाई पाई का हिसाब कर ही लेगी उसके पहले अपने नंबर बढवाने का भाजपा सरकार के पास भी ये आख्रिरी मौका है। 

फिर जनता करेगी इलाज




पूर्व स्वास्थ्य संचालक योगीराज शर्मा के घर मिली नोट गिनने की मशीन अभी प्रदेश के लोगों के जेहन से उतरी भी नहीं थी कि सौ करोड़ के हैल्थ डायरेक्टर डॉ अमरनाथ मित्तल ने स्वास्थ्य विभाग में भ्रष्टाचार के सारे पुराने रिकार्ड तोड़ दिए।  हांलाकि हेल्थ से अपनी वेल्थ बढाने वाले अफसरों में मित्तल का नाम बहुत बाद में आता है। उनके पहले योगीराज शर्मा, अशोक शर्मा, बी एन चौहान समेत स्वास्थ्य विभाग के अधिकारियों की लंबी फेहरिस्त है।  साल दर साल इस विभाग में कमाई का ग्राफ बढता रहा। लेकिन बीते कुछ सालों में तो स्वास्थ्य विभाग में करप्शन करोड़ों में पहुंच रहा है। बीमार से बेईमान करके जुटाए इस आंकड़े को देख रहा इस सूबे का आम आदमी हैरान है। हैरान ही हो सकता है। वो इसलिए कि जिस प्रदेश के गांव में अब भी इलाज के अभाव में प्रसूताएं दम तोड़ देती हैं, और जो प्रदेश मातृत्व मृत्यु दर के मामले में देश में चौथे नंबर नंबर पर है। जहां शिशु मृत्यु दर सबसे ज्यादा है। जहां सरकारी इलाज अब भी कई गांवों के लिए सपना है। उस प्रदेश के स्वास्थ्य  को सुधारने की जवाबदारी संभाले संचालक, उसी महकमें से, एक दो,बीस, पच्चीस पचास नहीं सौ करोड़ तक कमा जाते हैं। जिस पैसे से पूरे प्रदेश की स्वास्थ्य सेवाएं सुधर सकती थीं, वो पैसा एक परिवार की जिंदगी मेहफूज करने जमा हो जाता है। वो भी आम आदमी के नाम से आने वाले दवा के खोकों में। ये सबकुछ देख रहा आम आदमी हैरान तो है पर सवाल नहीं करता। वो जानता है कि अ‍ेकेले मित्तल गुनहगार नहीं, जूनियर आॅडिटर गणेश किरार से लेकर बहुत ऊपर तक कड़ी एक ही है। मित्तल तो इनमें सिर्फ वो चेहरा है जो पकड़ा गया है। जो नहीं पकड़े गए, उन पर इशारा मित्तल की पत्नि ने कर ही दिया था। अलका मित्तल ने अनायास ही कह दिया कि उन मंत्रियों के यहां छापे क्यों नहीं मारते, जिनके यहां हर महीने के एक करोड़ पहुंचाए जाते हैं।  मित्तल की पत्नि का ये बयान मध्यप्रदेश के राजनीतिक और प्रशासनिक हल्कों में चर्चा का विषय बना हुआ ह। लेकिन चर्चा के साथ ये चिंता का विषय भी है। चिंता का विषय इसलिए कि अगर सब बराबर के गुनहगार हैं तो कार्यवाई चीन्ह चीन्ह कर किसलिए। मध्यप्रदेश में चपरासी से लेकर आईएएस दंपत्ती तक निकल रही करोड़ों की संपत्ति के बाद मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ये जताने की कोशिश करते रहे हैं कि उनकी सरकार में भ्रष्ट्राचार पर लगाम लगी है। लेकिन अलका मित्तल के बयान ने इन कार्यवाहियों की बखिया उधेड़ दी है जैसे। शिवराज सख्त हैं, काली कमाई वालों को नहीं बख्श रहे। ये दिखाई भी दे रहा है, मंजूर भी है। लेकिन इसके पहले कि उंगली उनके सहयोगियों के साथ फिर उन पर आए इसके पहले शिवराज सिंह चौहान को बताना होगा कि बख्शा कोई नहीं जाएगा। और सिर्फ छापे भर से अब बात नहीं बनेगी, अब सख्त कार्यवाही भी करनी होगी। चुनाव के पहले के इस आखिरी साल में अगर अपनी सरकार पर लगे भ्रष्ट्राचार के दाग धोने ये जरुरी है सरकार के लिए। जरुरी है कि सरकार अब अपनों को भी आइना दिखाए। वरना अलका मित्तल की फिसली जुबान से जो निकला वो सबके जेहन में कई सालों से है। अगर जनता के सामने तस्वीर साफ नहीं हुई तो ये फिर ये ही बयान उसकी सोच भी बन जाएगा। वो ये जान और मान लेगा कि जो दिखाई देता है, मर्ज सिर्फ वहीं तक नही, संक्रामक बीमारी बुरी तरह फैल चुकी है। अभी भले जनता खामोश होकर देखती रही हो, लेकिन एक मुश्त इलाज करना वो भी जानती है। चुनाव अब दूर भी नहीं है।

संयम रखो बाबा



और अब बाबा बोल गए। बाबा रामदेव का बवाल मचाता बयान कि संसद में हत्यारे, लुटेरे और जाहिल बैठे हैं। विरोध में सांसदों की एकजुटता भी स्वाभाविक है। लेकिन इस सबके बीच अस्वाभाविक बहुत कुछ है। कालेधन के खिलाफ संघर्ष छेड़ रहे एक भगवाधारी बाबा के मूंह से ये शब्द अस्वाभाविक हैं। अस्वाभाविक तब भी थे,जब टीम अन्ना की अगुवाई में देश के सांसदों पर इसी तरह की टिप्पणी की गई थी। ओम पुरी से लेकर किरण बेदी और किरण बेदी से लेकर अरविंद केजरीवाल तक,सांसदों को लेकर विवादित बयान आते रहें हैं। लेकिन इस बार यहां सवाल सांसदों की गरिमा से पहले उन लोगों के अपने सम्मान का भी है। जिन पर देश ने अभी अभी भरोसा करना शुरु किया है। उस वक्त में भरोसा करना शुरु किया हैजब पूरा देश ही विश्वास के संकट से गुजर रहा है। ऐसा नहीं है कि कालेधन के खिलाफ लड़ रहे बाबा रामदेव और लोकपाल की मांग कर रहे अन्ना हजारे, अरविंद केजरीवाल और किरण बेदी पर सवाल ना उठे हों। बाबा रामदेव का अपना भी भारी भरकम कारोबार है। सब जानते हैं। यानि शक की गुंजाइश हर जगह है। लेकिन फिर भी देश इन नामों पर उनके कहे पर यकीन करता है।  समाज के लिए, देश के लिए लड़ रहे इन सामाजिक नेताओं को भी देश के इस भरोसे को बनाए रखना होगा। विस्तार में देखिए, तो सांसद भी, इस देश और इस देश के समाज से अलग नहीं है। नेता भी हमारे आपके बीच के ही प्राणी है। ये ठीक है कि उसमें बुराईयों का ग्राफ इनदिनों कुछ बढा हुआ है, और पब्लिक फील्ड में होने से दिखाई भी दे रहा है। लेकिन नैतिक मूल्यों का पतन तो हर तरफ हो रहा है। संसद अकेली नहीं है, हत्यारे, लुटेरे और जाहिल पूरे समाज में बढ रहे हैं। इसका मतलब ये कतई नहीं कि बाबा रामदेव इस देश के पालनहारों नेताओं को आईना ही ना दिखाएं। दिखाइए। जरुर दिखाइए। लेकिन इतना ख्याल रखते हुए कि भाषा संयत की सीमा को ना लांघे। ज़बानी हिंसा ठीक नहीं। बाबा रामदेव ने बापू की तरह अहिंसक अनशन किया था। अन्ना कुछ नहीं बोले। लेकिन पूरा देश अन्नामय हो गया था। ये बताता है कि बूढी हो चुकी आजादी में भी इस देश में गांधी के फार्मूले अब भी हिट और फिट हैं। बापू ने ना ही भाषा में ना व्यवहार में, हिंसा को कभी कहीं जगह नही दी। अहिंसा के बूते इस देश को आजाद करा लिया। फर्क बस इतना है कि तब लड़ाई बाहर वालों से थी। अब बाबा को ये समझना होगा कि इस बार लड़ाई अपनों से है। जनता को फैसला करने दीजिए। स्याह कहां और उजला कौन सा। दोनों एक ही जुबान बोलेंगे तो फिर फर्क कैसे होगा। पब्लिक सब देखती है। सब जानती है। फिक्र मत कीजिए बाबा। आप तो बस संयम रखिए।

बख्श दो नर्मदा को...



चौथे दर्जे में सहायक वाचन की किताब में नर्मदा एक पाठ हुआ करती थी।  फिर अमृतलाल वेगढ ने, एक परक्कमावासी की नजर से नर्मदा का भूगोल और इतिहास दिखाया । तब जाना था कि नर्मदा , सिर्फ एक नदी नहीं। इस प्रदेश की आस्था और विश्वास है। मध्यप्रदेश की जीवन रेखा है नर्मदा। लेकिन वही नर्मदा, इन दिनों बिल्कुल नई शिनाख्त के साथ लोगों की जुबान पर चढी है। नर्मदा सियासत की वजह बनी है। शुरुवात कहां से हुई है, और एक नदी पर चल पड़ी ये राजनीति खत्म कहां होगी। इस पर फिलहाल कोई सवाल नहीं करते हैं। फिलहाल तो सिर्फ एक नदी पर हो रही राजनीति की तस्वीर देखते हैं। शुरुवात उस पाले से,सरकार को आइना दिखाना जिसकी ड्युटी  है। कांग्रेस के सांसद सज्जन सिंह वर्मा के जिस बयान पर बवाल मचा, यूं देखिए तो उसमें बवाल जैसा कुछ था नहीं, सिर्फ समझ का फेर था। भाजपा, नर्मदा के साथ हो रही जोरजर्बदस्ती के जिस बयान को लेकर आगबबूला हो गई। कहीं पार्टी ने खुद भी नर्मदा के इन हालातों को मंजूर किया था।  खुद को पाक साफ बताने के लिए पार्टी ने बस इतना जोड़ दिया कि ऐसा तो पिछली सरकार से होता आया है। जो पहले हो रहा था वही अब भी हो रहा है। कांग्रेस सांसद का शब्द भले मां नर्मदा से जुड़ी भावनाओं को ठेस पहुचाने वाला हो सकता है। लेकिन भाव के बजाए,भावार्थ में जाएं तो महसूस करेंगे कि सज्जन सिंह वर्मा ने गलत कुछ नहीं कहा। भाजपा ने गेंद को आधे में ही लपकने की कोशिश कर ली। हांलाकि दांव उल्टा ही पड़ा। नर्मदा में रेत के अवैध उत्खनन से जुड़े सवाल और जोर शोर के साथ भाजपा के सामने आ गए। फिलहाल पार्टी से लेकर सरकार तक जिन सवालों के जवाब भाजपा में किसी के पास नहीं है। कांग्रेस नर्मदा के हालात दिखा रही है और भाजपा नदी के मान पर हुए हमले का आघात लिए बैठी है।  लेकिन असल में,देखिए तो चिंता कहीं नहीं है। होना ये चाहिए था कि सरकार खुद सख्ती कांग्रेस के आरोपों से पहले लगातार खंगाली जा रही नर्मदा की अवैध खुदाई पर रोक लगाती, और ये यकीन दिलाती कि अस्मिता के साथ भाजपा को नर्मदा के अस्तित्व की भी चिंता है।  ऐसा नहीं है कि सियासी जुबानों पर नर्मदा का जिक्र पहली बार आया है। लेकिन अब तक जब भी सुना था, नेताओं की जुबान पर नर्मदा की फिक्र ही सुनाई देती थी। नर्मदा परिक्रमा करने वाले प्रहलाद पटेल बानगी हैं तो अनिल दवे जैसे राजनेता भी हैं, नर्मदा के किनारों ने जिनकी राजनीति की दिशा बदल दी। इन नेताओं ने कभी नर्मदा पर सियासत नहीं की। अपनी सियासत के सहारे नर्मदा के बिगड़ते हालातों को बदलने की कोशिश जरुर की। लेकिन जैसा कि होता है सार्थक काम सुनाई नहीं देते, इसलिए खामोशी से नर्मदा के मान के साथ उसके अस्तित्व को बचाने की लड़ाई लड़ते रहे। इन नेताओं की कोशिशों का भी कहीं हो हल्ला नहीं हुआ। लेकिन नदी पर सियासत करने वाले नेता तो चंद बयानों में ही सुर्खियों में आ गए हैं।  कहते हैं, गंगा में डूबकी लगाने से जो पाप धुलते हैं, नर्मदा के दर्शन मात्र से वो पाप खत्म हो जाते हैं। नर्मदा तीरे  बदलती संस्कृतियों की तरह, हम और आप हमेशा बदलते रहे। लेकिन नर्मदा ने ना कभी अपना गोत्र बदला है ना स्वभाव। वो तो अब भी अपने किनारों पर खड़े गुनहगारों को माफ कर देती है। उनके पाप धो देती है। नर्मदा के लिए नर्मदा का ही वास्ता। बख्श दो इस नदी को। नर्मदा पर राजनीति मत करो। तुम्हे देने नर्मदा के पास वोट बैंक नहीं है। 

