Wednesday, December 31, 2008
आज की रात 12 बजते ही
हमारी तरह
मोबाइल भी हो जायेगा पागल ....
बार बार बजेगा
मुबारकेंआयेंगी दूर दूर से इस ताकीद के साथ
कि बदल गया है साल,
कल फिर सुबह होगी
साल के 365 दिनों में
बदलता हुआ सिर्फ एक दिन हमें लगेगा खास
कुछ बदलाव भी होंगे
बदलेगा घर की दीवार पर लगा कैलेण्डर
तारीख महीने की कतार में
साल के खाने में होगा बदलाव
ज्योतिषी बारहखानें बाँचकर
फिर लिखेंगे नये साल का नया फलसफ़ा
पर जहाँ रुका है वक्त,रुका ही रहेगा...
फिर चाहे बदल गया हो साल
टूटे रिश्तों की दरार वक्त के साथ
हो जायेगी कुछ और गहरी
जो छूट गये वो छूटे ही रहेंगे इस साल भी
तारीखें भी भूले मेरे पिता
इस बार भी नहीं जान पायेंगे वक्त का रद्दोबदल
नया साल,नई उम्मीदें,नई सुबह,नया सूरज
मन का भरम है,सब
एक दिन बाद होगी
फिर वहीं पुरानी कहानी
फिर वही जूझती घिसटती दोपहर
रोती सिसकती रात......
चंद घँटो में खत्म हो जायेगी
नये बरस की नई शाम......
शिफाली
Wednesday, December 3, 2008
चाँद मुस्कुराया तो ये ख्याल आया........
चाँद से इस मुल्क का नाता बहुत पुराना है.....चाँद बचपन का चंदामामा भी है...जवानी का मेहबूब भी...हिन्दुस्तानी क्लासिकल शायरी का हर शेर चाँद के बगैर अधूरा है........आसमान की छत पर सदियों से टंगा है चाँद...धरती माँ का चंदामामा...जो जानता है आँसूओं को मुस्कान में बदलने का जादू...उम्र के साथ चाँद से रिश्ता तो बदलता है...पर ये चाँद नहीं बदलता...आसमान की सीढ़ियाँ उतरकर ये चाँद जब कैनवास पर आता है...तो बन जाता है गुज़रे दिनों का गवाह...ये अधूरा चाँद टूटे ख्वाब की पूरी बयानी करता है.......
शायरी की तो सुबह ही चाँद से होती है...दिन के उजाले में भी शायर चाँद और चाँदनी की बातें किया करते हैं.... सोचिये तो ज़रा अगर ये चाँद ना होता...तो मोहब्बत करने वाले अपने मेहबूब की मिसाल कहाँ से लाते... हम
जज्बात में जीने वाले हिन्दुस्तानियों की तो रीत में है चाँद....प्रीत में है चाँद....ये चंदा आसमान में टंगा वो खामोश बहरुपिया है....हमारी उम्र के साथ जो अपना किरदार बदलता रहता है....
शायरी की तो सुबह ही चाँद से होती है...दिन के उजाले में भी शायर चाँद और चाँदनी की बातें किया करते हैं.... सोचिये तो ज़रा अगर ये चाँद ना होता...तो मोहब्बत करने वाले अपने मेहबूब की मिसाल कहाँ से लाते... हम
जज्बात में जीने वाले हिन्दुस्तानियों की तो रीत में है चाँद....प्रीत में है चाँद....ये चंदा आसमान में टंगा वो खामोश बहरुपिया है....हमारी उम्र के साथ जो अपना किरदार बदलता रहता है....
..........परसों के रोज़ छत से चाँद को मुस्कुराते देखा...मेरे बचपन में आँसूओं को मुस्कान में बदलने वाला चाँद हंसा तो ये ख्याल आया...जो अब आपकी नज़्र है....
Saturday, November 29, 2008
पिता की सलामी
एक पिता की सलामी,....
मेरे बीमार पिता ने मुँबई में आतंकियों से हुई मुठभेड़ की कोई तस्वीर नहीं देखी....वो नहीं जानते एटीएस चीफ करकरे को, वो कमाँडो गजेन्द्र सिंह और संदीप उन्नीकृष्णन को भी नहीं जानते..1971 के युध्द का हाल रेडियों पर सुनने वाले मेरे पिता ये भी नही जानते कि अब युध्द दो मुल्कों में नहीं होता...बेकसूरों को निशाना बनाते आतंकवादी अब सीधे सीमा के अंदर घुस आते हैं...पिता नहीं जानते कि वोटों के लिये अब नेता मासूमों की लाशों पर भी सियासत करने से नहीं चूकते....वो नहीं जानते कि खबरिया टीवी चैनल आतंकवादियों और देशभक्तों के इस युध्द को अपनी जान पर खेलकर किसी हिन्दी फिल्म के सस्पेंस,एक्शन,थ्रिलर के फार्मूले के साथ पेश करते हैं...और चैन से खाना खाते...रज़ाइयों में दुबके हम,अपने अपने घरों में मिनिटों में मौत बन रही ज़िन्दगी के रोमाँच को जीते रहते हैं हर घड़ी....मेरे बीमार पिता ने मुँबई का हाल मेरी आँखों से देखा मेरी ज़ुबान से जीया ....सेना की जाँबाज़ी के किस्से उनकी सूनी आँखों में चमक ले आते हैं ...सच्चे सपूतों पर गर्व करते चौड़ा हो जाता है पिता का सीना...सैनिकों के हौसले पर मुस्कुराते हैं और देशभक्तों की शहादत पर फक्र से कहते हैं...सेना के भरोसे ही तो हैं हम और हमारा भारत...बेटा.....ये नेता तो हमारे भरोसे हैं....।
मेरे बीमार पिता ने मुँबई में आतंकियों से हुई मुठभेड़ की कोई तस्वीर नहीं देखी....वो नहीं जानते एटीएस चीफ करकरे को, वो कमाँडो गजेन्द्र सिंह और संदीप उन्नीकृष्णन को भी नहीं जानते..1971 के युध्द का हाल रेडियों पर सुनने वाले मेरे पिता ये भी नही जानते कि अब युध्द दो मुल्कों में नहीं होता...बेकसूरों को निशाना बनाते आतंकवादी अब सीधे सीमा के अंदर घुस आते हैं...पिता नहीं जानते कि वोटों के लिये अब नेता मासूमों की लाशों पर भी सियासत करने से नहीं चूकते....वो नहीं जानते कि खबरिया टीवी चैनल आतंकवादियों और देशभक्तों के इस युध्द को अपनी जान पर खेलकर किसी हिन्दी फिल्म के सस्पेंस,एक्शन,थ्रिलर के फार्मूले के साथ पेश करते हैं...और चैन से खाना खाते...रज़ाइयों में दुबके हम,अपने अपने घरों में मिनिटों में मौत बन रही ज़िन्दगी के रोमाँच को जीते रहते हैं हर घड़ी....मेरे बीमार पिता ने मुँबई का हाल मेरी आँखों से देखा मेरी ज़ुबान से जीया ....सेना की जाँबाज़ी के किस्से उनकी सूनी आँखों में चमक ले आते हैं ...सच्चे सपूतों पर गर्व करते चौड़ा हो जाता है पिता का सीना...सैनिकों के हौसले पर मुस्कुराते हैं और देशभक्तों की शहादत पर फक्र से कहते हैं...सेना के भरोसे ही तो हैं हम और हमारा भारत...बेटा.....ये नेता तो हमारे भरोसे हैं....।
Tuesday, November 25, 2008
क्यों होती है दुनिया गोल ...
क्यों जिन रास्तों से शुरु हुए
लंबे सफर के बाद फिर
वहीं खड़े हो जाते हैं हम...
क्यों उम्र के बाद
वक्त के साथ
नहीं बदल पाता ज़िन्दगी का भी चेहरा
क्यों फिर वही एक शख्स
अपने हिस्से में पूरी बिसात लिये मिलता हैं..
