Monday, December 28, 2009


उसे दिन रात पड़ती हूँ....'
उसी मे गुम सी रहती हूँ
वो एक नादान सपना सा
मेरे घर बन के आया जो
कोई भगवान् ,अपना सा

वो जागे तब सुबह होती
जो सोये रात होती है
वो हर मसले का हल जैसे
उम्मीदों का हो कल जैसे
मै जब भी ज़िदगी की मुश्किलों से हार जाती हूँ
वो उसकी नीमकश आँखें
मुझे कहती हैं जीना है !!
ज़माना कितने गम दे दे
मेरी खातिर वो पीना है
भरोसा रख, की तेरे ही भरोसे दुनिया मे आया
के जिसने के कल की बेटी और बहन को माँ बनाया है
यही है मेरा सरमाया,
ये मेरी कोख का जाया......
जिसे दिन रात पढ़ती हूँ.......!!!!!

Wednesday, December 23, 2009

किसी ने भाई को खोजा
किसी ने बाप का साया
किसी ने प्यार साजन का
मेरे संसार मे पाया
कोई जब हो गया आहत
यहाँ पहुंचा मिली राहत
कोई था दूर सपनो से
कोई हैरान अपनों से
उन्ही मे से हैं कुछ आज
जैसे गीत के संग साज़
वो आकर जब इक्कठे हों
ठिठोली ,हंसी ठठे हों
सभी आज़ाद होते हैं
यूँ हम आबाद होते हैं
नहीं हम कुछ भी हैं वरना
हुआ जीना ,की जयूँ मरना
मगर अब हमने है जाना
हमारी भी क्या हस्ती है
है इक वीरान दिल लेकिन
उसी मे खूब मस्ती है
अकेले मुझमे शामिल
वाह, कितने लोग रहते हैं
रहीं ख्वाइश अधूरी जो
तो ये तो योग रहते हैं
हमारी कुंडली नीची
हैं रेखाएं कटी सारी
तभी तो भाग्य से पायी
ना उम्मीदी औ लाचारी
खुदा तू इस तरह से
किसी को लाचार मत करना
सुनो लाचार लोगों
तुम किसी से प्यार मत करना
.............................................................अनिल गोयल
ऐसी ही है अनिल जी की दुनिया...,है इक दिल जिसमे शामिल जाने कितने लोग रहते हैं...उन्ही बेगानों अपनों के नाम कोई पांच साल पहले लिखी उनकी ये नज़्म मेरे हाथ लग गयी...कई साल तक डायरी मे महफूज़ रही .......पर अब आपकी नज़र है......

Wednesday, September 16, 2009

2009 के नौ तपे का
पहला ही दिन
झुलसा गया
वो जो बचाता
रहा हमें,
हवा ,पानी, और धूप से
या कि
देता रहा निरंतर
हवा,पानी और धुप
नौ तपे के
पहले ही दिन
धधकती आग मे
रख आए उसे .................
- अनिल गोयल
( जज़्बात के लिए ज़रूरी नही होते खून के नाते.....और हमेशा नाम से तय होने वाले रिश्तों के चेहरे ,वरना शमशान घाट से बहुत दूर ,मेरे पिता को करीब से भी ना जानने वाले हाथों से कैसे उतर आते ये दर्द भरे अशार....जिनसे लिखने की तमीज़ सीखी...आज उन्होंने फिर सबक दिया की पिता के बगैर मुसीबत से घबराते, हम बच्चों का दर्द सबकुछ नही....ताउम्र हमें हर झुलसते लम्हे से महफूज़ रखने वाले पिता,हमारे हर ताप पर ठंडे फाहे रखने वाले पिता....ज़िन्दगी भर संघर्षों मे जीने वाले पिता का कुदरत ने आखरी वक्त मे भी इम्तेहान ले लिया...)

Monday, July 27, 2009

अर्ज़ किया है.............,

ग़ालिब साहब का मशहूर शेर है,
इब्ने मरियम हुआ करे कोई,
मेरे दुख की दवा करे कोई,
जब तवक़्को ही उठ गई गालिब
क्यों किसी का गिला करे कोई........

ग़ालिब के मिसरे का दामन थामा....और मोबाइली मुशायरे में सुधीर ने कुछ शेर कह दिये....मुलाहिज़ा फरमाइये.....
जब ज़मीनों ने साथ छोड़ दिया..,
आसमानों का क्या करे कोई
रात भर इक सुबह को ढोता हूँ,
साथ मेरे उठा करे कोई,
काश होता कोई जो अपना भी...
हम जो बिखरें दुआ करे कोई.....