क्योंकि पंसारी पर भरोसा है



खाद्य सुरक्षा कानून की देश भर में हुई जोरदार खिलाफत के बाद अब इसके मानक नियमों में बदलाव की उम्मीद जताई जा रही है। देश भर में चाय,खोमचे वालों से लेकर किराने के थोक व्यवसाईयों तक, सबने इस कानून का कड़ा विरोध किया। उनका विरोध जायज भी था क्योंकि व्यापारी मानते हैं कि इस कानून के आ जाने के बाद देश में बहुराष्ट्रीय कंपनियों को बोलबाला होगा, और रोज खाने कमाने वालों की रोजी तो लगभग खत्म ही हो जाएगी। लेकिन खाद्य वस्तुओं में मिलावट को रोकने और उसमें तय गुणवत्ता के मुताबिक बेचने के लिए ये खाद्य सुरक्षा कानून जिनके लिए बनाया जा रहा है। इस देश का आम आदमी भी इसका स्वागत कर रहे हों ऐसा नहीं है। असल में इसके पीछे वजह कई है। वजह हिंदुस्तान का परिवेश है, यहां का कारोबार और व्यवहार है। जज्बातों में जीने वाला ये मुल्क कभी कानूनों के भरोसे नहीं चला। अब भी यहां कानून से बड़ी सजा समाज दे देता है। खाद्य सुरक्षा कानून का मामला भी ऐसा ही है। हिंदुस्तान में कारोबार भरोसे पर चलता है। वो भरोसा ही होता है जिसकी दम पर पीढियों तक परिवार में किसी एक खास किराने वाले की दुकान से घर का सामान जाता है। मुश्किल के दिनों में कई बार उधार भी और अच्छे दिनों में नकदी। खाद्य सुरक्षा कानून के आ जाने के बाद इस भरोसे के टूट जाने का डर है। यूं भी बिना कानून के डर के भी तो पंसारी खुद ही ग्राहक को अच्छी और खराब दाल का फर्क बता देता है। अब अर्थव्यवस्था पर आएं तो डिब्बा बंद फूड का चलन इस देश की अर्थव्यवस्था को प्रभावित करने वाला होगा ये तय है। अगर डिब्बा बंद फूड की शुरुवात हो गई तो जाने कितने करोड़ खोमचे वाले, चाय वाले, रोज खाने कमाने वाले बेरोजगार हो जाएंगे। इस देश की अर्थव्यवस्था ही ऐसी है,हम खाने की चीज की जितनी कीमत चुकाते हैं, वो पूरा हिस्सा एक की जेब में नहीं जाता, मुनाफे के कई हिस्से होते हैं। इको सिस्टम की तरह एक पूरी चेन होती है। थोक से लेकर खुदरा व्यापारी तक के बीच की। इस कानून के आ जाने के बाद इस कड़ी के टूट जाने का भी खतरा है। खान पान के लिहाज से भी देखें तो स्वाद के लिए जीने वाले हमारे देश में, खाने के लिए ही तो कमाते हैं,इस देश के लोगों का फ्रीज में रखा डिब्बा बंद फूड से पेट तो भर जाएगा लेकिन मन कभी नहीं भरेगा। मन तो ठेले पर पानीपूरी खाकर ही भरता है, या कागज में लिपटी कचौरी निपटाकर। कानून और उसके सख्त नियम कायदे सब अपनी जगह हैं, लेकिन कुछ मामलों में सरकार को भी समाज के हिसाब से सोचना चाहिए। हिंदुस्तान उस तरह का मुल्क नहीं हैं,ये रोज खाने कमाने वालों का देश है। ये खाने के लिए जीने वालों का देश है। ये भरोसे पर चलने वाले कारोबारियों का देश है। इसलिए सरकार को चाहिए कि खाने पीने पर कानून का डंडा चलाने से पहले अपने मुल्क और उस मुल्क में रहने वालों के मिजाज को भी समझ ले। जरुरी नहीं है कि हर बात हड़ताल से ही समझाई जाए।

राजनीति में रिश्तों का फलसफा



ये राजनीति का ताजा पैंतरा है और एकदम चोखा भी। विकास के वादे, जनता की सेवा के इरादे इन सबसे अलग मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान राजनीति में रिश्तों का नया फसलफा लिख रहे हैं। बेटियंो को बचाने का अभियान चलाने वाली शिवराज सरकार की, दूसरी फिक्र अब इस प्रदेश के बुजुर्ग हैं। मुमकिन है ये देश में अपने तरह का पहला फैसला हो जिसमें किसी राज्य की सरकार अपने प्रदेश के बुजुर्गों को तीरथ कराने जा रही है। प्रदेश भर के बुजुर्गो के लिए एक मई से मध्यप्रदेश मेंमुख्यमंत्री तीर्थ दर्शन योजना शुरु हो जाएगी और सरकार अपने खर्चे पर बुजुर्गों को देश के चुनिंदा सोलह तीर्थ स्थलों के दर्शन कराएगी। सरकार की मानवीय पहल पर सवाल बेमानी है, लेकिन इतना तय है कि चुनाव के एन पहले शिवराज सिंह ने ये बड़ा दांव खेला है, अपनी सरकार को समाज के साथ खड़ा कर रहे शिवराज ने, पिछली पारी में घर परिवार पर बोझ समझी जाने वाली बेटियों को लक्ष्मी बनाया था, और चुनाव में लाड़लियों ने उन्हे जीताया भी। अब दूसरी पारी में स्मॉल हैप्पी फैमिली के फ्रेम से बाहर हो रहे बुजुर्गो की हमदर्द बनी है सरकार। सियासी नजर में, सरकार की ये दरियादिली 2013 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को फायदा पहुंचाती दिखाई देती है। लेकिन राजनीति के नफे नुकसान से अलग समाजशास्त्री की सोच कहती है कि शिवराज सिंह चौहान की इस राजनीति में,मानवीयता का चेहरा दिखाई देता है।
घर घर से नाता जोड़ो
इसे काबिलियत कह लीजिए या शिवराज के कामकाज का अंदाज कि इस सूबे के खैरख्वाह होते हुए भी, शिवराज सिंह चौहान हमेशा से भीड़ के बीच रहने वाले एक साधारण आदमी की तरह पेश आए हैं। सरकार के प्रचार महकमें की तस्वीरों में भी वो दूर से हाथ हिलाते, आॅउच आॅफ रीच मुख्यमंत्री कभी दिखाई नहीं दिए। शिवराज ने खुद को हमेशा इस तरह से पेश किया कि आम आदमी बेझिझक बेहिचक उनसे अपना दर्द कह सके। खुद को आम आदमी से दूर रखने वाली ग्लैमर की राजनीति में अमूमन चुनावी तस्वीरों में ही नेता जनता के नजदीक दिखाई देते हैं। लेकिन शिवराज जिस नई राजनीति की पटकथा लिख रहे हैं, वहां प्रदेश की सरकार होते हुए भी वो हर घड़ी जनता के बीच दिखाई देते हैं, और हर कोशिश ऐसी करते हैं जिससे जनता और उनके बीच का फासला कुछ और कम हो जाएं। मुख्यमंत्री निवास पर बुलाई जाने वाली पंचायतें इसकी मिसाल हैं। इन पर होने वाले लाखों के खर्च पर उठते सवाल अपनी जगह है लेकिन ये पंचायतें एक सूबे के मुुिखया और उस प्रदेश के आम आदमी के बीच की दूरियों को कम करने की कामयाब कोशिश दिखाई देती हैं। फिर उसमें भी परिवार  और समाज से बेदखल बुजुर्गों की पंचायत। जिनके अपनों को उनसे बात करने का वक्त नहीं, सूबे के मुख्यमंत्री ने उनकी खैर खबर ली। मुख्यमंत्री कोई घोषणा ना भी करते तो बेघर बेदर बूढों के लिए मुख्यमंत्री की सहानुभूति ही काफी थी। पर शिवराज जानते हैं कि ये नई राजनीति का दौर है। अब पांच साल बाद जनता के बीच जाने और वोट मांगने के जमाने लद गए। अब पूरे साल वोट बढाने और उन्हे मजबूत करने की तैयारी करनी पड़ती है। शिवराज की राजनीति ऐसी ही है। वो पूरे पांच साल तैयारी करते हैं। एक वोट के सहारे पूरे घर से नाता जोड़ते हैं। सरकार के खर्च पर पलने बढने वाली बच्ची जो लाड़ली लक्ष्मी बनी है उसे वोट देने का अधिकार भी नहीं है, लेकिन शिवराज सिंह जानते थे कि बेटी का बोझ सरकार उठाएगी तो परिवार खुद ब  खुद शिवराज सरकार के लिए राह आसान बना देगा। हुआ भी यही।
सरकार का सामाजिकीकरण
आमतौर पर समाज जिन बातों को लेकर अलख जगाता आया है, मध्यप्रदेश में वो काम, अब सरकार कर रही है। चाहे फिर बेटियों को कोख के साथ घर में जगह देने का अभियान हो या बुजुर्गों को उनका हक और मान देने की कोशिश। शिवराज सरकार ने योजनाएं भी इस ढंग से प्लान की हैं, जो सीधे आम आदमी को, उनके परिवार को प्रभावित करती हैं। बेटी का ब्याह किसी भी बाप के लिए सबसे बड़ी जवाबदारी होती है, सरकार ने ये जिम्मेदारी अपने सिर ले ली। बुजुर्ग की ख्वाहिश होती है कि उम्र के आखिरी पड़ाव में उनके अपने बेटे उन्हे तीरथ कराएं, ये प्फर्ज भी अब सरकार पूरा करेगी। ये शिवराज का समाज से जुड़ने का सीधा फार्मूला है,सियासी जानकार कहते हैं जो चुनाव में अपना असर दिखाएगा।
तो फिर बुजुर्ग ही बनवाएंगे  सरकार
शिवराज सरकार ने बुजुर्गो की पंचायत बुलाकर और उनके लिए सौगातों की झड़ी लगाकर,भाजपा सरकार की जमीन पुख्ता करने के कई काम एक साथ कर लिए हैं। बुजुर्ग उम्र के जिस दौर में होते हैं, वहां, सपने,ख्वाहिशें किसी मंजिल तक पहुंचने का जुनून, सब खत्म हो चुका होता है इसलिए सिस्टम को लेकर ना कोई सवाल होते हैं, ना उम्मीदें। ऐसे में बुजुर्गों की बुनियादी जरुरत की फिक्र ही बहुत है। बुजुर्गो के लिए इतना ही काफी है कि सरकार उनके बारे में भी सोचती है। मुख्यमंत्री निवास पर बुलाई बुजुर्ग पंचायत में प्रदेश भर से भले पांच सौ हजार बुजुर्ग ही पहुंचे हो, लेकिन ये वृध्दजन पूरे प्रदेश की नुमाइंदगी कर रहे थे। कोई शक नहीं कि सरकार से अपने लिए सौगातें लेकर घर लौटे ये वृध्द,गांव की चौपालों पर, शहरों की गलियों और पुलियाओं पर शिवराज सिंह चौहान और भाजपा के हक में माहौल बनाएंगे।
अम्मा, बाबूजी की चिंता
-बुजुर्गो के लिए सरकार वरिष्ठ नागरिक आयोग बनाएगी
-वरिष्ठ नागरिकों के लिए पुनर्वास नीति बनेगी
-बुजुर्गो के लिए मुख्यमंत्री तीर्थ दर्शन योजना एक मई से
- देश के सोलह तीर्थ स्थानों के दर्शन
-- योजना पर खर्च, एक करोड़ के लगभग
 --हर जिले में बेसहारा बुजुर्गो के लिए वृध्दाश्रम बनेंगे
 --साल में एक दिन, वरिष्ठ नागरिक दिवस मनाया जाएगा
-- वरिष्ठ नागरिकों का भरण पोषण और कल्याण अधिनियम लागू करने में सख्ती करेगी सरकार
 ---सरकारी दफ्तरों में बुजुर्गो के लिए अलग से खिड़की
--दीनदयाल अंत्योदय कार्ड में बुजुर्गो को अब साठ हजार तक का इलाज
समाज के साथ खड़ी, मानवीय सरकार
समाज शास्त्री ज्ञानेन्द्र गौतम कहते हैं, एक समाज शास्त्री होने के नाते और वैसे भी मैं इस बात का पक्षधर हूं कि सामाजिक सुरक्षा देना सरकार का दायित्व है, लेकिन मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने जिस तरह से बेटियों को बचाने के लिए अभियान छेड़ा,जिस तरह से बुजुर्गों के लिए सरकार ने सहानुभूति दिखाई है,तो कहीं ना कहीं, उन्होने राजनीति का मानवीय चेहरा दिखाने की कोशिश की है। मैं समझता हूं कि जहां राज्य समाज के आगे झुकता है, वहां समाज को उसका स्वागत करना चाहिए और जहां समाज के व्दारा कहीं चूक हो तो राज्य को उसमें आगे आना चाहिए ।  