और हमारे हिस्से आती है फिर सिर्फ मात
क्यों हम ही बने रहते हैं
किसी और की शह
पर चलने
दौड़ने वाले
लाचार मोहरे....
और
मरते रहते हैं रोज़,
कई कई बार,
कोई तो बताये......
क्यों जिन रास्तों से शुरु हुए
लंबे सफर के बाद फिर
वहीं खड़े हो जाते हैं हम...
क्यों उम्र के बाद
वक्त के साथ
नहीं बदल पाता ज़िन्दगी का भी चेहरा
क्यों फिर वही एक शख्स
अपने हिस्से में पूरी बिसात लिये मिलता हैं..
और हमारे हिस्से आती है फिर सिर्फ मात
क्यों हम ही बने रहते हैं
किसी और की शह
पर चलने
दौड़ने वाले
लाचार मोहरे....
और
मरते रहते हैं रोज़,
कई कई बार,
कोई तो बताये......
Friday, November 21, 2008
याद,
फिर कौंध गई है मुझमें...
एक चेहरे से लौट आई
वो पुरानी दुनिया,..
एक इक मंज़र
मेरे सामने ज़िन्दा होता
पहले कुछ दोस्ती,
फिर अपनेपन की बात कई
और फिर इक ज़रा सी बात में
टूटे तागे...
दोस्ती दुश्मनी में ढलती गई बस यूँ ही...
दुश्मनी भी कोई आम नहीं...
बन पड़ा जो
वो सबकुछ तो किया था उसने...
ज़िन्दगी का है कोई कर्ज़
समझ भूल गई...
आज फिर
कौंध आई याद वो ही
एक चेहरे से लौट आई पुरानी दुनिया....
फिर कौंध गई है मुझमें...
एक चेहरे से लौट आई
वो पुरानी दुनिया,..
एक इक मंज़र
मेरे सामने ज़िन्दा होता
पहले कुछ दोस्ती,
फिर अपनेपन की बात कई
और फिर इक ज़रा सी बात में
टूटे तागे...
दोस्ती दुश्मनी में ढलती गई बस यूँ ही...
दुश्मनी भी कोई आम नहीं...
बन पड़ा जो
वो सबकुछ तो किया था उसने...
ज़िन्दगी का है कोई कर्ज़
समझ भूल गई...
आज फिर
कौंध आई याद वो ही
एक चेहरे से लौट आई पुरानी दुनिया....
Friday, October 31, 2008
ये जगबीती भी है...आपबीती भी..लड़की होना और फिर एक ऐसे पेशे में होना जहाँ लड़की इनदिनों तेज़ी से ग्लैमर में बदल रही है...इस लड़की होने का इस्तेमाल आता हो...तो मंज़िल आप तक पहुँचाई जाती है...वरना लड़की होने के बोझ के साथ..हर रास्ते से खुद को बचाते सहेजते...हर बार अपने मुकाम से कुछ पहले सफर खत्म हो जाता है...क्यों हो जाता है...जवाब कभी नहीं मिला....आज भी नहीं जब अपने लड़की होने के फायदे को दरकिनार करके मेरे मैं होने के अहसास के साथ जैसे भी हूँ...अपने वजूद को बचाने जूझती रहती हूँ,....कभी बाहर कभी भीतर चलती रहती है लड़ाई..क्या सही है क्या गलत...कोई नहीं बताता...जो जीता वो ही सिकन्दर फिर कौन पूछता है सिकन्दर किसने बनाया...क्यों बनाया...और कैसे बनाया...आपके संघर्ष पर आपकी समझ पर सहानुभूति तो मिलती है...लेकिन आपके समझौते ना कर पाने की ज़िद ये मौका ही नहीं देती कोई आपको सिकन्दर बनाये....अखबार के ज़माने से देखा है...कलम थामने की कोशिश कर रही एक लड़की हो तो संपादकों को उसमें आग दिखाई देती है...वो कलम पकड़ भी नहीं पाती और संपादक उसकी खबर संभाल लेते हैं...फिर भी अखबारों में गुँजाइश कम थी...टीवी चैनलों में मौके बढ़ गये हैं...लड़कियो के लिये...उनके भविष्य के लिये और उनके इस्तेमाल के लिये...कोई लिखना सिखाता है...कोई बोलना....कोई अपनी खबर उसके नाम कर देता है...मुमकिन है कुछ भी, बशर्ते लड़की बन जाओ....नहीं लड़की तो हो...लेकिन होना काफी नहीं...अपनी खुद्दारी को घर छोड़ के आओ...रिझाओ..इठलाओ...दुनिया तुम्हारे कदम चूमेगी...तो क्या हुआ जो तुम खुद से निगाह भी ना मिला पाओगी...
Tuesday, October 28, 2008
दिवाली की राम राम....
और एक प्रार्थना....
कि अबकि,
दिवाली बाहर निकल आये बाज़ार की कैद से
दिवाली की गुजरिया, धन्नासेठ के साथ,
गली के रामलाल के घर भी आये
मिठाई की दुकानों में बहक गई
अम्मा के हाथ बनी गुजिया की महक
फिर लौट आये अपनी रसोई में...
लाल पीली पन्नी की कंदील,
भाई के हाथ की सीरिज़,
आँगन में खड़ा मिट्टी का किला
बताओ तो भला कहाँ मिलेगा बाज़ार में,
साल में एक बार दिवाली पर ही मिलती
नये कपड़ों की सौगात,
वो लिपे हुए आँगन
रंगोली में रोशन होते मिट्टी के दिये
तश्तरी में मोहल्ले की सैर कर आते
अम्मा के पकवान,
पटाखों की साझा गूँज...
और मिलबाँट जलती फुलझड़ियाँ.....
बाज़ार में कहाँ मिलेगी
हमारी दिवाली....
....
और एक प्रार्थना....
कि अबकि,
दिवाली बाहर निकल आये बाज़ार की कैद से
दिवाली की गुजरिया, धन्नासेठ के साथ,
गली के रामलाल के घर भी आये
मिठाई की दुकानों में बहक गई
अम्मा के हाथ बनी गुजिया की महक
फिर लौट आये अपनी रसोई में...
लाल पीली पन्नी की कंदील,
भाई के हाथ की सीरिज़,
आँगन में खड़ा मिट्टी का किला
बताओ तो भला कहाँ मिलेगा बाज़ार में,
साल में एक बार दिवाली पर ही मिलती
नये कपड़ों की सौगात,
वो लिपे हुए आँगन
रंगोली में रोशन होते मिट्टी के दिये
तश्तरी में मोहल्ले की सैर कर आते
अम्मा के पकवान,
पटाखों की साझा गूँज...
और मिलबाँट जलती फुलझड़ियाँ.....
बाज़ार में कहाँ मिलेगी
हमारी दिवाली....
....