सुधीर

Monday, June 29, 2009

पिता का आँगन...वो आँगन पूरी उम्र जिसमें वो जाने कितने रिश्तों के बीज बोते रहे ...कुछ रिश्ते जन्म के साथ मिले उन्हे...कुछ रिश्तों को खुद पिता ने जन्मा...प्यार और अपनेपन के धागों से गूँथा एक एक रिश्ते को...खून और पसीने से सींचते रहे...अपना वतन गाँव छोड़कर मुफलिसी में दूसरे शहर आ बसे थे वो....कुछ साल बाद वही शहर सूबे की राजधानी बन गया...और घर से बेघर होकर अकेले अपने बूते अपना आशियाना बसाने वाले मेरे पिता का घऱ ....सरकारी कामकाज के लिये सिफारिशें लेकर आने ,तमाम रिश्तेदारों का पारिवारिक गेस्ट हाउस ....चार कमरों के घर में पाँच भाई बहन का समाना मुश्किल ...लेकिन पिता का प्यार....जो आता उस घर का हो जाता...कुछ सरकारी कामकाज होने तक ठहरते...कुछ सालों के लिये बस जाते........भाई....चाचा.... फूफा...संबंधों के जाने कितने नाम और चेहरे.....कोई अफसर बन गया.....कोई डॉक्टर...कोई रुतबेवाला नेता....घर आऩे वाले इन अपनों की आवभगत में लगे रहे हम बच्चों को भी कभी अहसास नहीं हुआ कि बस इतना ही था सबका साथ।....तब कभी महसूस ही नहीं हुआ कि उम्र भऱ जिस घऱ में नाते रिश्तों का मेला देखा....वो कभी खाली भी होगा...और मेरे पिता कभी होंगे इस कदर अकेले....और अपनों से बेदखल...कि उन अपनों का इंतज़ार करते वो दुनिया से भी चले जायेंगे...पर कोई उनकी खैरखबर लेने नहीं आयेगा....ज़िन्दा रहते भी नहीं..,मौत के बाद भी नहीं...कुछ मिनिटों के लिये बिलखती शोक जताती पिता की बहन ज़रुर आईं...लेकिन समाज के बनाये सूतक में भाई के घर का पानी भी नहीं पीया गया उनसे....
भला मौत के बाद भी बदला लेता है कोई.....पर कुछ अपनों ने मौत के बाद भी उन्हे नहीं बख्शा....जीते जागते इंसान से नहीं....लाश से भी ले लिया बदला कि हम तुम्हारे शोक में आँसू बहाने नहीं आयेंगे....
आखिरी साँस तक जिनका सेहरा डोली देखने की हसरत लिये पिता दुनिया से चले गये ....वो यूँ नहीं आये कि उनके नये सुहाग पर पिता की मौत का स्याह साया ना आ जाये.....
............पूरी उम्र हर बात का सही हिसाब किताब रखने वाले पिता संबंधों के समीकरण नहीं समझ पाये....रिश्तों की जमापूँजी का हासिल कुछ नहीं ....सारे नाते तो उनकी साँसों के पहले ही साथ छोड़ गये......तसल्ली है कि अपने आखिरी दिनों में अपनी यादद्दाश्त खो चुके मेरे पापा...ये भरम लिये ही गये कि सब उनके हैं....वो जान नहीं पाये....कि उनके बनाये रिश्तों के आँगन में मेरी माँ आज अकेली खड़ी है....................

Friday, June 12, 2009

अर्से बाद लौटना हुआ है...इस गुज़रे वक्त में अपने आँखों के आगे ज़िन्दगी छूटती देखी है मैने....और महसूस किया है मौत के खामोश कदमों को....पूरी ज़िन्दगी अपने हालात से जूझते रहे मेरे पिता आखिरी वक्त भी लड़े...मौत से.. पूरे एक महीने...चलता रहा साँसो से संघर्ष...लेकिन सिर्फ अपने हौंसले से हर बार ज़िन्दगी की हर जंग जीत लेने वाले मेरे पिता... आखिरी बाज़ी हार गये...हार भी ऐसी कि फिर लड़ने जूझने की कोई गुंजाइश भी नहीं...इस एक महीने में...पूरी ज़िन्दगी जी ली जैसे...और बेरहम मौत को भी देख लिया...लेकिन इस दौरान...कुछ लफ्ज़ कुछ लाईनें...वो मेरे मोबाइल और मेल पर आती रहीं...छोटी छोटी पातियाँ...वो कुछ बातें जो उम्र भर भूली न जायेंगी...कैसे ज़िन्दगी की उम्मीद बंधाते लफ्ज़...करीब दिखती मौत और नाउम्मीदी के बाद फिर अपना रंग बदल लेते हैं...और जीने की हिम्मत बंधाते हैं....सिखा देते हैं जीना....कि ज़िन्दगी हर हाल में चलती है.....पापा के बिना भी...मैं ज़िन्दा हूँ ना.....
....... मैं दुआ करूँगा तुम्हारे अब्बू के लिये...खुदा बड़ा कारसाज़ है...........