अपनों के आइने में सरकार



कहते हैं अगर अपना आईना दिखाई तो असर भी ज्यादा होता है। संदर्भ मध्यप्रदेश की भाजपा सरकार का है। देश में मध्यप्रदेश अकेली ऐसी सरकार है जिसके राज में आम आदमी के लिए निहायत जरुरी कहे जाने वाले पेट्रोल, डीजल और रसोई गैस के दामों पर सबसे ज्यादा टैक्स वसूला जा रहा है। विपक्षी दल बयान दे दे कर थक चुके। मीडिया ने भी मध्यप्रदेश के वित्त मंत्री से लेकर मुख्यमंत्री तक सबसे सवाल किए। लेकिन इस एक मुद्दे पर सरकार अपना फैसला बदलने को तैयार नहीं हुई। लेकिन इस बार अपनों ने ही सरकार को आईना दिखाया है। भाजपा के ही वरिष्ठ नेता और अटल सरकार में पेट्रोलियम मंत्री रहे राम नाइक ने सरकार को सलाह और समझाइश दी है कि सरकार पेट्रोल, डीजल और गैस पर टैक्स कम करे। नाइक ने अपने बयान के हक में गोवा सरकार की मिसाल भी पेश की है। नाईक ने ये मंजूर भी किया है कि इससे सरकार की आमदनी कम हो जाएगी लेकिन ये भी जोड़ा है कि इस फैसले से बाकी कई फायदे भी होंगे। राम नाइक के इस बयान के विस्तार में जाइए, तो वाकई सियासी तौर पर भाजपा के लिए फायदे कई हैं। जनता को मंहगाई से जो राहत मिलेगी, सीधे आम आदमी मिलने वाले उस फायदे को दरकिनार कर भी दीजिए तो इस फैसला का लाभ भाजपा को डेढ साल बाद होने वाले चुनाव में मिलेगा। ये तय है। लेकिन भाजपा इसे दूर की कौड़ी मान के अब तक कोई फैसला नहीं ले पा रही है। उम्मीद की जाए कि और किसी की नहीं तो  राम नाइक की सलाह पर तो सरकार कान देगी। देना भी चाहिए क्योंकि सलाह किसी दूसरे खेमें से नहीं आई। परिवार की तरह चलने वाली पार्टी के वरिष्ठ ने दी है ये सलाह। गेंद अब भाजपा के पाले में है। पार्टी संगठन के पाले में और सरकार के पाले में। राम नाइक के इस बयान के बाद क्या होता है ये देखने वाली बात होगी। क्या संगठन सरकार को राम नाइक की सलाह पर गौर करने के लिए कहेगा। और सरकार संगठन की सलाह को सिर माथे लेगी भी कि नहीं। इससे ये सच भी सामने आ जाएगा कि अब तक भाजपा संगठन और सरकार में तालमेल के जो दावे किए जाते रहे हैं, हकीकत की जमीन पर वो कहां है। ये सरकार के लिए खुद को दुरुस्त करने का ये पहला मौका नहीं होगा। पहले भी शक्कर बिजली और कपड़ों पर टैक्स बढाने के बाद सरकार अपना फैसला वापिस ले चुकी है। और सरकार के इस फैसले का व्यापारियों ने ही नहीं जनता ने भी दिल खोलकर स्वागत किया था। अबकि पार्टी के अपने दिग्गज नेता की बदौलत सही मध्यप्रदेश में भाजपा को फिर अपनी भूल सुधार का मौका मिला है। यूं भी सरकार की ब्रांडिग के लिए बेटी बचाओ जैसे अभियान में करोड़ों खर्च कर देने वाली सरकार को अब समझ लेना चाहिए कि हंसते खिलखिलाते होर्डिंग देखकर जनता नहीं मानती कि प्रदेश खुशहाल है और तरक्की की राह पर बढ रहा है। वो तो खुद अपनी तरक्की और खुशहाली को पैमाना रखकर सब आंकती है। शब्द भले गलत लगे लेकिन सरकार को समझना चाहिए कि ये चोट का सही मौका है। डीजल पेट्रोल और रसोई गैस के टैक्सों में राहत देकर सरकार अपनी इस चोट को आने वाले विधानसभा चुनाव में वोट में बदल सकती है। इस बार तो घर के सदस्य ने ही आइना दिखाया है, उम्मीद कीजिए कि असर जरुर होगा।  तब तक चाहें तो मंहगाई पर विलाप जारी रखते हैं।

जनभावनाओं के लिए



पूरा एक महीना लगा। लंबी जद्दोजहद के बाद हुआ फैसला। लेकिन इस प्रदेश के आम आदमी के लिए मिठास मंहगी होते होते बच गई। आम आदमी को एक तसल्ली और मिल गई कि बिजली का बिल भी उसे नया झटका नहीं देगा। और तन ढंकने के दो जोड़ी कपड़े रेट युक्त तो होंगे पर वैट से अब पूरी तरह मुक्त होंगे। अब इस फैसले की तह में आते हैं,एक महीने बाद सरकार के पाले से आई ये राहत की खबर केवल जनभावनाओं का आदर हो तो ऐसा नहीं है। ये उससे भी कुछ ज्यादा है। महीने भर अपना कारोबार बंद रखने वाले कारोबारियों का दबाव तो सरकार पर था ही, इस एक महीने में, लगता है सरकार ने साल डेढ साल बाद होने वाले विधानसभा चुनाव के नतीजों को भी भांप लिया था जैसा। ये जान लिया था कि अभी भले व्यापारियों की तरह इस सूबे की जनता सड़क पर नहीं आई है। लेकिन जनता जवाब तो देगी, और चुनाव के वक्त मिला एक मुश्त जवाब, मध्यप्रदेश में तीसरी बार सरकार बनाने के, भाजपा के सपने को संकट में ला देगा। इस सोच के साथ, अगर सरकार के फैसले को देखें तो सरकार ने वैट वापिस लेकर इस प्रदेश की जनता पर कतई अहसान नहीं किया है। बल्कि वक्त रहते अपनी बड़ी भूल को सुधारा है। लेकिन सुधार की गुंजाइश तो अभी और भी है, पेट्रोल डीजल और रसोई गैस पर भी देश के दूसरे राज्यों के मुकाबले में मध्यप्रदेश में वैट कर बहुत ज्यादा है। सरकार को चाहिए कि यहां भ जो चूक हुई है चुनाव के पहले उसे सुधार लिया जाए। अब सरकार से सीधे जनता पर आते हैं, पहले कारोबारियों पर। इस बार कारोबारियों ने, इस प्रदेश के व्यापारियों ने अपने तेवर दिखा दिए थे। व्यापारियों ने अपने नुकसान की भी बहुत परवाह नहीं की। सराफा कई दिनों तक बंद रहा। बंद का असर भी हुआ। सरकार पर बड़ा दबाव तो व्यापारियों का ही था। सरकार के वैट वापिस लेने के फैसले के बाद रंग गुलाल के दिनों में व्यापारियों ने पटाखों के साथ दीवाली मनाई। अब उस आम आदमी पर आइए, जिसके महीने भर के सौदे का अहम हिस्सा होती है शकर। और घर के बजट का बड़ा भाग बिजली लील जाती है। वैट वापिस हो जाने के बाद इस आम आदमी को कुछ राहत भले मिली हो लेकिन आम आदमी नाराज तो अब भी है। नाराजगी की वजह भी है, सरकार विकास के नाम पर तमाम टैक्सों के जरिए पैसा तो आम आदमी की जेब से वसूलती है। लेकिन यही पैसा है जो विकास कार्यो पर खर्च होने के बजाए पटवारियों,जेल अधीक्षकों और आईएएस अफसरों की तिजोरियों से निकलता है रिश्वत बनकर। आम आदमी की गाढ़ी कमाई काली कमाई हो जाती है। भ्रष्टाचार के मामले तो अब प्रदेश में हर दिन का तमाशा बन रहे है। टैक्सों के नाम पर अपनी जेब कटा रहा आम आदमी ये तमाशे रोज देख रहा है। तो सरकार जब जनभावनाओं का आदर करना सीख ही गई है तो इतना और करे कि पहले तो इस बात की चिंता हो कि सूबे की तरक्की के लिए जो पैसा करों के नाम पर आम आदमी की जेब से वसूला जाता है, वो विकास के कामों में ही लगे, उससे किसी सरकारी अफसर की तिजोरी ना भरी जाए। दूसरा, जब गल्ती सुधारने पर आ ही गए हैं तो वित्त मंत्री जी लगे हाथ रसोई गैस, डीजल और पेट्रोल पर भी वैट कम कर दे। आखिर जनभावनाओं का ख्याल भी तो रखना है। 

श्री श्री.., हम सब सरकारी स्कूल के हैं...