Tuesday, October 14, 2008
मोहल्ले पर ये मेरी दूसरी पोस्ट है....हो सकता है...बंगलों और एलीट क्लास के शानदार फ्लैटों में रहने वालों को सरकारी मकानों के मोहल्ले की ये मोहब्बत नागवार गुज़रे...लेकिन टूटते मोहल्ले मेरी निजी पीड़ा है...इससे पहले की पोस्ट में माँ के खाली मोहल्ले की कहानी थी....अब अपना दर्द बाँट रही हूँ...दशहरे के रोज़....मेरे घर का भी नंबर आ ही गया...मेरा कमरा...मेरी छत...नीम...आँगन...और आँगन के वो पटिये...जिस पर खेलते कूदते कब बचपन गुज़रा..कब जवान हुए..और कब उसी आँगन से मेरी डोली भी उठ गई ...बस एक फ्लशबैक की तरह बहुत तेज़ी से गुज़र गया सबकुछ...इतने दिनों में उस एनिमिक होते मकान को कभी गौर से नहीं देखा...वो जर्जर होता गया...पर उस घर की दीवारों ने...छत ने और बूढ़े होते दरख्तों ने कभी शिकायत नहीं की...ज़िन्दगी की मुश्किलें आसान करने वक्त से कदमताल करते हम,भागते रहे दिन रात...मौका ही नहीं मिला कि उन बोलते कमरों के सवालों का जवाब दे पाते...कुछ कह पाते...उस छोटे से घर में ,हर कमरे की अपनी कहानी थी...रेडियो वाला कमरा...राजधानी आने के साथ ग्वालियर से भोपाल आये मेरे पिता ने माँ के लिये जो रेडियो खरीदा...वो रेडियो सिलोन के साथ पहली बार इसी कमरे में तो बजा था...बरामदा पहले खेल का मैदान हुआ करता था...फिर जगह की कमी में वो भी एक कमरा बन गया...पीछे का आँगन..मुंडेर..और आम के साथ याराना निभाता वो सोझना...(सहजन को मेरी माँ इसी नाम से बुलाती है) घर की दीवारें तो पहले ही बोलती थीं...हम बड़े हुए तो भाई की कलाकारी के रंग भी इन दीवारों पर उतरने लगे...घर का भूगोल बस इतना सा ...दो छोटे कमरे एक रसोई और एक छोटा बरामदा...इसी में पूरी दुनिया...दो दीवानों की तरह आये मेरे माँ बापू का आशियाना....वो अजनबी की तरह आये थे इस शहर में....इस बस्ती में....पर मोहल्ले ने उन्हे इस तरह अपना बनाया कि इस मोहल्ले को छोड़ा ना गया....उस वक्त भी जब पिता नेइसी शहर में अपने सपनों का घरौंदा बसा लिया था....
हर विदाई पे भारी थी उस घर की जुदाई....अपने अपने घोंसले बना चुकीं कभी इस घर की चहकती बेटियाँ...लौट आई थीं उस दिन...अलमारी...पलंग...और ज़िन्दगी के लिये ज़रुरी असबाब ट्रकों में उँडेलते भाई के आँसू थम नहीं रहे थे....सबकुछ ट्रक में उँडेला जा चुका था...लेकिन घर फिर भी छूट गया था....ग्यारह बटे नौ......... पचास साल एक परिवार की शिनाख्त इस पते से होती थी...ये शिफ्टिंग नहीं....एक पूरे घराने, कई ज़िन्दगियों का तबादला है.......अब हम सब बंगले में आ गये हैं...आलीशान बंगला...लेकिन बंगले की दीवारों में घर ढूँढे नहीं मिलता....
हर विदाई पे भारी थी उस घर की जुदाई....अपने अपने घोंसले बना चुकीं कभी इस घर की चहकती बेटियाँ...लौट आई थीं उस दिन...अलमारी...पलंग...और ज़िन्दगी के लिये ज़रुरी असबाब ट्रकों में उँडेलते भाई के आँसू थम नहीं रहे थे....सबकुछ ट्रक में उँडेला जा चुका था...लेकिन घर फिर भी छूट गया था....ग्यारह बटे नौ......... पचास साल एक परिवार की शिनाख्त इस पते से होती थी...ये शिफ्टिंग नहीं....एक पूरे घराने, कई ज़िन्दगियों का तबादला है.......अब हम सब बंगले में आ गये हैं...आलीशान बंगला...लेकिन बंगले की दीवारों में घर ढूँढे नहीं मिलता....
Monday, September 8, 2008
पाती, राज ठाकरे के नाम,
राज ठाकरे नही चाहते कि उत्तर भारतीय मुम्बई में रहें ...अब मिश्रा जी भी नही चाहते कि बंगाल से आए मछली खाने वाले मित्रा बाबू से वो पड़ोसियाना निभाएं,लेकिन मनसा की तरह उनकी अपनी कोई सेना नही है और ना ही इतनी हैसियत कि गाढ़ी कमाई से मिश्राजी के पड़ोस मे लिए हुए मित्रा साहब के घर को वो दबिश से खाली करा सकें,जिस तरह ज़ोर ज़बरदस्ती मुम्बई मे रह रहे उत्तर भारतीयों के साथ हुई है...राज के मुम्बई पर राज करने के इस अंदाज़ के विस्तार मे जाइये महसूस करेंगे आप कि इस बयान से अपने ही आसपास कितना कुछ दरकने लगा है...कोई उस बयान के हक़ मे है कोई खिलाफत में ,बीच की सोच रखने वाला सोच रहा है कल,गाँव और शहर का झगड़ा तो नही खड़ा हो जाएगा,..फिर बबुआ को पढ़ा लिखा कर बड़ी नौकरी करने कहाँ भेजूँगा,वो उत्तर भारतीय हो,देश की किसी दिशा से आया हो,वो इस पर गुस्साता है,जो कहता है आप भी सुनिये.........,माना जनाब मुम्बई आपकी है,उसकी भाषा आपकी,संस्कृति आपकी,पर सौतेले ही सही संतान हम भी हैं उस मुम्बा माँ की..जिसने आपको अगर अपने दुलार से हम पर गरियाने की इजाज़त दी है..तो हमे भी अपने आँचल मे फलने फूलने का हौसला दिया है,और हमने भी इस माँ से कभी दगा नही किया,मुम्बई बम ब्लास्ट से लेकर बाढ़ और रोज़ होने वाली तमाम मुसीबतों मे जब वक्त पड़ा तो हम भी उसके काम आये हैं,माना हम उत्तर के हैं बरसों पहले अपना वतन छोड़कर मुम्बैया हो गए हम लोगो ने भी अपनी उमर का पसीना आपके शहर के नाम लिक्खा है,फिर भी जानते हैं ,.कि हम बेगाने हैं,लेकिन अब आप जवाब .......,जुहू बीच के किनारे छठ पूजा करने वाले हम लोग अपनी उन संतानों को क्या जवाब दें......,जो हमारी जड़ों को काट कर आपके रंग मे रंग गई हैं.....,आपकी बदसलूकी बर्दाश्त है हमें,.... पर हम अपने उन बच्चों का क्या करें,जो भोजपुरी भूलकर मराठी बोलने लगे हैं......,हम गंगा किनारे के बूढ़े माँ बाप पिछड़े हैं जिनके लिए....,पश्चिम के हो चले गंगा मैया के इन बच्चों की भी कोई शिनाख्त बता दें मुम्बई के राज ठाकरे साहब....।
( ये मेरे ब्लॉग की पहली चिट्ठी थी....जया बच्चन के हिन्दी के हक में दिये बयान के बाद उठे बवाल के बाद ये मौज़ूँ बन पड़ी है...सो आपकी नज़्र है...