sorry to disturb.pls take care of your papa........

we all preying...सब ठीक हो जायेगा...keep faith.......

कल मार्निंग या शाम जब भी आपको टाइम मिले तो काली मंदिर चले जाना..माता रानी पापा को एकदम ठीक कर देगी।.....

we must accept finite disappontment but never loose infinite hope......

सच कड़वा होता है...तुम्हारे पापा की ज़िन्दगी अब बहुत दिन की नहीं है...हफ्ते भर वेन्टीलेटर पर रखेंगे...और क्या...बेहतर है सच का स्वीकारो और अपनी माँ का ख्याल रखो...( मेरे पापा के चले जाने के कोई बीस दिन पहले की है ये बात।)

....खुशियों के सब संगी साथी....दुख का भागी कोई नहीं.......सुख की रोशन रात सही पर दुख तो सब पर आना है...फिर सबकी आँखे खुल जानी...फिर यही दौर दोहराना है........

never mind.pls take care of your father first......

leave habib...wantd to know abt your father...क्या हुआ उन्हे....

...मैने बाबा से प्रेयर की है...तेरे पापा जल्दी ठीक हो जायेंगे..अपना भी ख्याल रख......

मैने आज खास नमाज़ तुम्हारे पापा के लिये...और हॉस्पिटल आकर भी मैने उन पर दुआ पढ़ी है..इंशाअल्लाह वो ज़रुर सेहतमंद होंगे...हिम्मत रखो सब ठीक हो जायेगा।

मैं जानती हूँ...अंकल जल्दी ठीक हो जायेंगे...जिनके पास तुम्हारे जैसी बेटी हो..उनको कुछ नहीं हो सकता।

दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना....

सुबह के पहले के अंधेरे में उदास होकर शमाँ मत बुझाओ...दुनिया हौंसले वालों के साथ होती है...सबठीक होगा...देखना।

septicemia,शेफाली जी एक ऐसी कन्डीशन है जिसके पीछे एक cause होता है ...आपने नहीं स्पष्ट किया की उसके पीछे क्या cause है ..किसी भी immuno.compromise pts के लिए ये स्थिति थोडी चिंता जनक होती है ...जैसे की daibetic ...मेरा फिल्ड dermatology है ... ओर यही सोचता हूँ की किसी physician की मदद की जरुरत आपको होगी..... आप detail दे तो .भोपाल में संपर्क सूत्र ढूँढने की कोशिश करता हूँ......मेल करिए .

पापा बोल नहीं सकते थे...लेकिन उनकी मौत के कुछ घँटे पहले मिली उनकी एक किताब उनके बच्चों को मौत देखना सिखा रही थी...we must learn to walk by the light within ourselves,even though at present that lightlight may be dim and muffled...पापा की थियोसोफिकल सोसायटी की किताब की चंद लाइनें....

the dim light in a dark night can show the path whatever better for us.life is a journey which goes on with our deed through our soul.sudhir..son of papa.

---------------फिर कोई उम्मीद नहीं...सारी दुआएँ बेअसर...और सबकुछ खत्म हो गया...लफ्ज़ों ने भी बदल ली अपनी आवाज़ अपने अंदाज़....

just heard abt ur father.sad.tk care.sorry to hear about sad demise of your father.

जो हुआ उस पर किसी का बस नहीं...तू हिम्मत रखेगी तो तेरी अम्मा को हिम्मत मिलेगी..वो ठीक रहेंगी...तो पापा की आत्मा को शाँति मिलेगी...

पापाजी का देहावसान का दुखद समाचार मिला...दुख की इस घड़ी में यही प्रार्थना है ईश्वर आपको ये बड़ा दुख सहने की हिम्मत दे।

इस दुख की घड़ी में हम आपके साथ है..भगवान आपको ये दुख सहने की हिम्मत दे...साहस ही आपका परिचय है।

सॉरी हमने आज ही किसी अखबार में पापा के देहावसान का समाचार देखा...हिम्मत रखना। अपना ख्याल रखना...