प्राइवेट स्कूल बेहतर या सरकारी पाठशाला। लंबे समय से चल रही इस बहस में बीसियों बार प्राइवेट स्कूल जीतते आए हैं। लेकिन ये पहली बार है जब सरकारी स्कूलों में पढी पौध जो यकीनन अब पेड़ बन चुकी है,खुलकर सरकारी स्कूलों के हक में सामने आ गई है। बावजूद इसके कि इस पीढी के अपने बच्चे श्री श्री रविशंकर का तमगा मिलने के काफी पहले से, मंहगे प्राइवेट स्कूलों में पढ रहे हैं। ये सबकुछ श्री श्री रविशंकर का कमाल है। ये लोगों को जीने की कला सिखाने वाले संत के उस बयान का असर है जिसमें उन्होने सरकारी स्कूलों को, नक्सली और हिंसक बच्चों की खान बता दिया और यहां तक कहा कि देश में सारे सरकारी स्कूल बंद कर देने चाहिए। केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल ने तो खैर खुद ही बता दिया कि वो सरकारी स्कूल में पढे हैं। लेकिन मौजूदा पीढी को छोड़कर, सिब्बल ही नहीं, उनके बाद और उनके पहले की कई पीढियां हैं,सरकारी स्कूल की टाटपट्टियों पर ही जिन्होने जीवन का ककहरा सीखा और आज ऊंचे ओहदों पर बैठकर अपने समाज और देश का नाम रोशन कर रही हैं। ये उस वक्त की बात है जब श्री श्री रविशंकर के आर्ट आॅफ लिविंग की शुरुवात भी नहीं हुई होगी। आर्ट आॅफ लिविंग को शुरु हुए अभी कुल जमा तीस साल हुए हैं। लेकिन हिंदुस्तान में सरकारी स्कूल तो आजादी के पहले से हैं। इन्ही सरकारी स्कूलों में महादेवी वर्मा पढीं। इन्ही सरकारी स्कूलों से लालबहादुर शास्त्री ने तालीम ली और इन्ही सरकारी स्कूलों में रविशंकर की तरह ही लोगों को आध्यात्म से जीने का कला सिखाने वाले रजनीश ने जीवन का पहला सबक सीखा। नक्सलियों का तो खैर पता नहीं, लेकिन सरकारी स्कूल से निकले जाने कितने लोग हैं। जो कहीं राजनीति में है तो सरकार चला रहे है। कहीं फौज में हैं तो देश का मान बढा रहे है। कहीं डॉक्टर बनकर सरकारी अस्पतालों में लोगों का इलाज कर रहे है। चलिए रविशंकर जी के कहे मुताबिक उस पीढी को भी छोड़ देते हैं, हांलाकि खुद उन्होने भी बाद में अपने बयान से पलटते हुए ये मंजूर किया कि सरकारी स्कूलों से कई ज्ञानवान लोग निकले हैं। अब हम आज की बात पर आते हैं। रविशंकर की दलील है कि सरकारी स्कूलों में आदर्शो की कमी हैं, यहां से निकले बच्चे हिंसक और नक्सली हो जाते हैं, इसलिए इन स्कूलों को बंद कर देना चाहिए। पर रविशंकर जी, सरकारी स्कूलों की वजह से देश में नक्सलवाद नहीं बढ रहा। नक्सलवाद की सबसे बढी वजह ही तो अशिक्षा है। और सरकारी स्कूलों की दम पर ही नक्सली इलाकों की अशिक्षा से निपटा जा सकता है, और निपटा जा रही है। अब प्राइवेट संस्थाएं तो मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ, झारखंड और उड़ीसा के नक्सलप्रभावित सुदूर इलाकों में स्कूल खोलने से रहीं। यहां तो सिर्फ सरकारी स्कूल ही खुल सकते हैं ना। रविशंकर जी, आपकी जानकारी में होना चाहिए कि देश में साक्षरता की दर इन्ही सरकारी स्कूलों के भरोसे बढ रही है। चंद हजार रुपयों की पगार में, मीलों पैदल चलकर दूरदराज के गांव में बच्चों को तालीम देने वाले संविदा शिक्षक के पढाए बच्चों में से अल्बर्ट आइंस्टीन बनने की उम्मीद कोई नहीं करता। लेकिन इतनी तसल्ली रखिए जो शिक्षक खुद अपने पेट और पगार की लड़ाई के लिए धरने प्रदर्शन, भूखहड़ताल जैसे अहिंसक आंदोलन करता है, वो अपने पढाए बच्चों को कतई हिंसा के रास्ते पर नहीं जाने दे सकता। दुनिया को आर्ट आॅफ लिविंग सिखाने वाले आप जैसे संत भी टीचर ही हैंं। आपकी जुबान भरोसे की जुबान होती है, इसलिए आगे इस जुबान का भरोसा कायम रखिए। ऐसा कहिए जो मंजूर करने काबिल हो। .आधे से ज्यादा देश आपके बयान के बाद कह रहा है.., हम सब भी सरकारी स्कूल में ही पढे हैं...श्री श्री रविशंकर।

एक दिन महिला के नाम का



महिला दिवस। एक दिन महिला के नाम का। लेकिन दिन छोड़िए। महिला को दिन के किसी हिस्से से भी अलग करना मुश्किल है। पलटकर देखिए तो सही। वो जहां है। जिस शक्ल में है,खुद को झौंककर अपनी दुनिया  मुकम्मल कर रही है। फिर वो घर की चाहरदीवारी हो या दुनियादारी। सुबह से शुरु कीजिए, मां की आवाज के अलार्म से ही तो होती है हर घर में सुबह। दफ्तर में खुलने वाला दोपहर का टिफिन बीवी की फिक्र है कि आप भूखे ना रहें। बहन के प्यार में बुने स्वेटर के सहारे गुजर जाते हैं जाने कितने भाईयों के जाड़े। ये औरत का एक मोर्चा है। एक फ्रंट,जहां जन्म के साथ उसे मिल जाती है जिम्मेदारियां। जो उसे निभानी हैं, फिर चाहे जैसे हो। लेकिन औरत का दिन इन जवाबदारियों पर आकर ही खत्म नहीं हो जाता। अभी दिन का दूसरा हिस्सा तो बाकी है। जहां इन सारी भूमिकाओं से अलग वो खुद अपने मन की नायिका बन रही होती है। वो मोर्चा जहां वो खुद को जिंदा रखती है। दिन का वो हिस्सा है जहां लिखती है वो खुद अपनी कामयाबी की कहानी। इंदिरा गांधी, कल्पना चावला, इंदिरा नूई, मदर टेरेसा,किरन बेदी, खुद को भूलकर एक मुकाम के लिए जुट जाने वाली इन कामयाब महिलाओं के किस्से छोड़ दीजिए। यहां बात उन औरतों की है। जिनका संघर्ष। जिनकी कामयाबी कहीं चीन्ही नहीं जाती। कहीं किसी किताब में दर्ज नहीं है इनकी मुश्किल जिंदगी के किस्से। अलस्सुबह शुरु हो जाती है आम कही जाने वाली इस औरत की मैराथन। दिन के हर हिस्से में वो नई शक्ल लिए होती है। सुबह फिक्रमंद मां की तरह बच्चों को तैयार करके स्कूल भेजती है। जिम्मेदार बीवी की तरह घर और दफ्तर की उलझनों में पति का साथ निभाती है। और फिर घर की देहरी से निकलकर उस दुनिया में आ जाती है। जहां उसे रोज खुद को साबित करना है। कहीं बैंक मैनेजर, कहीं अफसर। कहीं डॉक्टर कहीं इंजीनियर। कहीं सरकारी दफ्तर में बाबू तो कहीं कुछ और। घर के साथ बाहर की इस दुनिया में भी उसकी काबिलियत का रोज नया इम्तेहान होता है। औरत है। कमजोर है। सहानुभूति की हकदार है। सनातन काल से चले आ रहे महिलाओं को लेकर ये जुमले उसे मजबूत बनाते हैं। घर और बाहर, दो रस्सियों पर एक साथ दौड़ रही इस औरत को महिला होने का कोई प्रीविलेज मिलता हो ऐसा भी नहीं है। कोई रियायत, कोई प्रोत्साहन उसे चाहिए भी नहीं। वो नहीं चाहती कि इस सबके बदले उसे, पेट्रोल पंप पर आगे आ जाने का आप मौका दे दें। बस में सीट खाली कर दें। इसका मतलब ये भी नहीं कि महिला ने पुरुषों से मोर्चा ले लिया है। महिलाएं पुरुषों को पीछे छोड़ रही हैं,ऐसे किसी मुकाबले में भी खुद को नहीं रखना चाहती है औरत। क्योंकि उसका संघर्ष तो खुद से है। कहां से शुरु होना है और कहां पहुंचना है,  अपने लिए, उसने खुद खींची है अपनी लकीरें। कोई जरुरी नहीं कि किसी खास दिन आप, संगोष्ठियों में, परिचर्चाओं में महिला का गौरव गान सुनाएं। कोई जरुरी नहीं कि उसे कविताओं में बांधे, उस पर सहानुभूति जताएं। बस इतना कीजिए इस बार। कि उसे उसके होने का हक दे दीजिए। कि अपने फैसले वो खुद ले सके। उसे उसका आसमान, उसकी जमीन दे दीजिए। तुम नहीं कर पाओगी, क्योंकि तुम औरत हो। ये जेहन से निकाल दीजिए हमेशा के लिए। तब शायद महिलाओं के लिए किसी दिवस की जरुरत भी नहीं होगी। जो दिन के हर हिस्से में अपने मुकम्मल रुप में मौजूद है उसे किसी दिन की जरुरत है भी कहां।

ढूंढ निकालें,अपने अपने कैलाश जोशी



हिन्दुस्तान की राजनीति उस दौर में है, जब किसी भी नेता के साथ करोड़ों के घोटाले उनकी, काबिलियत के तौर पर जुड़े रहते हैं। अरबों के घोटाले में नेता तिहाड़ जाते हैं और बरी हो जाते हैं। राजनीति चलती रहती है। घोटालों से बदनाम भी होते है
 नेता तो कुछ महीनों बाद फिर किसी पद के साथ कहीं प्रतिष्ठा पा जाते हैं। पार्टी कोई हो, ये कहानी नहीं बदलती। छंटनी करने बैठेंगे तो बेदाग नेता अलग कर पाना मुश्किल हो जाएगा। एक ऐसे वक्त में,जब राजनीति और राजनेता भरोसे के काबिल नहीं रहे। ऐसे वक्त में जब नेताओं के लिए सर्वमान्य उक्ति बन गई कि नेताजी कमाई में कभी पीछे नहीं रहते। ऐसे वक्त में, मध्यप्रदेश भाजपा ने अपनी पार्टी के एक ऐसे नेता का सम्मान किया है। पचास साल लंबी राजनीतिक यात्रा में जिसने ठोकर जरुर खाई लेकिन राजनीति की रपटीली राहों पर कभी अपने पैरों को फिसलने नहीं दिया। इस नेता की काबिलियत उसका संघर्ष, समर्पण और सादगी में बीता जीवन है। राजनीति के संत की उपाधि पा लेने वाले कैलाश जोशी जैसे नेता अब कहां देखने को मिलते हैं। शायद इसीलिए भाजपा ने कैलाश जोशी का सम्मान किया। उनकी पचास साल की बेदाग संसदीय यात्रा का मान किया। लेकिन ये अभिनंदन केवल कैलाश जोशी का नहीं है। ये सम्मान है उस संघर्ष का उस सच्चाई का उन मूल्यों का, जिनके साथ चलते जोशी सियासत की रफ्तार में, समाज के तामझाम में भले पीछे छूटे दिखाई देते हों। लेकिन आज वो उस मुकाम पर जा खड़े हुए हैंं, जहां अब उनके आगे पीछे कोई कतार नहीं है। कैलाश जोशी का सम्मान, उम्मीद बंधाता है, राजनीति से घबराए उस नौजवान को, कि बिना दागदार हुए भी राजनीति की जा सकती है। कि लड़खड़ाए बिना भी तय किए जा सकते हैं सियासत के मुश्किल रास्ते। आज की राजनीति में भला,कहां हैं ऐसे नजारे की कोई समाजवादी नेता, ठेठ जनसंघी नेता की अच्छाईयां गिनाता दिखाई दे। जीते जी तो कम से कम किसी नेता को ये सौभाग्य नहीं मिलता। एक दूसरे को अपने बयानों से नीचा दिखाने वाली, एक दूसरे के खिलाफ सीडी और पर्चे बंटवाने वाली आज की राजनीति में कोई नेता दूसरे दल के नेता के सम्मान में लिखे, ये भी कहां होता है। लेकिन कैलाश जोशी के अभिनंदन ग्रंथ में उनके नाम दो पन्ने पूर्व मुख्यमंत्री दिग्वजय सिंह ने भी लिख्खे हैं।  ये पहली बार हुआ कि भाजपा की हर करवट पर बयान देने वाली कांग्रेस ने, कैलाश जोशी के भारी तामझाम के साथ हुए अभिनंदन समारोह और शहर भर में लगे उनके होर्डिंग््स पर कोई सवाल नहीं उठाए। ये संकेत हैं, कि कितने नीचे आ गया हो राजनीति का ग्राफ लेकिन कुछ नैतिकता तो अब भी बाकी है। आयोजन भले भाजपा ने किया हो। लेकिन इस स्वस्थ परंपरा को हर राजनीतिक दल को अपनाना चाहिए। ऐसा नहीं कि कांग्रेस, जनता दल, और बहुजन समाज पार्टी में कैलाश जोशी मार्का नेता नहीं होंगे। होंगे तो लेकिन वो अब तक चीन्हे नहीं गए। जितने लोग उन्हे जानते बूझते होंगे उनके किस्सों में भले वो तारीफें पा जाते हों। लेकिन अब तक सार्वजनिक मंचों पर ये नेता कभी सराहे नहीं गए। कोशिश होनी चाहिए कि हर दल अपनी अपनी पार्टी के कैलाश जोशियों को ढूंढ निकाले, उनका सार्वजनिक अभिनंदन करे। राजनीति में लोगों का यकीन लौटा लाने जरुरी है ये। राजनीतिक दल ही क्यों, समाज से भी शुरुवात हो। ढूंढ निकाले अपने अपने बीच के हीरो। ताकि लोगों का पक्का होता जा रहा ये यकीन टूट जाए कि मेहनत,ईमानदारी और सच्चाई का, कभी कोई सिला नहीं मिलता।