Posted by पटिये at 3:03 AM 0 comments
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राज ठाकरे नही चाहते कि उत्तर भारतीय मुम्बई में रहें ...अब मिश्रा जी भी नही चाहते कि बंगाल से आए मछली खाने वाले मित्रा बाबू से वो पड़ोसियाना निभाएं,लेकिन मनसा की तरह उनकी अपनी कोई सेना नही है और ना ही इतनी हैसियत कि गाढ़ी कमाई से मिश्राजी के पड़ोस मे लिए हुए मित्रा साहब के घर को वो दबिश से खाली करा सकें,जिस तरह ज़ोर ज़बरदस्ती मुम्बई मे रह रहे उत्तर भारतीयों के साथ हुई है...राज के मुम्बई पर राज करने के इस अंदाज़ के विस्तार मे जाइये महसूस करेंगे आप कि इस बयान से अपने ही आसपास कितना कुछ दरकने लगा है...कोई उस बयान के हक़ मे है कोई खिलाफत में ,बीच की सोच रखने वाला सोच रहा है कल,गाँव और शहर का झगड़ा तो नही खड़ा हो जाएगा,..फिर बबुआ को पढ़ा लिखा कर बड़ी नौकरी करने कहाँ भेजूँगा,वो उत्तर भारतीय हो,देश की किसी दिशा से आया हो,वो इस पर गुस्साता है,जो कहता है आप भी सुनिये.........,माना जनाब मुम्बई आपकी है,उसकी भाषा आपकी,संस्कृति आपकी,पर सौतेले ही सही संतान हम भी हैं उस मुम्बा माँ की..जिसने आपको अगर अपने दुलार से हम पर गरियाने की इजाज़त दी है..तो हमे भी अपने आँचल मे फलने फूलने का हौसला दिया है,और हमने भी इस माँ से कभी दगा नही किया,मुम्बई बम ब्लास्ट से लेकर बाढ़ और रोज़ होने वाली तमाम मुसीबतों मे जब वक्त पड़ा तो हम भी उसके काम आये हैं,माना हम उत्तर के हैं बरसों पहले अपना वतन छोड़कर मुम्बैया हो गए हम लोगो ने भी अपनी उमर का पसीना आपके शहर के नाम लिक्खा है,फिर भी जानते हैं ,.कि हम बेगाने हैं,लेकिन अब आप जवाब .......,जुहू बीच के किनारे छठ पूजा करने वाले हम लोग अपनी उन संतानों को क्या जवाब दें......,जो हमारी जड़ों को काट कर आपके रंग मे रंग गई हैं.....,आपकी बदसलूकी बर्दाश्त है हमें,.... पर हम अपने उन बच्चों का क्या करें,जो भोजपुरी भूलकर मराठी बोलने लगे हैं......,हम गंगा किनारे के बूढ़े माँ बाप पिछड़े हैं जिनके लिए....,पश्चिम के हो चले गंगा मैया के इन बच्चों की भी कोई शिनाख्त बता दें मुम्बई के राज ठाकरे साहब....।
( ये मेरे ब्लॉग की पहली चिट्ठी थी....जया बच्चन के हिन्दी के हक में दिये बयान के बाद उठे बवाल के बाद ये मौज़ूँ बन पड़ी है...सो आपकी नज़्र है...
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Monday, September 1, 2008
दुष्यंत की सालगिरह पर...उन्ही की कलम से.....
ये धूँए का एक घेरा,कि मैं जिसमें रह रहा हूँ,
मुझे किस कदर नया है,जो ये दर्द सह रहा हूँ,
तेरे सर पे धूप आई,तो दरख्त बन गया हूँ
तेरी ज़िन्दगी में अक्सर मैं कोई वजह रहा हूँ,
मेरे दिल का हाल पूछो,मेरी बेबसी को समझो,
मैं इधर से बन रहा हूँ,मैं उधर से ढह रहा हूँ,
यहाँ कौन पूछता है यहाँ कौन देखता है,
कि ये क्या हुआ है मुझको,जो ये शेर कह रहा हूँ।
( दुष्यंतजी के घर जाना हुआ...वहीं एक फट चले लिफाफे पर नज़र गई...जिस पर दुष्यंत साहब की कलम मेहरबान हुई थी....और ये शेर कागज़ पे उतरे थे...,दिलो दिमाग में मचलती शायरी दुष्यंत कहीं भी उतार देते थे...कई बार सिगरेट की पन्नियों पर भी...)
मुझे किस कदर नया है,जो ये दर्द सह रहा हूँ,
तेरे सर पे धूप आई,तो दरख्त बन गया हूँ
तेरी ज़िन्दगी में अक्सर मैं कोई वजह रहा हूँ,
मेरे दिल का हाल पूछो,मेरी बेबसी को समझो,
मैं इधर से बन रहा हूँ,मैं उधर से ढह रहा हूँ,
यहाँ कौन पूछता है यहाँ कौन देखता है,
कि ये क्या हुआ है मुझको,जो ये शेर कह रहा हूँ।
( दुष्यंतजी के घर जाना हुआ...वहीं एक फट चले लिफाफे पर नज़र गई...जिस पर दुष्यंत साहब की कलम मेहरबान हुई थी....और ये शेर कागज़ पे उतरे थे...,दिलो दिमाग में मचलती शायरी दुष्यंत कहीं भी उतार देते थे...कई बार सिगरेट की पन्नियों पर भी...)
Wednesday, August 27, 2008
मिशन के जज़्बे के साथ,
पकड़ी थी कलम कभी.
पहले इस कलम की स्याही
बाज़ार के रंगो की
मिलावट से बदरंग हुई...,
फिर झोलाछाप लेखनी का उस्ताद
खरी खरी कहने वाला पत्रकार
कुछ खूबसूरत से चेहरों से
बदली हो गया,
एक माइक,
दो बाइट,
तीन वीओ के ढेर सारे पत्रकार
कई बार,
वो भी ज़रुरी नहीं,
बहस पुरानी है,
लेखक और पत्रकार में
फर्क है...,
पर अगर केवल सूचनाएँ
जुटाने वाला,
टीवी,अखबारों तक पहुँचाने वाला
पत्रकार है,
तो आम आदमी और खबरनवीस में फर्क किसलिये....,
खबरें गली के चौकीदार पर भी हैं..,
मोहल्ले के बदमाश पर भी..,
और समाज का भरोसा खो चुके नेता पर
भी हैं खबरें,
फर्क इतना है कि समाज के इन तबकों के पास
उस खबर को खबर बनाने की तमीज़ नहीं है..,
पकड़ी थी कलम कभी.
पहले इस कलम की स्याही
बाज़ार के रंगो की
मिलावट से बदरंग हुई...,
फिर झोलाछाप लेखनी का उस्ताद
खरी खरी कहने वाला पत्रकार
कुछ खूबसूरत से चेहरों से
बदली हो गया,
एक माइक,
दो बाइट,
तीन वीओ के ढेर सारे पत्रकार
कई बार,
वो भी ज़रुरी नहीं,
बहस पुरानी है,
लेखक और पत्रकार में
फर्क है...,
पर अगर केवल सूचनाएँ
जुटाने वाला,
टीवी,अखबारों तक पहुँचाने वाला
पत्रकार है,
तो आम आदमी और खबरनवीस में फर्क किसलिये....,
खबरें गली के चौकीदार पर भी हैं..,
मोहल्ले के बदमाश पर भी..,
और समाज का भरोसा खो चुके नेता पर
भी हैं खबरें,
फर्क इतना है कि समाज के इन तबकों के पास
उस खबर को खबर बनाने की तमीज़ नहीं है..,
Wednesday, August 13, 2008
महीना भर,
हम जीते रहे किरदारों को
एक साथ कई कई किरदार
संग रोये,साथ हँसे
और बोये सपने अपने
अपने संवाद अच्छी तरह याद थे हमें,
पर्दा उठा नहीं कि समाँ जाते,
अपनी अपनी भूमिकाओं में
आत्मीय भूमिकाएँ
इतनी करीबी,इतनी अपनी
कि किरदार को अलग करना मुश्किल
फिर गिर गया पर्दा,
नाटक खत्म हुआ..
पोशाकों के साथ.
बदलने लगी भूमिकाएँ भी,
पर कुछ अदाकार
जो भूल ही नहीं पाये अपने संवाद,
जो निकल नहीं पाये अपने अपने किरदार से,
अब भी इस उम्मीद में हैं,
कि फिर खेला जायेगा नाटक,
फिर जीया जायेगा किरदारों को...
संग रोयेंगे,साथ हंसेंगे
और बोयेंगे सपने अपने.......
कविता बन पड़ी जानती नहीं...पर लंबे सफर पर निकले ये उन अपनों की बयानी है...जीवन की रस्सी पर पैर जमाते सब अलग अलग निकल गये...मैं उनमें से हूँ...जिन्हे ना वो किरदार भूला है....ना अपने संवाद.....।
हम जीते रहे किरदारों को
एक साथ कई कई किरदार
संग रोये,साथ हँसे
और बोये सपने अपने
अपने संवाद अच्छी तरह याद थे हमें,
पर्दा उठा नहीं कि समाँ जाते,
अपनी अपनी भूमिकाओं में
आत्मीय भूमिकाएँ
इतनी करीबी,इतनी अपनी
कि किरदार को अलग करना मुश्किल
फिर गिर गया पर्दा,
नाटक खत्म हुआ..
पोशाकों के साथ.