मैं तुम्हारा दुख समझ सकती हूँ..देखना वो वापिस आयेंगे..तुम्हारे बच्चे के रुप में..पिता अपनी लाड़ली बिटिया को अकेला कैसे छोड़ सकते हैं....


मैं भी उम्मीद करती हूँ वो वापिस आयेंगे....और मैं पापा की माँ बनूँगी......

Saturday, April 11, 2009

अजन्मे के नाम एक ख़त

वो उम्मीद से है...अभी उसकी कोख में उसके जिस्म का हिस्सा...उसका नन्हा सा बच्चा बन रहा है...किसी बीज की तरह पनप रहा है हौले हौले....वो सुनती आई है बड़े बूढ़ों से...जब पेट में होता है बच्चा...तो सब सुनता और समझता है...सीखता है...बचपन से सुनती आई है वो.....कि अभिमन्यू ने चक्रव्यूह से निकलने का गुर माँ के गर्भ में ही तो सीखा था......लेकिन आज यही एक बात उसे हैरान करती है...परेशान करती है..... वो नहीं चाहती कि उसके कोख में पल रही वो नन्ही सी जान...जानने लगे...समाज के साहूकार मर्दों को...और सुनने लगे मर्दानगी की वो आवाज़ जिसमें चाहे किसी मुकाम पर हो...औरत सिर्फ दोयम दर्जे की ही हकदार होती है..वो नहीं चाहती कि उसका बच्चा सुने उन बेइमानों को जो अपने ही तरह के मर्दों से गालियाँ तो सुन लेते हैं..लेकिन उन्हे बर्दाश्त नहीं होती किसी औरत के हुक्म की तामील...वो कभी नहीं चाहती कि उसका बच्चा कोख में ही सीख ले..औरत को सिर्फ जिस्म समझना...वो नहीं चाहती कि उसकी कोख का जाया वो सबकुछ करे...उसे अपने जिस्म में लिये जिससे रोज़ जूझती है उसकी माँ ...और रोज़ नई मुश्किलों से दो चार होती है...वो चाहती है कि कोख के अंधेरों में ही पहुँच जाये उस बच्चे तक इल्म की रोशनी..और वो सीख ले कि नौ महीने औरत ही अपने जिस्म में मर्द को पनाह देती है ...जिससे जन्मता है...वो दोयम दर्जे पर हो ही नहीं सकती...वो सिर्फ ये ना समझे कि उसका एहतराम उसकी माँ बहन और बीवी के ही हिस्से है...वो दुनिया में आने से पहले ही जान ले अच्छी तरह... कि हर औरत है उसके एहतराम की हकदार...क्योंकि उस औरत के बूते जन्मता है आदमी...और फिर चेहरा भले बदलता जाये लेकिन ...माँ...बहन...बीवी और बेटी की शक्ल में साये की तरह उम्र भर साथ चलता है....वो सिर्फ इतना चाहती है कि उसकी कोख में पल रही जान दुनिया में आये तो आदमी नहीं इंसान बनकर ......शिफाली

Tuesday, March 31, 2009

सर्द मौसम के गुले - शफ़्फाफ की मानिन्द,
अपने लक़ब की सी मासूम,
लहक और दिल मानूस दोनों में,
शिफ़ाली,तुम्ही हो आदाबे-अदबो-सहाफ़त

इक इस्में बाँग्ला जैसे तुम्हारी
अदा और हयात का तर्जुमान हो
जो बेनूर हैं ज़िन्दगी में कैसे भी
चाहें तो तुम उन्हे अपना रंग वक्फ कर दो

अपनी नामानिगारी से जो तुमने,
आवाज़ दी वो सदा- ए- बशर की है
धड़कते दिलों को थाम लेने वाले
तुम्हारे लफ्ज़े हरारत मैंने सुर्ख होते देखे हैं...

सर्द और तपन दोनों की हमनवाँ
क्या बेजोड़ नमूना हो तुम क़लम का,
रुदाद और खुशी हों एक जमा
क्या कोई करेगा जो तुमने किया है...

अपने नाम के मुताबिक तुम शिफ़ाली
उस रंग की रहनुमा बनी रहो
जिसमें जो कोई रंग डाल दे
और रंग ए शफ़्फ़ाफ वैसा ही हो जाये...