सहकारिता की सियासत


भाजपा सरकार की रहनुमाई में भोपाल में हुआ अन्तर्राष्ट्रीय सहकारिता सम्मेलन। पहली नजर में,ये एक लाइन की खबर से ज्यादा कुछ नहंीं लगती। लेकिन गौर कीजिए तो ये मध्यप्रदेश में होने जा रहे बड़े बदलाव का संकेत है। ये संकेत है कि मध्यप्रदेश में, सहकारिता अब कांग्रेस के हाथों से छूट रही है। ये संकेत है कि सहकारिता आंदोलनों से जिसका कभी दूर दूर तक नाता नहीं रही,वो पार्टी भाजपा अब सहकारिता के सहारे मध्यप्रदेश में तीसरी पारी को मजबूत कर रही है। इस सूबे का इतिहास बताता है कि अब तक मध्यप्रदेश में कांग्रेस ही सहकारिता का सियासी इस्तेमाल करती आई थी। कांग्रेस ही वो पार्टी थी जिसने इस प्रदेश में कई सहकारिता आंदोलन खड़े किए। एक ऐसी पार्टी जिसमें सहकारिता के दम पर ही कई सारे नेताओं की सियासत शुरु हुई और चलती रही। सुभाष यादव, महेन्द्र सिंह कालूखेड़ा, गोविंद सिंह, कांग्रेस में ऐसे नेताओं की लंबी फेहरिस्त है, सहकारिता ने ही जिन्हे राजनीति में फलने फूलने का मौका दिया। लेकिन सत्ता से बेदखल होने के बाद कांग्रेस सहकारिता से दूर हो गई। उस आंदोलन से दूर हो गई कांग्रेस की जड़ें मजबूत करने में जिस आंदोलन ने बड़ी भूमिका निभाई थी। सहकारिता के नाम से पहचाने जाने वाले सुभाष यादव जैसे नेता अब पार्टी में रिटायरमेंट की स्थिति में पहुंच रहे हैं। एक वक्त था जब भाजपा में सहकारिता पर कोई बात नहीं थी। सहकारिता के दम पर खड़े नेताओं की फौज भी नहीं। लेकिन आठ साल सरकार में रहने के बाद भाजपा भी सत्ता में रहने के टोटके जान गई है। सबको साधने के तरीके सीख गई है। पार्टी कोई मौका, कोई मोर्चा नहीं छोड़ रही। सहकारिता प्रकोष्ठ तो पार्टी में बहुत पहले से है। लेकिन अब भाजपा सहकारिता को अपने सिध्दातों से भी जोड़ रही है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को दीनदयाल उपाध्याय का एकात्म मानववाद सहकारिता का ही दर्शन दिखाई देता है। मध्यप्रदेश में भाजपा ने अब उस सहकारिता में अपनी जड़ें जमानी करनी शुरु कर दी है। जिसका इतिहास आजादी से भी पहले का है। देश को आर्थिक रुप से मजबूत बनाने में, बोरोजगारी दूर करने में सहकारिता सम्मेलनों की अहम भूमिका रही है। इस वक्त भी देश में करीब पांच लाख से भी अधिक सहकारी समितियां काम कर रही हैं। जिनके जरिए करोड़ों लोगो को रोजगार मिल रहा है। इनमें, खेती, फर्टिलाइजर और मिल्क प्रोडक्शन जैसे खास क्षेत्र हैं जहां सहकारी समितियां सक्रीयता से काम कर रही हैं। अमूल के रुप में, देश का सबसे बड़ा कॉ आॅपरेटिव्ह मूवमेंट हम सबके सामने है। जाहिर है इन सहकारी समितियों का सियासी इस्तेमाल भी देश में होता रहा है और आगे भी होता रहेगा। खैर,वापिस मध्यप्रदेश पर आते हैं। मध्यप्रदेश में विधानसभा चुनाव में अब जबकि बमुश्किल दो साल का वक्त बचा है।   बिल्कुल ठीक वक्त पर शिवराज सरकार ने,सहकारिता पर भी दांव खेल दिया है। पार्टी जानती है कि सहकारिता के सहारे सहकारी समितियां और फिर उनके हजारो सदस्यों का समर्थन चुनाव में भाजपा की तकदीर बदल सकता है। कांग्रेस की पूछिए मत। कांग्रेस में तो सहकारिता आंदोलन ही नहीं।सहकारिता से जुड़े नेता भी फिलहाल लुप्तप्राय हैं।

अब तो फार्म में आओ कांग्रेसियों



परीक्षा के बहुत पहले इम्तेहान के लिए तैयार हो जाने वाले छात्र की तरह भाजपा ने चुनाव के दो साल पहले ही चुनावी तैयारी शुरु कर दी है। अर्से बाद फिर हुआ ये प्रयोग कि नेता पांच साल के पहले भी जनता का दर्द पूछने उसके दरवाजे पर जाएं। भाजपा की विकास यात्रा कुछ इसी तरह का प्रोग्राम है। जिस तरह से भाजपा संगठन और सरकार ने इस पूरी यात्रा की प्लानिंग की है। खाका खींचा। जिस तरह से मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान इस यात्रा के साथ जनता के बीच जा रहे हैं और उनकी आत्मीयता पा रहे हैं। ये सारी तस्वीरें कहती हैं कि यात्रा अगले विधानसभा चुनाव में ये यात्रा असर दिखाएगी, और भाजपा के नंबर बढाएगी। चलिए, यात्रा से सियासी दलों को होने वाले नफे नुकसान को भी छोड़ दें, तो इतना तो मानेंगे आप भी कि इस यात्रा ने मौसम की तरह न्यूनतम तापमान को छू रही इस प्रदेश की राजनीति का पारा तो बढा ही दिया है। कम से कम विरोध ही दर्ज कर दें वाले,अंदाज में कांग्रेस सवाल उठा रही है कि ये यात्रा आखिर है किसकी ? संगठन की है य फिर सरकार की ?  कांग्रेस धरने दे रही है। ज्ञापन सौंप रही है। लेकिन भाजपा इस सबसे बेपरवाह अपने काम में जुटी है। जिनके कंधों पर ये पार्टी खड़ी है उस कार्यकर्ता से लेकर प्रदेशाध्यक्ष प्रभात झा तक और सरकार के विधायक से लेकर मुख्यमंत्री तक, भाजपा की तीसरी पारी का मंत्र लिए विकास यात्रा पर निकल पड़े हैं। सरकार के सिपहसालार खूबियां गिना रहे है,संगठन खामियां भी पूछ रहा है। लेकिन इस तालमेल का सार यही है कि जनता को ये भरोसा हो जाए कि भाजपा की सरकार ही है जो हर कदम पर इस सूबे के आम आदमी के साथ खड़ी है। भाजपा जनता के बीच गई तो ये जानने है कि आठ साल बाद पार्टी और उसकी सरकार कितने पानी में है। लेकिन भाजपा के लिए तसल्ली की बात है कि फिलहाल जनता ने आईना नहीं दिखाया। जनता का शुरुवाती रुझान ये कहता है कि शिकायतें तो हैं लेकिन जनता में सरकार के खिलाफ गुस्सा नही है। उधर कांग्रेस विकास यात्रा का विरोध भ्रष्टाचार के आरोपों से कर रही है। इन आरोपों में जनता कहीं नहीं है। असल में होना ये चाहिए था कि जिस तरह से भाजपा दांए बांए देखे बगैर नाक की सीध में हर महीने नए कार्यक्रम के साथ आगे बढ रही है। कांग्रेस को भी चाहिए था कि वो एक कुशल विपक्ष की तरह केवल बयानों में अपनी मौजूदगी  दर्ज कराने के बजाए, अपना मौलिक आंदोलन खड़ा करती। विरोध दर्ज कराती । अब भी कांग्रेस को चाहिए कि वो शिवराज की ब्रांडिग को कोसने के बजाए उनके इमोशनल मैनेजमेंट में सेंध लगाए। जनता की शिकायतों को गुस्से में बदले और फिर चाहे जितने धरने करे। ज्ञापन सौंपे। नारे लगाए। जब जनता कांग्रेस के साए में खड़े होकर अपना दर्द सुनाएगी, तो वाकई महसूस होगा कि विकास यात्रा भाजपा सरकार और संगठन का कोरा पब्लिसिटी स्टंट है। जब तक कांग्रेसी इस फार्म में नहीं आते तब तक भाजपा का हर फार्मूला कामयाब है,और पांव पांव वाले भैय्या के जनता को लुभाने वाले सारे टोटके असरदार।

कसरत का धर्म तो तंदरुस्ती है



मध्यप्रदेश में सूर्य नमस्कार पर फिर शुरु हुई सियासत। मध्यप्रदेश में ये लगातार पांचवा साल है,जब सरकार के स्कूली बच्चों को योग कराने के फैसले पर पहले सियासत हुई है फिर हुआ है सूर्य नमस्कार। लेकिन सूर्य नमस्कार की तह में जाइए। गुगल पर विकीपीडिया में इस शब्द का अर्थ तलाशेंगे, तो पाएंगे कि सूर्य नमस्कार किसी धर्म विशेष की पूजा नहीं। योग आसनों में सर्वश्रेष्ठ आसन है, एक अकेला ऐसा अभ्यास जिसे करने के बाद आप पूरी योग क्रियाओं का लाभ ले सकते हैं, और शरीर को स्वस्थ रख सकते हैं। और ये हम सब जानते हैं कि कसरत का एक ही धर्म होता है शरीर को स्वस्थ रखना। वो हिंदु मुस्लिम का भेद नहीं करती। हिंदु कसरत करेगा तो स्वस्थ रहेगा मुस्लिम करेगा तो वो भी तंदरुस्त हो जाएगा। खैर विकीपीडिया में सूर्य नमस्कार को समझने के जेहमत कोई नहीं उठाता और हर साल यही होता है कि विवेकानंद की जयंती के एन पहले सूर्य नमस्कार पर भगवा रंग चढा कर उसकी खिलाफत शुरु हो जाती है। विपक्षी दलों को इस योगाभ्यास की आड़ में सत्ता में बैठी पार्टी को कोसने का मौका मिल जाता है। कांग्रेसी कहते हैं कि सूर्य नमस्कार के जरिए भाजपा प्रदेश के स्कूली बच्चों को भी भगवा ब्रिगेड में खड़ा करने की तैयारी कर रही है। मीडिया के लिए भी हर साल 12 जनवरी के पहले और बाद में सूर्यनमस्कार के साथ नई खबर पक जाती है। इस बार भी खबर बनी, सरकार की तरफ से ये कि इस बार पचास लाख छात्रों के एक साथ सूर्य नमस्कार के साथ रिकार्ड बनेगा, और खिलाफत में ये कि सूर्य नमस्कार के खिलाफ भोपाल में शहर काजी ने फतवा भी जारी कर दिया है। किसी भी मजहब के पूजा आराधना के तरीके पर कोई टिप्पणी नहीं की जा सकती। उस पर कोई टिप्पणी और सवाल होने भी नहीं चाहिए।  ये सही है कि इस्लाम में मूर्ति पूजा नहीं होती। इस लिहाज से सूर्य नमस्कार को जिस तरह से प्रस्तुत किया गया उसका विरोध भी जायज सा लगता है। सरकार ने किसी भी विवाद से बचने के लिए ये कहा भी है कि सूर्य नमस्कार में स्वेच्छा से छात्र हिस्सा ले सकते हैं,सूर्य नमस्कार करने को लेकर किसी तरह की बाध्यता नहीं है। लेकिन मुश्किल यही है कि सूर्य नमस्कार को एक योगासन की तरह स्वीकार किया ही नहीं गया। योग शुरु होता उसके पहले खड़े हो गए सवाल,और इतने सालों में इस बात की कोशिश कहीं से नहीं हुई कि सूर्य नमस्कार को लेकर जो भ्रम, जो गलतफहमी लोगों में है उसे दूर किया जाए। उन्हे समझाया जाए कि सूर्य नमस्कार सूर्य की आराधना पूजा, इबादत नहीं है। ये आसन है। योगाभ्यास है। और फिर दलील ये भी है कि किसी धर्म विशेष के ही लोग भले सूर्य को देवता माने लेकिन इस पृथ्वी पर रहने वाले हर इंसान को इतना तो मंजूर करना ही होगा कि सूरज सबका है। सबको बराबर रोशनी देता है। वो तो मजहब नहीं देखता। धर्म देखकर रोशनी में फर्क नहीं करता। सूर्य नमस्कार कतई मत कीजिए। लेकिन योग करने में कोई बुराई नहीं, सूर्य नमस्कार इस नाम पर मतभेद हो सकते हैं, लेकिन योगासन पर कोई सवाल खड़ा करना बेमानी है। इस योग के दम पर तो भारत पूरी दुनिया का गुरु कहलाता आया है। तो गिनीज बुक आॅफ वर्ल्ड रिकार्ड में नाम दर्ज कराने के लिए नहीं। भगवा सरकार का भगवा फैसला मानकर नहीं। केवल अपने शरीर को स्वस्थ रखने के लिए आप अलस्सुबह योग कीजिए। यकीन मानिए सियासत होती रहे, लेकिन इससे आप स्वस्थ रहेंगे ये गारंटी है।

ये लक्षण अच्छे हैं..



 दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र होने का गुरुर तो हमेशा से था । लेकिन आजादी के 64 साल बाद जाकर कहीं ये देश उस लोकतंत्र को महसूस कर पाया है। महाराष्ट्र के एक छोटे से गांव के बुजुर्ग अन्ना हजारे के साथ देश भर के हजारों नौजवानों का रामलीला मैदान में एकजुट होना, लोकतंत्र की आहट भर थी। लेकिन लोकपाल की स्थाई समिति की रिपोर्ट के खिलाफ अन्ना के साथ अनशन पर बैठे भाजपाई,कम्यूनिस्ट, अकाली, जनतादल यू और समाजवादी नेताओं की तस्वीर कहती है कि लोकतंत्र अब मजबूत हो चला है। ये तस्वीर कहती है कि जनता की आवाज इस देश में अब बेअसर नहीं होगी। ये सही है कि मजबूत लोकपाल पर अन्ना हजारे और सरकार की लड़ाई जारी है अभी। सरकार झुकी नहीं है अब तक। लेकिन इस देश के भाग्यविधाता नेताओं का अन्ना के साथ आना भी कम बात नहीं। विपक्षी दलों ने इस तरह जनता के सामने आकर जिन मुद्दों पर मंजूरी दी है, जिन्हे सही ठहराया है,जाहिर है संसद में अब ये दल पल्टी नहीं खा सकते। अन्ना हजारे के साथ देश के हजारों लाखों लोगों की आवाज ही तो थी जो इन नेताओं को संसद से सड़क तक खींच ले लाई। ऐसा लगता है कि जैसे लोकपाल के एक मुद्दे ने इस देश को रिएक्टिव होना सिखा दिया। अब देश की जनता चुपचाप संसद में प्रस्ताव पारित कर थोप दिए गए किसी सरकार के फैसले को यूं ही मंजूर नहीं कर लेती। एफडीआई की बात ले लीजिए। विदेशी किराने पर जिस तरह से सड़कों पर उतरकर जनता के विरोध प्रदर्शन हुए, जिस तरह से व्यापारियों कारोबारियों ने अपना एतराज दर्ज कराया। विदेशी किराने के खिलाफ बुलंद होती, ये जनता की ही तो आवाज थी जिसकी नामंजूरी के बाद सरकार को अपने बढे हुए कदम वापिस खिंचने पड़े और एफडीआई पर अपना फैसला ठंडे बस्ते में डालना पड़ा। ये लक्षण भी लोकतंत्र की मजबूती के ही हैं। ये देश अब प्रतिक्रिया देना सीख रहा है। सरकारों को सिखा रहा है, कि चुनाव जिताकर भले भेज दिया हो लेकिन फैसले एकतरफा नहीं होंगे। जनता को सबकुछ बताना होगा। भौतिकी का सिध्दांत है क्रिया की प्रतिक्रिया। यहां भी वही सिध्दांत काम करता है।  ये नेताओं से उठता जनता का भरोसा है जो गुस्सा बनकर बाहर आता है। भरोसे के टूटने की वजह इतनी की गिनती नहीं। भोपाल में यूनियन कार्बाइड कारखाने को स्थापित करने की मंजूरी देते वक्त लापरवाही सरकार ने की, लेकिन सजा भोपाल के लोग आज तक भुगत रहे हैं। जनता उस वक्त जागरुक होती, तो शायद सरकार शहर की आबादी के बीच यूनियन कार्बाडड प्लांट को मंजूरी नहीं दे पाती। लेकिन गैस त्रासदी जैसे हादसे भोग लेने के बाद जनता भी चेत गई। सरकार की सरपरस्ती में बढते भ्रष्टाचार के बाद इस देश की जनता ने भी ये जान लिया कि नेताओं को चुनकर भेजना लोकतंत्र की प्रक्रिया का एक हिस्सा हो सकता है, पर इन नेताओं के भरोसे इस देश को नहीं छोड़ा जा सकता। नेता भरोसे के काबिल होते, तो लोकपाल के लिए जो आवाज सड़क से उठ रही है,वो संसद में सुनाई देनी चाहिए थी, पर अब नेता भी जान रहे हैं कि पांच साल में मूंहदिखाने और जीत जाने के मौसम बीत गए। अब तो जनता रोज जवाब मांगती है। वो भी ये जान गए हैं कि लोकतंत्र में केवल जनता है जो नेता बनाती है। बिना किसी पार्टी का सहारा लिया,नेता बने अन्ना हजारे बानगी हैं। टीवी पर चाय का एक विज्ञापन आता है देश उबल रहा है, फिर आएगा, जोश,दम,मिठास, बदलेगा देश का रंग। तो उबलने दीजिए देश को,लोकतंत्र की मजबूती के लिए ये जरुरी है

करोड़ों के बेईमान



भारत में भ्रष्टाचार की ठीक ठीक उम्र बता पाना तो मुश्किल है। लेकिन इस बात की कोई भी सौ फीसदी गारंटी ले लेगा कि इस वक्त करप्शन अपने सुनहरे दौर में है। मध्यप्रदेश में छै महीने के भीतर लोकायुक्त का दूसरा ऐसा छापा है, जहां लागू नहीं हुए लोकपाल के डी श्रेणी में आने वाले सरकार कारींदे के घर ने फिर खजाना उगला है। चंद लाख नहीं, करोड़ों का खजाना। ग्वालियर के अदने से कर्मचारी के बाद अब देश भर में उज्जैन के चपरासी के चर्चे हैं। करप्शन का कमाल देखिए दस हजार महीने की पगार पाने वाला कर्मचारी पांच करोड़ की संपत्ति का आसामी बन गया।  मुमकिन है कि संपत्ति का ये आंकड़ा दस करोड़ तक भी पहुंच जाए। उज्जैन नगर निगम के चपरासी नरेन्द्र देशमुख तस्दीक है इस बात की कि देश का ईमान जगाने, अनशन करने वाले, अन्ना की लड़ाई बेमानी नहीं है। भष्टाचार की जड़ें गहरी हो चुकी है, कितनी बार ही सुना और कहा गया ये जुमला भी सरकार के सबसे छोटे कहे जाने वाले इस कर्मचारी के घर से निकली काली कमाई के आंकड़ों के आगे बेमानी सा लगता है।  ईमान अब जैसे सिर्फ किस्सों में रहता है। या फिर नैतिक शिक्षा की किताबों में पाठ बनकर बच्चों को पढाने के काम आता है। वो भी तब तक जब तक कि ये बच्चे बेईमानी करने की उम्र में नहंीं पहुंच जाते। बेईमानी से जुड़ा एक दिलचस्प पहलू ये भी है कि भ्रष्टाचार की खरपतवार हर कहीं नहीं होती। उसके लिए सही जमीन बीज खाद मिलनी चाहिए। नगर निगम जैसे जनता से सीधे जुड़ाव रखने वाले विभाग भष्ट्राचार के लिए ऊपजाऊ धरती की तरह हैं। जितने बोएंगे उससे चौगुना पाएंगे। जनता की जरुरतों से सीधे जुड़े ये विभाग ऊपरी गारंटी की कमाई लिए होते हैं। याददाश्त पर अगर जोर डालें, देशमुख से पहले भोपाल नगर निगम के  पीआरओ के पास भी इसी तरह अकूत संपत्ति निकली थी, और सुर्खियों में आए थे हामिद अली। ं इन विभागों में काली कमाई के लेन देन की वजह तलाशनें जाएं तो एक तरफ सुविधा शुल्क देने की आदि जनता दिखाई देती है, तो दूसरी तरफ सरकारी सिस्टम और बाबूओं का ढीला रवैया। जिसमें तय वक्त में किसी काम का हो पाना नामुमकिन है ये तय मानिए। जरुरी सरकारी फाईलें भी महीनों में एक टेबल से दूसरे टेबल के मुकाम को तय करती है। रफ्तार बढाने इस फाईल में रिश्वत के पंख लगाने पड़ते हैं। फिर दिनों का काम फिर मिनिटों में हो जाता है। सरकारी नियम कायदों की रुकावटों को पार करते हुए, तय वक्त में अपना काम करवाने, कब सौ पचास रुपए से शुरु हुआ ये सिलसिला, आदत बन जाता है, पता ही नहीं चलता। देशमुख की पांच करोड़ की संपत्ति में जाने कितने ऐसे छोटी मोटी रिश्वतों के ऐसे पचास सौ के नोट होंगे। जो सरकारी फाईलों को रफ्तार देने उनके साथ लग कर आए होंगे, और इस चपरासी की जेब से होते हुए बैंक के खातों तक पहुंचे हैं। आज से पहले तक. जब भी लोकपाल पर बहस हुई,ये मंजूर किया जाता रहा कि पहले दूसरे दर्जे पर लगाम लगा दी जाए तो भ्रष्टाचार को ईलाज हो सकता है। पूरी बीमारी भले खत्म नहीं होगी लेकिन काबू में तो आ ही जाएगी। लेकिन जिस देश में नगर निगम का चपरासी काली कमाई की काबिलियत से  होटलों ,फैक्ट्रियों, फार्म हाउसों का मालिक बन रहा हो। वहां अब कैसे ये तय होगा कि सफाई ऊपर से शुरु की जाए या फिर नीचे से। कानून तो सजा दे सकता है, ईमान की गारंटी तो इंसान को खुद ही लेनी पड़ती है। जब तक ऐसा नहीं होता, तब तक, चंद हजार की पगार वाले चपरासी करोड़ों की काली कमाई के मालिक बनते रहेगे। आप और हम बस हैरान होकर देखते रहेंगे।

ये तरक्की के आठ साल हैं...