बदलने लगी भूमिकाएँ भी,
पर कुछ अदाकार
जो भूल ही नहीं पाये अपने संवाद,
जो निकल नहीं पाये अपने अपने किरदार से,
अब भी इस उम्मीद में हैं,
कि फिर खेला जायेगा नाटक,
फिर जीया जायेगा किरदारों को...
संग रोयेंगे,साथ हंसेंगे
और बोयेंगे सपने अपने.......
कविता बन पड़ी जानती नहीं...पर लंबे सफर पर निकले ये उन अपनों की बयानी है...जीवन की रस्सी पर पैर जमाते सब अलग अलग निकल गये...मैं उनमें से हूँ...जिन्हे ना वो किरदार भूला है....ना अपने संवाद.....।
Friday, July 25, 2008
बेटियों के लिये.......
बेटियों पर किसी मुशायरे में कुछ शेर सुने थे....दिल में उतरे शेर पहले अपनी डायरी में दर्ज किये और अब आपकी नज़्र हैं...........
उड़के इक रोज़ बहुत दूर चली जाती हैं।
बेटियाँ शाख पे चिड़ियों की तरह होती हैं।।
ऐसा लगता है कि जैसे खत्म मेला हो गया
उड़ गई आँगन से चिड़िया घर अकेला हो गया।।
रो रहे थे सब तो मैं भी फूटकर रोने लगा।
वरना मुझको बेटियों की रुखसती अच्छी लगी।।
ये बच्ची चाहती है और कुछ दिन माँ को खुश रखना,
ये कपड़ों की मदद से अपनी लंबाई छुपाती है।।
घर में रहते हुए गैरों की तरह होती है।
बेटियाँ धान के पौधों की तरह होती हैं।।
Wednesday, July 23, 2008
सांसदों मे अटकी थी सरकार की साँसे,पल पल बदलता सियासत का पारा,और मुल्क टीवी पर दलबदलू,पलटू नेताओं, पर नज़रें जमाये था.....सरकार गिरी क्या...पूरे दिन हर जुबान पर यही एक जुमला.....पर इस मुल्क मे एक मुल्क और भी था... सरकार से बेपरवाह मुल्क,वो मुल्क जिसके पेट का सवाल किसी सरकार से हल नही होता ,ऐसा नही की सियासत से इसका कोई वास्ता ही नही,नेताओं की सभाओं मे भीड़ बनकर ये भी जाता है....लेकिन कार्यकर्ताओं की फेंकी हुई झूठन खाने...ये वो मुल्क है जिसकी बढती आती खाली हथेली, कार मे इतराते अमीरों के कॉच चढवा देती है.... हर नेता चुनाव मे इस मुल्क की परवाह करता है...लेकिन चुनाव बाद ये मुल्क भाषणों के साथ नेताओँ के दिमाग से भी उतर जाता है....ताज्जुब होता है लोकतंत्र में ये ही वो मुल्क है जो सूरज की पहली किरन के साथ वोट देने जाता है,...और सरकार बनाता है।
Wednesday, July 16, 2008
मेरी चैनल दोस्त का आज फ़ोन आया उसने पूछा यार भगवान् पर कोई कहानी बता ना,अभी तक हम ख़बरों पर बातें किया करते थे ,इंसानों की खबरें,हमारे आस पास जो अनदेखा अन्जाना,अनचीन्हा,उनकी खबरें,टी आर पी का खेल देखिये हम भगवन की ख़बर लेने लगे.छोटे थे तौ माँ कहती थी,उपरवाला सबकी ख़बर लेता है,तब वो भी कहाँ जानती थी, की टीवी वाले एक दिन उपरवाले की भी ख़बर ले लेंगे.उस पैर गज़ब ये की अब ख़बरवाले ही बताएँगे की किस भगवन की टीआरपी कितनी है.अभी ४ ,६ महीने पहले तक शनिदेव का हल्ला था,लेकिन अब साईंदेव का बोलबाला है.शिर्डी में और उनके भक्तों के दिलमें तौ साईं पहले से हैं.क्या हुआ जो कैमरे की नज़र अभी पड़ी.बाबा तौ वैसे ही हैं लेकिन साईं के सहारे चेनलों की नैय्या पार लग गई. बाबा भी सोचते होंगे जब इतने भक्तों का रोज़ भला करता हूँ तौ बेचारे ख़बरवालों नए क्या बिगाडा है...अब और इन्तेज़ार नही यही दौर जारी रहा,तौ एक दिन सत्यनारायण की कथा भी ख़बर बनेगी.और सूतजी किसी चैनल के स्टूडियो मे मोर्चा संभाले,टीवी भक्तों को विष्णु भगवान् की कथा सुनकर कह रहे होंगे,कलयुग मे विष्णु भगवान् टीआरपी देव के रूप मे जाने जायेंगे.अब जो देश भगवान् भरोसे है चैनल भगवन भरोसे हो गए तौ क्या बुरा है.
Thursday, July 3, 2008
Monday, June 23, 2008
Saturday, May 17, 2008
मोहल्ला.......,मेट्रोज़ में अब इस पर कॉलोनी नाम की कलई चढ़ गई...लेकिन इस मोहल्ले की बात ही और है... रोटी पानी की भागदौड़ में,वो अपनापन और सुकूँन देने वाला मेरा मोहल्ला.... इधर हफ्ते भर पहले जब माँ के घर जाना हुआ....तो देखा मेरा मोहल्ला खाली हो रहा है....बाबूओं की बस्ती खाली कर देने के सरकारी फरमान के बाद...रोज़ एक घर एक ट्रक में उँडेला जाता है....एक ट्रक में एक टूटी अलमारी,पलंग,बरतन ही नहीं जाते....यादें भी जा रही हैं...बचपन जा रहा है...मध्यप्रदेश बनने के बाद छोटे छोटे गाँवों कस्बों से इस शहर में आकर अपने संघर्ष साझा करने वाले मेरे पिता के साथी जा रहे हैं....मेरे कई सारे चाचा जा रहे हैं....दो चार साल बड़े वो भाई जा रहे हैं...जो खुद ही मोहल्ले की बेटियों की हिफाज़त करने की जवाबदारी ले लिया करते थे...सरकार की नज़र में बूढ़े हो चले इस घर में ही तो मेरे पिता बूढ़े हुए....और उनका बेटा मेरा भाई खुद पिता बन गया...मित्रा बाबू का वो मकान भी खाली हो गया...जिसमें बूबू पाकू के साथ मैंने घर घर खेलना सीखा था....गृहस्थी का पहला सबक था वो खेल...दूध से जले हाथ पर मरहम लगाने वाले निगंम अंकल मकान छोड़ने से कुछ दिन पहले दुनिया ही छोड़ गये...लेकिन टिमी लिमी जा रही हैं...मुझसे बहुत छोंटी...मेरी दोस्त जिनकी बदौलत मेरा बचपन उम्र बीत जाने के बाद भी बरकरार रहा...गर्मियों के दिनों में स्कूलों की छुट्टियाँ लगने के बाद हमारे मोहल्ले में बेटियाँ भी माँ के घर लौट आती हैं...अबकि अपने घर मोहल्ले दीदी आखिरी बार आई हैं...और अपनी आँखों के आगे उस घर आँगन को उजड़ते देख रही हैं... जिस घर में उनके सपनों की बारात आई थी...जिस घर से उठी थी उनकी डोली....अब पिता की उम्र भर की कमाई के बंगले कहाँ बन पायेगा माँ का घर...इस छोटे से घर में एक कमरे की कमी हमेशा होती थी...लेकिन कभी मेहसूस नहीं हुआ कि बड़ी हवेलियाँ भी उस छोटे से मकान की जगह नहीं ले पाएंगी...एक और बात हवेलियों बंगलों में अब सब अपनी अपनी हैसियत से बड़े छोटे हो जायेंगे...मेरे मोहल्ले के उन झाड़ियों में सिर दिये मकानों में सब एक थे...सबके घर एक से,दीवारें एक सी...और आँगन एक से...दिवाली की खुशियाँ एक सी...होली के रंग एक से...पर अब सब बदल जायेंगे...पता नहीं जब मेरे घर की छाती पर खड़ा होगा मल्टीप्लेक्स तो मेरी नानी के लगाये आम का क्या होगा....नन्ना के घर के जाम का क्या होगा....और आँगन में लगी उस नीम का क्या होगा...जिसकी छाँव में हम सात भाई बहनों ने स्कूल से कॉलेज तक खत्म किया...अम्मा के सामने तो बावन साल जैसे किसी फिल्म के फ्लशबैक की तरह गुज़र गये...कहती है...अभी तो आये थे ग्वालियर से...घर छोड़ के जाने की घड़ी भी आ गई...सरकार के लिये होंगे सिर्फ साऊथ टीटी नगर...नार्थ टीटी नगर के बंटवारे में भोपाल की बाबूबस्तियाँ....लेकिन हमारा तो ये मोहल्ला है....खेलना कूदना...लड़ना जूझना, मोहब्बत सिखाने वाला मोहल्ला....कमल गुड्डू का मोहल्ला...जोशी शर्मा का मोहल्ला....मेरा मोहल्ला ....जहाँ इनदिनों ट्रकों में भरकर सिर्फ सामान नहीं,ज़िन्दगी के सुनहरे दिन जा रहे हैं...
