Tuesday, May 13, 2008

संबंधों की घनी बुनाई में
बाहर रह गया एक छोटा सा तागा
सिरा जो़ड़ती चली गई
उधड़ता ही गया संबंधों का ताना बाना
मुझे भी सालों लग थे इसे बुनने में,
एक एक रिश्ते की सलाई पर
करती रही जज़्बातों को दो का चार
इन्ही में दो उल्टे तीन सीधे भी पड़े
कुछ अनबुने छूट भी गये...
उन्ही में से हैं ये कुछ धागे
उधड़ गये हैं...
सिरे से टूट गये हैं...
जोड़ती हूँ तो गठान पड़ती है...
सोचती हूँ कि छोड़ दूँ इनको.......

1 comment:

आशीष कुमार 'अंशु' said...

बहूत सुन्दर कविता