सरकार का प्रचार और प्रदर्शन करने वाले विभाग की जवाबदारी । लेकिन मिजाज इसके बिल्कुल उलट। इनकी गिनती शिवराज कैबिनेट के लो प्रोफाइल मिनिस्टर्स में होती है। पत्रकारों का ख्याल रखने वाले जनसंपर्क विभाग की जवाबदारी के चलते मीडिया भी उनसे फ्रेंडली है। लेकिन वो मीडिया फ्रेंडली कतई नहीं है। जो सुर्खियां बन जाएं, वो ऐसे कोई विवादित बयान नहीं देते। ऐसे कारनामें भी नहीं करते कि ब्रेकिंग खबर बनाई जा सके। सरकार के उन चुनिंदा मंत्रियों में शामिल है लक्ष्मीकांत शर्मा जो सरकार के भीतर भी बेवजह सवाल नहीं उठाते, जो जवाबदारी मिल गई उसे पूरी जिम्मेदारी से निभाते हैं। सरकार के भोंपू कहे जाने वाले विभाग के मंत्री हैं। लेकिन बयानवीर की तरह सरकार की उपलब्धियों का कोरा बखान नहीं करते।  वो कहते हैं कि बीते आठ सालों में भाजपा सरकार के राज में मध्यप्रदेश ने तरक्की की राह पकड़ ली है। लेकिन वो साथ में ये मंजूर भी करते हैं कि खुशहाल मध्यप्रदेश के सपने के पूरा होने में गुंजाइश अब भी बाकी है। वो जोड़ते हैं, पर फिर भी ये तसल्ली करनी चाहिए कि प्रदेश अब उन हाथों में जो हाथ इस प्रदेश को कामयाबी के फ्रेम मे देखना चाहते हैं। प्रदेश के जनसंपर्क मंत्री लक्ष्मीकांत शर्मा का विभाग तो सरकार का महिमागान करता रहता है। लेकिन विभाग के मंत्री की नजर से देखिए भाजपा सरकार के आठ साल। इन आठ सालों पर  चुनिंदा पांच सवाल।

जनसंपर्क विभाग के चश्मे से नहीं, आपकी नजर से देंखे सरकार के आठ साल?
मैं समझता हूं हमारी सरकार ने प्रदेश की कमान संभाली तो हम पर दोहरी जवाबदारी थी। एक तो दस सालों में जो प्रदेश का बेड़ा गर्क हो चुका था, कांग्रेस के राज में। उससे उबार कर प्रदेश को पटरी पर लाना था। तो पहली किस्त में, मतलब शुरुवात के तीन सालों में तो हमने प्रदेश को पटरी पर लाने का काम किया। फिर इस प्रदेश में तरक्की का सफर शुरु हुआ। जनसंपर्क विभाग की जवाबदारी जरुर है मुझ पर लेकिन में जबरन अपनी सरकार का बखान नहीं करता।  मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व में हमारीे सरकार अच्छा काम कर रही है, इसका प्रमाण है कि प्रदेश की जनता ने हमे दुबारा सरकार बनाने का मौका दिया। शिवराज सिंह के नेतृत्व में भाजपा फिर सत्ता में आई। ये पहली सरकार है, जिसने राजनीतिक स्वार्थो से हटकर काम किया है। लाड़ली को लक्ष्मी बनाना, बेटियों को घरों में ही नहीं दिलों में जगह दिलाने का काम किया है। मैं समझता हूं ये हमारी सरकार की सबसे बड़ी उपलब्धि है जो इतिहास में दर्ज होगी। लेकिन फिर भी मैं ये कहूंगा कि तरक्की का सफर अभी खत्म नहीं हुआ है,अभी काम बाकी है। संपूर्ण कभी कुछ नहीं होता, हर काम में गुंजाइश रहती है। लेकिन जिस तरह से मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री प्रशासनिक कार्यो में पारदर्शिता के लिए कानून बना रहे हैं। जिस तरह से गरीबों आदिवासियों और महिलाओं के लिए कल्याणकारी योजनाएँ चालू की गई हैं। मैं आपको भरोसा दिलाता हूं कि 2013 में भी भाजपा मध्यप्रदेश में एक बार फिर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व में अपनी सरकार बनाएगी।

सरकार  की सबसे बड़ी उपलब्धि क्या है? और वो कौन सी सबसे बड़ी कमी है, 2013 के पहले जिसे पूरा किए बगैर जनता को मूंह दिखाने भाजपा के लिए मुश्किल होगा?
मैं व्यक्तिगत तौर पर ये मानता हूं कि मध्यप्रदेश की शिवराज सरकार देश की उन चुंनिदा सरकारों में शामिल है, जो संवेदनशील सरकार है। समाज से जुड़ कर काम करती है। जिस प्रदेश के मुख्यमंत्री ने अपने प्रदेश की जनता से मामा का रिश्ता बना लिया हो। वहां फिर कोई सवाल खड़ा नहीं होता। मैं समझता हूं कि अपने प्रदेश की जनता से सरकार ये रिश्ता सबसे बड़ी उपलब्धि है। क्योंकि राजनीति में वोटों से हार जीत अपनी जगह है लेकिन राजनीति में असली लीडर वही है जो लोगों के दिलों में अपनी जगह बना ले। हमारी सरकार ने इस ह्रदय प्रदेश में रहने वाले लोगों के दिलों में अपनी जगह बनाई है। सरकार हर मुसीबत में इस प्रदेश के आम आदमी के साथ खड़ी है।

एक तरफ भाजपा अन्ना हजारे का समर्थन करती है,दूसरी तरफ भाजपा सरकार के आधा दर्जन से अधिक मंत्रियों के मामले लोकायुक्त में?
देखिए लोकायुक्त में शिकायत करने से ये तय नहीं हो जाता कि कोई मंत्री भ्रष्ट्राचार में लिप्त है। लोकायुक्त की जांच रिपोर्ट आ जाने दीजिए, दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा। हमारी सरकार भ्रष्ट्राचार मुक्त सरकार है। और हमारे मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का तो खुद ये संकल्प है कि भ्रष्ट्राचारियों को किसी भी कीमत पर बख्शा नहीं जाएगा। हमारी सरकार ने एतिहासिक पहल की और मध्यप्रदेश न्यायालय विधेयक को मंजूरी दी है। इस विधेयक में भ्रष्ट्र लोकसेवकों की भ्रष्ट्र तरीके से अर्जित की गई संपत्ति राजसात करने का प्रस्ताव है। वहीं इस तरह के मामलों के लिए अलग से कोर्ट  गठित करने का भी इस विधेयक में प्रावधान है। शिवराज सरकार व्यवस्था में सुधार लाने के साथ,प्रशासनिक कामकाज में पारदर्शिता लाने और भ्रष्ट्राचार को खत्म करने के लिए संकल्पबध्द है। इसी तरफ हम कदम आगे बढा रहे हैं। लोकसेवा गारंटी कानून के साथ जहां एक तरफ सरकारी कामकाज में सख्ती और व्यवस्था में सुधार लाने की कोशिश की गई है। वहीं ई गर्वनेंस के साथ सरकारी कामकाज में पारदर्शिता लाने का अभूतपूर्व प्रयास हमारी सरकार ने किया है।
कांग्रेस सरकार के दौर में भाजपा,सरकारी होर्डिंग और बैनर की बाढ पर एतराज उठाती थी, और उसे अपनी वाहवाही बताती थी। अब आप भी उसी नक्शेकदम पर हैं, काम से ज्यादा काम का बखान?
आपकी ये बात बिल्कुल गलत है। कांग्रेस और भाजपा सरकार के कामकाज में जमीन आसमान का फर्क है। हमारी सरकार जो कहती है वो करती है। हम सपनें नहीं दिखाते। आंकड़ों की बाजीगरी नही ंकरते। प्रदेश में जो तरक्की हुई है। जो तस्वीर बदली है। पूरे तथ्यों के साथ उसे सामने रखते हैं। हमारा जनसंपर्क विभाग किसी भोंपू की तरह काम नहीं कर रहा। वो आवाज तो है सरकार की लेकिन सच्ची आवाज। वो सरकार की सच्ची कामयाबी की कहानी आम लोगों तक पहुंचाता है। और आप देखेंगे कि हमारे जो बैनर होर्डिंस का बड़ा हिस्सा उन योजनाओं को लेकर है,जो समाज में आखिरी पायदान पर खड़े व्यक्ति को लाभ पहुंचाने के लिए बनाई गई है।कोशिश ये है कि योजनाओं की जानकारी आम आदमी तक पहुंचे और वो इसका लाभ ले सकें।

आखिरी सवाल, 2003, फिर 2008 और अब मुमकिन है 2013 भी, मध्यप्रदेश में कहानी बिजली सड़क पानी से आगे क्यों नहीं बढ पाती?
2003 की बात छोड़ दीजिए। तब मध्यप्रदेश भाजपा सरकार को  जिस हालत में मिला था उसे ठीक करने में ही हमारी सरकार के पांच साल निकल गए। लेकिन 2008 तक सड़कों की स्थिति में काफी सुधार हुआ है। और अब तो प्रदेश में गांव गांव तक पहुंच मार्ग बन चुके है। सड़कों के मामले  में भी पूरी तस्वीर बदल चुकी है। याद कीजिए, कभी इसी मध्यप्रदेश की सड़कों के लिए कहा जाता था कि गड्ढे में सड़क है या सड़क में गड्ढा लेकिन अब हर तरफ पक्की सड़के हैं। रही बात बिजली पानी की तो जैसा कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने हमेशा कहा है कि 2012 तक मध्यप्रदेश बिजली के मामले में आत्मनिर्भर हो जाएगा। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार के राज में कामयाबी की जो कहानी लिखी जा रही है, उसमें बिजली पानी और सड़क जैसे मुद्दे तो बहुत पहले ही खत्म हो चुके हैं। आप देखिए ना कांग्रेसियों के पास भी कोई मुद्दे नहीं बचे हैं सरकार को घेरने के लिए। वजह ये है कि दिन रात प्रदेश के विकास की सोचने वाले मुख्यमंत्री और हमारी लोककल्याणकारी सरकार केवल काम करने में यकीन रखती है।  

भाजपा के ब्रांड शिवराज




भाजपा की सरकार ने मध्यप्रदेश में अपने आठ बरस पूरे कर लिए। आठ बरस, तीन मुख्यमंत्री। उमा भारती, बाबूलाल गौर और फिर शिवराज सिंह चौहान। कई साल तक भाजपा सरकार का बखान, बदलते मुख्यमंत्रियों से ही होता था। लेकिन अब पिछले छै साल से मध्यप्रदेश में सत्ता का एक ही चेहरा है। सरकार का एक ही नाम, शिवराज सिंह चौहान। मध्यप्रदेश भाजपा को शिवराज की शक्ल में केवल एक चेहरा नहीं मिला । बीते छै सालों में वो भाजपा के लिए सुरक्षित कहे जाने वाले इस सूबे के ब्रान्ड बन चुके हैं। लो प्रोफाइल शिवराज लोकप्रिय हैं। और जमीन से जुड़कर जनता का दिल जीतने के टोटके भी बखूबी जानते हैं। जनता के बीच वो भरोसा का चेहरा हैं तो पार्टी में भी इतनी साख है कि भाजपा का शीर्ष नेतृत्व. मध्यप्रदेश के मामले में कभी शिवराज से आगे नहीं सोच पाता । लेकिन ये एक बाजू की तस्वीर है। दूसरे बाजू, शिवराज और उनकी सरकार की तस्वीर खुशनुमा दिखाई नहीं देती। इस तस्वीर में संगठन से सरकार तक शिवराज के खिलाफ उठ रहे बयान हैं। इस तस्वीर में,नौकरशाही पर मुख्यमंत्री की कमजोर पकड़ पर सवाल सुनाई देते है। भाजपा कहती रहे शिवराज का दामन पाक साफ है। लेकिन इस तस्वीर में, इस दामन पर शक की धुंध दिखाई देती है। भाजपा सरकार की सालिगरह ,मौका देती है,ये देखने समझने और जानने का, कि मध्यप्रदेश के इतिहास में भाजपा सरकार की सबसे लंबी पारी खेलने वाले मुख्यमंत्री ने कहां बाजी मारी और कहां चूक कर गए चौहान।

पहले खूबियां...
लो प्रोफाइल और लोकिप्रय सीएम
भाजपा शासित दूसरे राज्यों के मुख्यमत्रियों के मुकाबले शिवराज सिंह चौहान लो प्रोफाइल सीएम के तौर पर गिने जाते हैं। लो प्रोफाइल इन मायनों में कि भाजपा की अंदरुनी राजनीति में भी उन्हे जब जिस भूमिका में रखा गया।शिवराज कभी उससे बाहर नहीं आए। वो नरेन्द्र मोदी की तरह पीएम के दावेदार बनते दिखाई नहीं देते। वो राष्ट्रीय नेताओं की आंख के तारे भले ना हो, पर आंख की किरकिरी भी नहीं बनते। उमा भारती जैसे जनाधार वाली नेता की जगह लेकर खुद को स्थापित करना शिवराज  सिंह चौहान के लिए आसान नहीं था। लेकिन शिवराज की सहज,सरल , और जमीन से जुड़कर चलने की छवि का ही तो असर था कि 2008 के चुनाव में उमा भारती के लिए लोगों की सहानुभूति भी जाती रही। और इस सूबे में बजा तो केवल शिवराज का डंका।
संगठन के सपूत
शिवराज भाजपा के भरोसेमंद सिपहसालारों में गिने जाते हैं। पार्टी ने जब जैसा कहा, उन्होने वैसा ही किया। यही वजह है कि शिवराज सिंह चौहान हमेशा से भाजपा संगठन के सपूत बने रहे हैं। भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी से लेकर दूसरी पीढी के अरुण जेटली और सुषमा स्वराज तक, शिवराज का हर एक बेहतर तालमेल है। संगठन के भरोसे पर खरे उतरने का ही ईनाम था शायद कि मध्यप्रदेश में सत्ता संभालने के कुछ सालों बाद ही शिवराज को पार्टी ने पूरी तरह फ्री हैंड दे दिया।