Tuesday, May 13, 2008
संबंधों की घनी बुनाई में
बाहर रह गया एक छोटा सा तागा
सिरा जो़ड़ती चली गई
उधड़ता ही गया संबंधों का ताना बाना
मुझे भी सालों लग थे इसे बुनने में,
एक एक रिश्ते की सलाई पर
करती रही जज़्बातों को दो का चार
इन्ही में दो उल्टे तीन सीधे भी पड़े
कुछ अनबुने छूट भी गये...
उन्ही में से हैं ये कुछ धागे
उधड़ गये हैं...
सिरे से टूट गये हैं...
जोड़ती हूँ तो गठान पड़ती है...
सोचती हूँ कि छोड़ दूँ इनको.......
बाहर रह गया एक छोटा सा तागा
सिरा जो़ड़ती चली गई
उधड़ता ही गया संबंधों का ताना बाना
मुझे भी सालों लग थे इसे बुनने में,
एक एक रिश्ते की सलाई पर
करती रही जज़्बातों को दो का चार
इन्ही में दो उल्टे तीन सीधे भी पड़े
कुछ अनबुने छूट भी गये...
उन्ही में से हैं ये कुछ धागे
उधड़ गये हैं...
सिरे से टूट गये हैं...
जोड़ती हूँ तो गठान पड़ती है...
सोचती हूँ कि छोड़ दूँ इनको.......
Saturday, April 26, 2008
ऑपरेशन तितली....तितली के साथ ,ऑपरेशन जैसा चीरफाड़ का लफ्ज़ तितली की खूबसूरती पर फिदा जज़्बाती लोगों को अजीब लग सकता है...लेकिन खबरों की दुनिया में...टीआरपी की होड़...और भेड़चाल पत्रकारिता की दौड़ में...ये खूब चलता है....तितली उड़ी उड़ के चली...चैनलों ने कहा, आजा मेरे पास तितली कहे चल बदमाश...ये किस्सा उस खुशकिस्मत तितली का है...जो किसी संवेदनशील कार मालिक की कार के वाइपर से जा टकराई....यूँ तितलियों काकरोचों और चींटे चीटियों की शवयात्रा हमारे हाथों और पैरों तले रोज़ निकलती हैं....लेकिन टीवी चैनलों पर आने वाले भाग्यवक्ताओं की ज़ुबान में इस तकदीर वाली तितली की बात और है...कार के वाइपर से तितली के बाँय़े पंख में गंभीर चोट आई...टक्कर इतनी जबर्दस्त थी कि तितली कुछ वक्त के लिये तो बेहोश हो गई...फिर जब आँख खुली तो देखा वो इस वक्त उससे पूरी सहानुभूति रखने वाले कार मालिक की हथेलियों पर पसरी है...एक पल को तितली रानी कुछ समझ भी नहीं पाई कि उसे कहाँ ले जाया जा रहा है...फिर पता चला कि ये अस्पताल है...अब रोज़ बागों में बच्चों के हाथों अपनी कई बहनों माँ मौसियों और नानिओँ को मसलते मरते देख चुकी तितली क्या जाने अस्पताल....लेकिन भाग्य जो दिखाये...अब वो डॉक्टर के मेहफूज़ हाथों में भी पहुँच गई...ये और बात है कि डॉक्टर साहब को घायल तितली के इलाज का कोई तर्जुबा नहीं था...डॉक्टर साहब ने प्रयोगधर्मिता का परिचय दिया...फेवीकॉल के मज़बूत जोड़ वाली फेवीक्विक से पंखों को जोड़ दिया...डॉक्टरी पेशे पर आँच ना आये तो साथ में एन्टीबॉयोटिक भी लगा दी...और फिर तितली रानी को पंद्रह मिनिट आराम करने अकेला छोड़ दिया गया....अच्छे मरीज़ की तरह तितली रानी ने पंद्रह मिनिट बाद आँखें खोली...और बगैर फीजियोथेरेपिस्ट का सहारे लिये उड़ना शुरु भी कर दिया...पहली उड़ान भी सीधे डॉक्टर के एप्रिन तक...खैर तितलियों के समाज में इस ऑपरेशन के बाद इंसानों के लिये सहानुभूति जागी हो या नही...लेकिन हम टीवी वालों की जमात ने तितली के ऑपरेशन से एक दिवसीय टीआरपी की जंग तो जीत ही ली...तो अब जब कभी आप कहीं से गुज़रें तो ख्याल रखें...इंसान गिरते पड़ते रहते हैं...कोई तितली कोई काक्रोच चींटी...नज़र आ जाये तो उसे तुरत जानवरों के डॉक्टर के पास ले जायें...खुद टीवी पर आकर शोहरत पायें और हमारी भी टीआरपी बढवायें......
Wednesday, March 12, 2008
ट्रक टॉक
कभी सड़क मार्ग से लंबे सफर पर गये होंगे तो सामने से सीधे अपनी तरफ आते ट्रकों से बातचीत ज़रुर हुई होगी...पहली नज़र में तो डराते हैं बुरी तरह..जानलेवा मालूम होते हैं...लेकिन ज़रा गौर कीजिये...,तो इन ट्रकों में आपको पूरा एक चेहरा नज़र आयेगा..सामने दो बड़ी बड़ी आँखें..,और नीचे इंजन के आगे का हिस्सा जैसे ट्रक ज़ोर का ठहाका लगा रहा हो..किस्मत से चुनाव की रिपोर्टिंग में सड़क नापते बहुत करीब से इन ट्रकों से बतियाने का मौका मिल गया..ये उसी की बयानी है...ज़रुरी नहीं है कि हर ट्रक हँसता खिलखिलाता ही नज़र आये...कुछ ट्रक गुस्सैल भी होते हैं..कहीं किसी ट्रक के चेहरे पर वक्त पर मुकाम तक पहुँचने का तनाव और सड़क पर अपने ही जैसे किसी दोस्त से मिले घाव भी नज़र आ जाते हैं..सब खुशकिस्मत नहीं होते कि हँसते हँसाते सफर तय कर जायें...हमारी तुम्हारी ज़रुरतों के बोझ से कमर टूट जाती है तो बेचारे औँधे मूँह गिरे पड़े होते हैं रास्ते के किसी मोड़ पर..कान नहीं आँख से सुनिये तो जानेंगे कि ट्रक बोलते भी हैं..ज़िन्दगी के बहुत से फलसफे, कुछ खास किस्म के शेर तो जैसे केवल ट्रकों के बैकबोर्ड के लिये ही बने हैं..बुरी नज़र वाले तेरे बच्चे जीयें बढ़े होके तेरा खून पीये..,आई तूझा आर्शीवाद,काले हैं तो क्या हुआ दिल वाले हैं..चलती है गड्ढी उड़ती है धूल...काँटो के सफर में ही मिलते हैं फूल....इन ट्रकों में भी हम इंसानों की तरह जवान और बूढ़े होते हैं..,कोई इकदम सजे संवरे दूल्हे राजा फ्रेश,तो कोई बेचारा बूढ़ा बदहाल..,एक तरफ कमर झुकाये किसी तरह चलता..जैसे कराहता कह रहा हो अबना उठाया जाता मुझसे तुम इंसानों का बोझ...हमारी तरह वो भी हिन्दु मुस्लिम सिख इसाई होते हैं ..लेकिन इनके लिये भी इंसानियत की तरह सड़कों पर दौड़ना और मंजिल तक वक्त पर पहुँचना सबसे बड़ा धर्म है.........
