Wednesday, March 12, 2008

ट्रक टॉक

कभी सड़क मार्ग से लंबे सफर पर गये होंगे तो सामने से सीधे अपनी तरफ आते ट्रकों से बातचीत ज़रुर हुई होगी...पहली नज़र में तो डराते हैं बुरी तरह..जानलेवा मालूम होते हैं...लेकिन ज़रा गौर कीजिये...,तो इन ट्रकों में आपको पूरा एक चेहरा नज़र आयेगा..सामने दो बड़ी बड़ी आँखें..,और नीचे इंजन के आगे का हिस्सा जैसे ट्रक ज़ोर का ठहाका लगा रहा हो..किस्मत से चुनाव की रिपोर्टिंग में सड़क नापते बहुत करीब से इन ट्रकों से बतियाने का मौका मिल गया..ये उसी की बयानी है...ज़रुरी नहीं है कि हर ट्रक हँसता खिलखिलाता ही नज़र आये...कुछ ट्रक गुस्सैल भी होते हैं..कहीं किसी ट्रक के चेहरे पर वक्त पर मुकाम तक पहुँचने का तनाव और सड़क पर अपने ही जैसे किसी दोस्त से मिले घाव भी नज़र आ जाते हैं..सब खुशकिस्मत नहीं होते कि हँसते हँसाते सफर तय कर जायें...हमारी तुम्हारी ज़रुरतों के बोझ से कमर टूट जाती है तो बेचारे औँधे मूँह गिरे पड़े होते हैं रास्ते के किसी मोड़ पर..कान नहीं आँख से सुनिये तो जानेंगे कि ट्रक बोलते भी हैं..ज़िन्दगी के बहुत से फलसफे, कुछ खास किस्म के शेर तो जैसे केवल ट्रकों के बैकबोर्ड के लिये ही बने हैं..बुरी नज़र वाले तेरे बच्चे जीयें बढ़े होके तेरा खून पीये..,आई तूझा आर्शीवाद,काले हैं तो क्या हुआ दिल वाले हैं..चलती है गड्ढी उड़ती है धूल...काँटो के सफर में ही मिलते हैं फूल....इन ट्रकों में भी हम इंसानों की तरह जवान और बूढ़े होते हैं..,कोई इकदम सजे संवरे दूल्हे राजा फ्रेश,तो कोई बेचारा बूढ़ा बदहाल..,एक तरफ कमर झुकाये किसी तरह चलता..जैसे कराहता कह रहा हो अबना उठाया जाता मुझसे तुम इंसानों का बोझ...हमारी तरह वो भी हिन्दु मुस्लिम सिख इसाई होते हैं ..लेकिन इनके लिये भी इंसानियत की तरह सड़कों पर दौड़ना और मंजिल तक वक्त पर पहुँचना सबसे बड़ा धर्म है.........

Wednesday, March 5, 2008

मैं जानती हूँ,
मेरे आँसूओं में हमेशा तुम्हे
कोई संदिग्ध दर्द नज़र आयेगा
मेरे चेहरे पर जमी उदासी पर
तुम लगाओगे अपनी अपनी तरह से
अनुमान,
मेरी हँसी
हमेशा से तुम्हारे लिये.
किसी को रिझा लेने का पर्याय ही रही है..
मैं अपनी दुनिया बदल भी लूँ
बदल लूँ ,
अपनी सोच और हालात,
लेकिन तुम कब तक
गर्त में पड़े रहोगे
और तुम्हारे ज़ेहन से आती रहेगी
सड़ाँध
घड़ी भर के लिये औरत बनकर देखो
जान जाओगे
कि तुम
कोख के अंधेरों से
बाहर ही नहीं आये हो
अब तक
( मेरी ही जैसी उन तमाम लड़कियों के नाम,जो शाम ,काम से घर लौटने के बाद अपनी देह से जाने कितनी निगाहों को निकाला करती हैं)
छोटे थे तो तय थे ज़िन्दगी के दायरे
और मकसद,
हसरतें रुई के गुड्डे
आटे की लोई की गुड़िया से
पूरी हो जाती
फिर चूड़ी
बिन्दी,
पीली फ्राक
सलवार कमीज़
भाई की तरह
पतलून,गाड़ी और पूरी आज़ादी
अब ये छोटी छोटी खुशियाँ तो
खरीद सकती हूँ
लेकिन हसरतें बदल गई हैं
उम्र एक ऐसे मुहाने पर खड़ी है
तय करना मुश्किल है,
कि ज़िन्दगी से चाहती क्या हूँ
एक कामयाब लड़की,
या गृहस्थी की गाड़ी में घिसटती
हर हाल में एक खुशमिज़ाज औरत.......
( 2005 में किसी दिन...तारीख याद नहीं कब लिख्खी थी...कविता है या अपने दिल को उँडेला है जो कह लीजिये...डायरी का पन्ना फट चला था सो,अपने ब्लॉग में इसे टाँक दिया।)