जानते हैं, जनता के टोटके
शिवराज जनता के जज्बातों को वोट में बदलना जानते हैं। भाजपा शासित राज्यों में अपनी तरह के पहले मुख्यमंत्री जिन्होने प्रदेश का मुखिया कहलाने के बजाए अपने सूबे से रिश्ता बांध लिया।  शिवराज से पहले उमा भारती भी दीदी कहलाती थी। लेकिन उनका पार्टी केकुछ करीबियों से ही रहा दीदी का नाता। बाबूलाल गौर तो खैर इस तरह के संबोधनों में उलझे ही नहीं। लेकिन शिवराज सिंह चौहान ने मध्यप्रदेश की सत्ता संभालने के बाद जनता के जज्Þबातों से सीधे जुड़ाव के लिए टोटके शुरु कर दिए। पहले वो कुछ साल तक पांव पाव वाले भैय्या कहलाते रहे। लेकिन ये संबोधन मास अपीलिंग नहीं था. तो फिर प्रदेश की महिलाओं और बेटियों के बड़े वर्ग को प्रभावित करते हुए शिवराज सिंह चौहान ने मामा की ब्रांडिंग शुरू कर दी। लाड़ली लक्ष्मी जैसी कारगर योजना के साथ शिवराज ने ये साबित भी कर दिया कि वो केवल कहने के लिए इस सूबे के मामा नहीं हैं। लेकिन ये रिश्ता रंग लाया। इसी मामा फैक्टर की बदौलत 2008 में शिवराज सिंह चौहान दुबारा मुख्यमंत्री बन गए। चुनावी सर्वेक्षणों में ये बात साबित हो गई  कि भाजपा के हक में महिलाओं का वोटिंग परसेंटेज बढा है। और इसकी इकलौती वजह शिवराज सिंह चौहान थे।

सख्त भी और सहज भी

इस सूबे के आम आदमी के साथ खड़े होकर देखिए, तो शिवराज सिंह चौहान बेहद सहज और सरल इंसान दिखाई देते हैं। वो समाज के हर तबके के लिए फिक्रमंद है इसलिए मुख्यमंत्री निवास पर समाज के हर तबके की पंचायतें बुलाते हैं. जनता से सीधी बात करते हैं। उनकी समस्याएं सुनते हैं। मुख्यमंत्री निवास में जनता दरबार तो पहले भी लगते रहे हैं। लेकिन मुख्यमंत्री पूरी सहजता और सरलता के साथ आम लोगों को उपलब्ध हो सके, इसके लिए शिवराज सिंह चौहान ने नए प्रयोग किए हैं। और कुछ हद तक वो कारगर भी कहे जा सकते हैं। सहज हैं तो सख्त भी हैं। नौकरशाही पर कमजोर पकड़ के आरोप का असर कहिए लेकिन शिवराज सिंह चौहान ने दागी आईएएस अफसरों के मामले में सख्ती दिखाई और उनके निलंबन में देर नहीं लगाई। लेकिन कई बार लगता है कि बहुत से मामलों में वो अपनी इस सख्त छवि का इस्तेमाल भी नहीं कर पाते। वजह ये है कि उनके अपने मंत्रीमण्डल में काम कर रहे कई सारे प्रेशर ग्रुप के चलते वो कई बार सख्ती से फैसले नहीं ले पाते।



खूबियां हैं तो खामियां भी हैं....

नौकरशाह चलाते हैं सरकार

मध्यप्रदेश में नौकरशाह चलाते हैं सरकार? शिवराज सिंह चौहान ने जिस दिन से इस प्रदेश की सत्ता संभाली ।  ये जुमला प्रशासनिक अमले से लेकर सियासी हल्कों तक जोर पकड़ता रहा है।  शिवराज के विरोधियों को छोड़िए उनकी अपनी ही पार्टी के लोग भी दबी जुबान में मंजूर करते रहे हैं, कि मुख्यमंत्री की नौकरशाही पर पकड़ कमजोर है और ये सरकार असल में तो नौकरशाह चला रहे हैं। कैबिनेट की बैठकों से लेकर मुख्यमंत्री की अनौपचारिक चर्चा के दौरान मत्रियों से हुए वन टू वन में कई बार शिवराज मंत्रीमण्डल के सदस्यों ने ये दुखड़ा रोया है कि अफसर उनकी सुनते नहीं है, उनका काम नहीं करते।

सबके अपने अपने राग

सबकी अपनी ढपली अपना राग, ये शिवराज कैबिनेट का हाल है। राज्य से जुड़े मुद्दों पर ही नहीं, राष्ट्रीय मुद्दों पर भी कई बार कैबिनेट में सहमति नहीं बन पाती। पूरी कैबिनेट ही कई तरह के पॉवर ग्रुप्स में बंटी हुई है। मंत्रियों के बीच आपस में भी, और मुख्यमंत्री के साथ भी, संवाद की स्थिति डगमगाई हुई है। भीतर की ये उथल पुथल अब सतह पर सुनाई और दिखाई भी देने लगी है। शिवराज कैबिनेट के दमदार मंत्री कैलाश विजयवर्गीय का खुद को शोले का ठाकुर बता चुके हैं। बाबूलाल गौर अपने बयानों में सरकार पर उंगली उठा चुके हैं। और अब तो संगठन के पदाधिकारी भी सरेआम सरकार को आईना दिखा रहे हैं। अगर मध्यप्रदेश में विपक्ष मजबूत होता तो इन हालात का फायदा उठा सकता था। लेकिन शिवराज और उनकी कैबिनेट को तसल्ली करनी चाहिए कि कमजोर कांग्रेस में इस सबको लेकर कोई हलचल नहीं, लेकिन ये संकेत भी सरकार के लिए ठीक नहीं कि पार्टी और सरकार के भीतर के लोग ही अपनी सरकार के कामकाज पर सवाल उठा रहे हैं।

दामन पर शक की धुंध

वैसे शिवराज सिंह चौहान स्वच्छ छवि के नेता कहे जाते हैं। भ्रष्ट्राचार के मामलों में एक डंपर मामला ही है, जो सुर्खियों में रहा है। यूं शिवराज सिंह का दामन दागदार दिखाई नहीं देता। लेकिन इस दामन पर विरोधियों को ही नहीं, पार्टी के अपने लोगों की शक की धुंध दिखाई देती है।  2013 के विधानसभा चुनाव के पहले शिवराज को ये कोशिश करनी होगी कि शक की ये धुंध भी छंट जाए।

मंत्री भी कम्फर्ट जोन में नहीं,

संवादहीनता और अलग अलग गुटों में बंटी शिवराज सरकार के भीतर घुटन बढ रही है। अभी तक मंत्री इसे महसूस करते रहे लेकिन अब तो जिसको जब जहां मौका मिल रहा है। अपनी इस घुटन को शिवराज कैबिनेट के सदस्य जाहिर भी कर रहे हैं। किसी मुद्दे पर असहमति,मतभेद ,स्वस्थ आंतरिक लोकतंत्र दिखाते हैं. लेकिन शिवराज कैबिनेट में मनभेद की स्थिति है। शिवराज की किचन कैबिनेट में शामिल कुछ मंत्रियों को छोड़ दें तो शिवराज के कुनबे में भरोसे की दीवार हर स्तर पर दरक रही है।

कैसे बनेगा अपना मध्यप्रदेश !



बीती एक नवम्बर को मध्यप्रदेश ने अपनी स्थापना के 56 बरस पूरे कर लिए। राज्य सरकार ने करोड़ों रुपए खर्च किए और पूरे प्रदेश में मनाया गया इस सूबे की सालगिरह का यादगार जलसा। यकीनन इन जलसों में इस सूबे के आम आदमी ने भी शिरकत की। हर जश्न में उसकी भी हिस्सेदारी थी। लेकिन इस प्रदेश के वाशिंदे ने खुद आगे बढकर अपने सूबे की सालगिरह मनाई हो,ये तस्वीर पूरे प्रदेश में कहीं दिखाई नहीं दी। मध्यप्रदेश की सालगिरह के नाम पर जहां जो  हुआ, सरकारी तौर पर ही हुआ। लेकिन ये तस्वीर कई सवाल खड़े करती है। सवाल ये कि जय महाराष्ट्र की तरह, आखिर मध्यप्रदेश का जयगान क्यों नहीं हो पाता। क्यों सरकारें ही मनाती हैं हर बार सालगिरह,आवाम से कभी ये आवाज क्यों नहीं आती? जवाब तलाशिए तो कुछ और नए सवाल खड़े होते जाते हैं। मध्यप्रदेश की अपनी कोई पहचान कहां है? वो तो भूगोल ऐसा था कि ह्रदय प्रदेश की संज्ञा मिल गई, वरना ये संकट भी बना ही रहना था। लेकिन इसके बावजूद भी संस्कृति और परंपरा की पहचान तो फिर भी नहीं मिल पाई। जिस तरह कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक देश के हर प्रदेश की अपनी खास संस्कृति है। परंपराओं के साथ भाषा  बोली होती है। मध्यप्रदेश के मामले में उसकी पहचान का खाना हमेशा खाली ही रहा। और 56 साल बाद भी खाली ही है। मध्यप्रदेश देश में अपनी तरह का वो इकलौता प्रदेश है जिसकी अपनी कहने को कोई भाषा नहीं है। छत्तीसगढ जब तक इस प्रदेश का हिस्सा रहा,तब तक आदिवासी इसकी संस्कृति और पहचान बने रहे। लेकिन छत्तीसगढ बन जाने के बाद तो पहचान का वो एक खास धड़ा भी अलग हो गया। ऐसा नहीं कि छत्तीसगढ के साथ आदिवासी पूरी तरह प्रदेश से अलग हो गए हों। आदिवासी प्रदेश के कुछ हिस्सों में अब भी हैं,लेकिन उनकी भी अपनी अलग अलग संस्कृतियां, पहनावे और परंपराएं हैं। कोई ऐसी एकजुटता नहीं कि उसे आप इस सूबे की शिनाख्त बना लें। आज जिस तरह गुजराती, मराठी, उड़िया, असमिया, बंगाली, बिहारी और यहां तक कि छत्तीसगढ़िया अपनी क्षेत्रीयता के साथ अपने वजूद पर गुरुर कर पाते हैं। अपनी बोली, अपनी भाषा अपनी संस्कृति के संकट से जूझ रहे इस प्रदेश के आम आदमी के पास इस गुरुर की कोई वजह नहीं है। पहचान के नाम पर इस प्रदेश के पास कुछ नदियां हैं। कुछ तीर्थ हैं। कुछ गिने चुने राजनेता है। लेकिन जिससे इस प्रदेश की पूरी आबादी को एक डोर में बांधा जा सके। भाषा की,संस्कृति की, परंपरा की वो डोर इस प्रदेश के पास नहीं है। मध्यप्रदेश गान लिखा जा चुका है। सरकारी विभागों की रिंगटोन में वो सुनाई भी देता है। लेकिन आम आदमी खुद अपने प्रदेश का जयगान करे इसके लिए  नए सिरे से कोशिश करनी होगी। भूगोल के भरोसे बहुत रह लिए ,अब मध्यप्रदेश को उसकी अपनी पहचान देनी होगी। जब तक इस सूबे के आम आदमी को, इस प्रदेश को वो पहचान नहीं मिल जाती।  तब तक चाहें जितने करोड़ खर्च कर दीजिए। दिवाली की तरह मना लीजिए स्थापना दिवस, ये सारे समारोह सरकारी जलसे ही बन पाएंगे। जब आम आदमी अपने प्रदेश से दिल से जुड़ेगा तब, तब सरकारें मैदानों में मनाए ना मनाए। इस प्रदेश का हर नागरिक अपने घर में, चौराहों पर मनाएगा प्रदेश का स्थापना दिवस। तो सूबे की 56 वीं सालगिरह पर ये संकल्प लें कि इस बरस ना सही, लेकिन अगले बरस ये प्रदेश अपनी नई पहचान के साथ अपनी वर्षगांठ मनाए। जय जय मध्यप्रदेश।