क्यों होती है दुनिया गोल ...
क्यों जिन रास्तों से शुरु हुए
लंबे सफर के बाद फिर
वहीं खड़े हो जाते हैं हम...
क्यों उम्र के बाद
वक्त के साथ
नहीं बदल पाता ज़िन्दगी का भी चेहरा
क्यों फिर वही एक शख्स
अपने हिस्से में पूरी बिसात लिये मिलता हैं..
और हमारे हिस्से आती है फिर सिर्फ मात
क्यों हम ही बने रहते हैं
किसी और की शह
पर चलने
दौड़ने वाले
लाचार मोहरे....
और
मरते रहते हैं रोज़,
कई कई बार,
कोई तो बताये......
Tuesday, November 25, 2008
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
2 comments:
किसने कहा दूजे के बनाए कायदो को माने...
काहे किसी बिछी-बिसात में मोहरा बन जाएँ...
माद्दा है काले-सफेद मोहरों की छाया से बचने का,
खुद अपना रास्ता बनाएँ मंजिल पर पहुँच जाएँ..
माना कि दुनिया गोल है
लेकिन नीला आसमां तो हमारे लिए है..
पंख फैलाएँ और उड़ जाएँ...
जी चाहे तो कभी चिड़िया, कभी बाज बन जाएँ..
बहुत ही भावः पूर्ण रचना /थोड़े शब्दों में बहुत कुछ कहना इसको कहा गया है ""अरथ अमित अति आखर थोरे ""
Post a Comment