कभी सड़क मार्ग से लंबे सफर पर गये होंगे तो सामने से सीधे अपनी तरफ आते ट्रकों से बातचीत ज़रुर हुई होगी...पहली नज़र में तो डराते हैं बुरी तरह..जानलेवा मालूम होते हैं...लेकिन ज़रा गौर कीजिये...,तो इन ट्रकों में आपको पूरा एक चेहरा नज़र आयेगा..सामने दो बड़ी बड़ी आँखें..,और नीचे इंजन के आगे का हिस्सा जैसे ट्रक ज़ोर का ठहाका लगा रहा हो..किस्मत से चुनाव की रिपोर्टिंग में सड़क नापते बहुत करीब से इन ट्रकों से बतियाने का मौका मिल गया..ये उसी की बयानी है...ज़रुरी नहीं है कि हर ट्रक हँसता खिलखिलाता ही नज़र आये...कुछ ट्रक गुस्सैल भी होते हैं..कहीं किसी ट्रक के चेहरे पर वक्त पर मुकाम तक पहुँचने का तनाव और सड़क पर अपने ही जैसे किसी दोस्त से मिले घाव भी नज़र आ जाते हैं..सब खुशकिस्मत नहीं होते कि हँसते हँसाते सफर तय कर जायें...हमारी तुम्हारी ज़रुरतों के बोझ से कमर टूट जाती है तो बेचारे औँधे मूँह गिरे पड़े होते हैं रास्ते के किसी मोड़ पर..कान नहीं आँख से सुनिये तो जानेंगे कि ट्रक बोलते भी हैं..ज़िन्दगी के बहुत से फलसफे, कुछ खास किस्म के शेर तो जैसे केवल ट्रकों के बैकबोर्ड के लिये ही बने हैं..बुरी नज़र वाले तेरे बच्चे जीयें बढ़े होके तेरा खून पीये..,आई तूझा आर्शीवाद,काले हैं तो क्या हुआ दिल वाले हैं..चलती है गड्ढी उड़ती है धूल...काँटो के सफर में ही मिलते हैं फूल....इन ट्रकों में भी हम इंसानों की तरह जवान और बूढ़े होते हैं..,कोई इकदम सजे संवरे दूल्हे राजा फ्रेश,तो कोई बेचारा बूढ़ा बदहाल..,एक तरफ कमर झुकाये किसी तरह चलता..जैसे कराहता कह रहा हो अबना उठाया जाता मुझसे तुम इंसानों का बोझ...हमारी तरह वो भी हिन्दु मुस्लिम सिख इसाई होते हैं ..लेकिन इनके लिये भी इंसानियत की तरह सड़कों पर दौड़ना और मंजिल तक वक्त पर पहुँचना सबसे बड़ा धर्म है.........
Wednesday, March 5, 2008
मैं जानती हूँ,
मेरे आँसूओं में हमेशा तुम्हे
कोई संदिग्ध दर्द नज़र आयेगा
मेरे चेहरे पर जमी उदासी पर
तुम लगाओगे अपनी अपनी तरह से
अनुमान,
मेरी हँसी
हमेशा से तुम्हारे लिये.
किसी को रिझा लेने का पर्याय ही रही है..
मैं अपनी दुनिया बदल भी लूँ
बदल लूँ ,
अपनी सोच और हालात,
लेकिन तुम कब तक
गर्त में पड़े रहोगे
और तुम्हारे ज़ेहन से आती रहेगी
सड़ाँध
घड़ी भर के लिये औरत बनकर देखो
जान जाओगे
कि तुम
कोख के अंधेरों से
बाहर ही नहीं आये हो
अब तक
( मेरी ही जैसी उन तमाम लड़कियों के नाम,जो शाम ,काम से घर लौटने के बाद अपनी देह से जाने कितनी निगाहों को निकाला करती हैं)
मेरे आँसूओं में हमेशा तुम्हे
कोई संदिग्ध दर्द नज़र आयेगा
मेरे चेहरे पर जमी उदासी पर
तुम लगाओगे अपनी अपनी तरह से
अनुमान,
मेरी हँसी
हमेशा से तुम्हारे लिये.
किसी को रिझा लेने का पर्याय ही रही है..
मैं अपनी दुनिया बदल भी लूँ
बदल लूँ ,
अपनी सोच और हालात,
लेकिन तुम कब तक
गर्त में पड़े रहोगे
और तुम्हारे ज़ेहन से आती रहेगी
सड़ाँध
घड़ी भर के लिये औरत बनकर देखो
जान जाओगे
कि तुम
कोख के अंधेरों से
बाहर ही नहीं आये हो
अब तक
( मेरी ही जैसी उन तमाम लड़कियों के नाम,जो शाम ,काम से घर लौटने के बाद अपनी देह से जाने कितनी निगाहों को निकाला करती हैं)
छोटे थे तो तय थे ज़िन्दगी के दायरे
और मकसद,
हसरतें रुई के गुड्डे
आटे की लोई की गुड़िया से
पूरी हो जाती
फिर चूड़ी
बिन्दी,
पीली फ्राक
सलवार कमीज़
भाई की तरह
पतलून,गाड़ी और पूरी आज़ादी
अब ये छोटी छोटी खुशियाँ तो
खरीद सकती हूँ
लेकिन हसरतें बदल गई हैं
उम्र एक ऐसे मुहाने पर खड़ी है
तय करना मुश्किल है,
कि ज़िन्दगी से चाहती क्या हूँ
एक कामयाब लड़की,
या गृहस्थी की गाड़ी में घिसटती
हर हाल में एक खुशमिज़ाज औरत.......
( 2005 में किसी दिन...तारीख याद नहीं कब लिख्खी थी...कविता है या अपने दिल को उँडेला है जो कह लीजिये...डायरी का पन्ना फट चला था सो,अपने ब्लॉग में इसे टाँक दिया।)
और मकसद,
हसरतें रुई के गुड्डे
आटे की लोई की गुड़िया से
पूरी हो जाती
फिर चूड़ी
बिन्दी,
पीली फ्राक
सलवार कमीज़
भाई की तरह
पतलून,गाड़ी और पूरी आज़ादी
अब ये छोटी छोटी खुशियाँ तो
खरीद सकती हूँ
लेकिन हसरतें बदल गई हैं
उम्र एक ऐसे मुहाने पर खड़ी है
तय करना मुश्किल है,
कि ज़िन्दगी से चाहती क्या हूँ
एक कामयाब लड़की,
या गृहस्थी की गाड़ी में घिसटती
हर हाल में एक खुशमिज़ाज औरत.......
( 2005 में किसी दिन...तारीख याद नहीं कब लिख्खी थी...कविता है या अपने दिल को उँडेला है जो कह लीजिये...डायरी का पन्ना फट चला था सो,अपने ब्लॉग में इसे टाँक दिया।)
Wednesday, February 13, 2008
एक दिन प्यार का......
वैलेन्टाइन्स डे मनाया तो कभी नहीं लेकिन टेलीविज़न पर वैलेन्टाइन्स की कहानियाँ करते तमाशे खूब देख रही हूँ...वक्त के साथ साथ ये तमाशे बढ़ते ही जा रहे हैं..मोहब्बत करने वालों से ज्यादा मोहब्बत के दुश्मनों और रखवालों पर चढ़ी रही है प्यार के इस दिन की खुमारी,..एक रुमानी अहसास यहाँ सड़क छाप मजमा बन गया है..और प्रेम के दिन पर भी हौले हौले चढ़ने लगा है सियासत का रंग..मध्यप्रदेश में बीजेपी की सरकार में भगवा ब्रिग्रेड का प्रेमियों के लिये एलान....प्यार किया है तो ब्याह भी रचाओ...कांग्रेस ने दो कदम आगे बढ़कर प्रेमियों की हिफाज़त करने मोहब्बत के मैदान में पहलवान उतार दिये हैं, लेकिन प्यार करने वाले कभी डरते नहीं...इन सारे तमाशों से बेपरवाह दो दिल तो बगीचों में,पेड़ों की छाँव तले गुम है..उस अहसास में जिसे प्यार कहते हैं। कुछ दस साल पहले, हमारे शहर में भी प्यार के इस दिन ने दस्तक दे दी थी..एक दिन प्यार का..दिल में छिपे जज़्बातों के इज़हार का.. सुर्खगुलाब प्यार की ज़ुबान बन जाते हैं...और एक कली के सहारे दिल तक पहुँच जाती है दिल की बात..प्यार खामोश है...लेकिन दुनिया बोल रही है...बहुत ऊँची आवाज़ में...प्रेम के हक़ में भी खिलाफत में भी...एक बहस सी छिड़ गई है...जैसे वेलेन्टाइन्स डे से बड़ी कोई सामाजिक बुराई नहीं...और अगर आज प्रेमियों की हिफाज़त नहीं कि तो दो नज़रों के मिलते ही पनपने वाला प्यार का पौधा मुऱझा ही जायेगा हमेशा के लिये...जैसे प्रेम आज ही पैदा हुआ ...और भोपाल में सड़कों पर इसके विरोध में उतरे बजरंगियों से डरकर दिलों से खत्म भी हो जायेगा....वेलेन्टाइन डे के नाम पर कोई प्रेमी प्रेमिका तो सुर्खियों में नहीं आये लेकिन इस दिन को अपनी सस्ती लोकप्रियता के लिये भुनाने वालों की पौ बारह हो गई ...भोपाल में तो कुछ हुड़दंगियों ने प्रेमियों के इस पर्व के खिलाफ होर्डिंग भी लगवा दी है...जिस पर लिख्खा है...वैलेन्टाइन डे के दिन सुबह घर से निकली आपकी बेटी क्या शाम को कुँआरी लौटेगी...?मेरी सलाह है किसी बेटी की इस कदर फिक्र करने वाले इन लोगों को...अव्वल तो 364 दिन भी इन बेटियों के बाप बने रहें...और आप मर्दों की इस दुनिया में तकरीबन रोज़ हमारे आस पास बेइज्ज़त हो रही औरत की खातिर..कभी पुऱुषों के लिये भी एक होर्डिंग लगवायें...और सवाल करें...कहीं आपके मन में तो नारी के लिये मैल नहीं...खैर कहाँ उलझ गये हम...प्यार से नफरत की दुनिया में आ गये..मोहब्बत करने वालों के लिये बजरंगियों ने और भी इंतज़ाम किया है...जबरन ब्याह कराने का बंदोबस्त है...बजरंगियों बहुत से बाप हैं जिनके सर पर पाँच पाँच बेटियों का बोझ है...उनका कन्यादान करो...पुण्य मिलेगा।और ग़ज़ब सुन लीजिये...प्यार के मैदान में पहलवान भी उतर गये...अपना कसरती बदन दिखाने तरस रहे पुराने भोपालियों को वेलेन्टाइन डे ने जैसे मौका दे दिया..प्यार के कोमल अहसास को अब पहलवान अपनी ताकत से बचायेंगे...इतना ही नहीं,छुटभैयी महिला नेत्रियाँ हनुमानजी का गदा और लाठियाँ लेकर प्यार करने वाले दो दिलों की हिफाज़त करने के दावे कर रही हैं...जैसे प्यार ना हुआ..कुश्ती का अखाड़ा हो गया...लाल बत्ती के सपने देख रही पॉलिटिक्स की नई पौध फिर क्यों पीछे रहती...संत वैलेन्टाइन का नाम लेकर वो भी कूद पड़े..और कुछ नहीं तो चार छै लोकल और कुछ नेशनल टीवी चैनलों की खबरों में चेहरे ही आ जायेंगे..कैमरे के इशारों पर गाँधीगिरी कहकर चंद लोगों को फूल बाँटे और वेलेन्टाइन डे धूमधाम से मनाने की अपील के साथ तमाम चैनलों के माइक पर राष्ट्र के नाम संदेश भी दे दिया....ये सारे तमाशे सड़कों पर चलते रहे...और प्यार करने वाले फिर भी प्यार करते रहे..जिसकी खातिर दिल धड़कता है..ये साँसे चलती हैं..बताइये भला, प्रेम के इस घोषित दिन पर उस हमनफस से मुलाकात कैसे ना हो..प्यार के बैरी चौराहों पर चिल्लाते रह गये...और कहीं झील के किनारे कहीं कड़वी नीम के साये में दिल से दिल की मीठी मीठी बात हो भी गई.....
Tuesday, February 12, 2008
पाती, राज ठाकरे के नाम
राज ठाकरे नही चाहते की उत्तर भारतीय मुम्बई में रहें ...अब मिश्रा जी भी नही चाहते की बंगाल से आए मछली खाने वाले मित्रा बाबू से वो पडोसियाना निभाएं,लेकिन मनसा की तरह उनकी अपनी कोई सेना नही है और ना ही इतनी हैसियत की गाडी कमाई से मिश्राजी के पड़ोस मे लिए हुए मित्रा साहब के घर को वो दबिश से खाली करा सकें,जिस तरह की जोर जबरदस्ती मुम्बई मे रह रहे उत्तर भारतीयों के साथ हुई है...राज के मुम्बई पर राज करने के इस अंदाज़ के विस्तार मे जाइये महसूस करेंगे आप की इस बयान से अपने ही आसपास कितना कुछ दरकने लगा है...कोई उस बयान के हक मे है कोई खिलाफत में ,बीच की सोच रखने वाला सोच रहा है कल,गाँव और शहर का झगडा तो नही खड़ा हो जाएगा,..फिर बबुआ को पढ़ा लिखा कर बड़ी नौकरी करने कहाँ भेजूँगा,वो उत्तर भारतीय हो,देश की किसी दिशा से आया हो,वो इस पर गुस्साता है,जो कहता है आप भी सुनिये,माना जनाब मुम्बई आपकी है,उसकी भाषा आपकी,संस्कृति आपकी,पर सौतेले ही सही संतान हम भी हैं उस मुम्बा माँ की..जिसने आपको अगर अपने दुलार से हम पर गरियाने की इजाज़त दी है..तो हमे भी अपने आँचल मे फलने फूलने का हौसला दिया है,और हमने भी इस माँ से कभी दगा नही किया,मुम्बई बम ब्लास्ट से लेकर बाढ़ और रोज़ होने वाली तमाम मुसीबतों मे जब वक्त पड़ा तो हम भी उसके काम आयें हैं,माना हम उत्तर के हैं बरसों पहले अपना वतन छोड़कर मुम्बैया हो गए हम लोगो ने भी अपनी उमर का पसीना आपके शहर के नाम लिखा है,फिर भी जानते हैं हम की बेगाने हैं,लेकिन अब आप जवाब दीजिये,जुहू बीच के किनारे छट पूजा करने वाले हम लोग अपनी उन संतानों को क्या जवाब दें जो हमारी जड़ों को काट कर आपके रंग मे रंग गई हैं,आपकी बदसलूकी बर्दाश्त है हमें,लेकिन हम अपने उन बच्चों का क्या करें,जो भोजपुरी भूलकर मराठी बोलने लगे हैं,हम गंगा किनारे के बुडे माँ बाप पिछडे हैं जिनके लिए,पश्चिम के हो चले गंगा मैया के इन बच्चों की भी कोई शिनाख्त बता दें मुम्बई के राज ठाकरे साहब.
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