( मेरी तेहरीर से रुबरू होकर,मेरी तक़दीर की धूप छाँव के साथ मेरे मिज़ाज को जानने परखने वाले मेरे एक दोस्त ने मुझ पर ये एक नज़्म लिख्खी है....यूँ दुनिया में कामयाब लोग ही ज़िन्दा रहते नज़्म और कविता में उतर पाते हैं...मेरा नसीब है...कि इस नज़्म के साथ मुझे ये खुशकिस्मती बेनामी में ही मिल गई है....

Friday, March 27, 2009

हाथों की चंद लकीरों का.... क्या खेल है ये तकदीरों का

हाथों की लकीरों में नहीं,तकदीर की निशानियाँ,
बस,जूझना है, टूटना है,और फिर से दौड़ना
लोग कहते हैं वक्त होता है,
वक्त का इंतज़ार है मुझको...

Friday, March 20, 2009

साहिल पे मछुआरे भूखे

नदी पड़ी है नावो में......

पानी प्यास बढाता जाये

धूप लगे हैं छाँव में......

गुठले पड़ गये पांव में

आये जबसे तेरे गाँव में......

सुधीर

ये सुधीर की लाईनें हैं....किसी कागज़ पर नहीं उतरी मोबाइल के एसएमएस बॉक्स में यूँ ही रात की बेखयाली में सुधीर ने दर्ज कर दीं......लिखते हैं,खूब और खूबसूरत लिखते हैं.... लेकिन जो लिख्खा वो अब तक दुनिया की नज़्र नहीं हुआ ....मेरे ब्लॉग पर अब अक्सर आप सुधीर को भी पढ़ सकेंगे......।

Friday, February 13, 2009

प्रेम एक दिवसीय

दो दिलों से शुरु होती रही प्यार की कहानी तो वही है....लेकिन रुह से निकलकर इश्क अब जिस्म हो गया है.... इश्क बदला तो बदल गया इज़हार ए इश्क का अंदाज़ भी....संत वेलेन्टाइन डे की कृपा हुई तो अपने दिल की ज़ुबाँ को आवाज़ देने तय हो गया दिन भी...प्यार के सहारे बाज़ार भी चल निकला...और भगवाधारियों की सियासत भी जिन्हे मोहब्बत के इस खास दिन खिलाफत के ज़रिये मिलती हैं सुर्खियाँ....लेकिन इन सारे तमाशों को देखते हुए सोचियेगा ज़रा क्या यही प्यार है.....
याद कीज़िये ज़रा वो ज़माना जहाँ दो फूल मिलते....और दो दिलों में प्यार हो जाता.....इज़हार ए मोहब्बत की हद दिखाने में एक मुद्दत तक शर्माता रहा सिनेमा भी....लेकिन समाज में वक्त के साथ ऐसा खुलापन आया...कि सरेआम हो गये प्यार के नज़ारे...पार्कों और बगीचों में हफ्तों और महीनों में बदलने वाला प्यार.....रुह से महसूस होने वाला अहसास था कभी, अब जिस्म की कहानी हो गया... ......वो वक्त भी था जब ज़ुबाँ खामोश रहती थी...फकत बोलती थी आँखे .....और प्यार हो जाता था...ज़ुबाँ तो अब भी खामोश है...लेकिन दो दिलों की बोली बाज़ार बोल रहा है....चीख चीख कर....हिन्दी फिल्मों में खिलौना समझकर दिल टूटा करता था...यहाँ खिलौनों के सहारे दिल मिलते हैं....पहले प्यार आया....फिर प्यार में बाज़ार...लेकिन इस तरह कि अब लगता है कि अगर बाज़ार ना होता तो मोहब्बत करने वाले इश्क के इज़हार के लिये ज़ुबाँ कहाँ से लाते......पॉश के लफ्ज़ों में प्यार करनाऔर लड़ सकना जीने पर ईमान ले आना , यही होता है धूप की तरह धरती पर खिल जानाप्यार करना और जीना उन्हें कभी नहीं आया जिन्हें ज़िन्दगी ने बनिया बना दिया....पर कौन यकीन करेगा इस ज़माने में कि सबकुछ खो देने के बाद जो आँखों से आँसू बनकर छलकता है...वही तो प्यार होता है.....

Saturday, February 7, 2009

एक आवाज़,
आवाज़ों के शोर में,
वो एक आवाज़......
अपनी सी,
आठ साल की खामोशी का लंबा वक्फ़ा....
फिर उस आवाज़ की खनक
ज़ेहन से उड़ा ले गई बीतों दिनों की धूल...
हर भूल भूला दी मैंने....
और आवाज़ के साथ खिंचती चली गई....
जाने कब पहुँच गई ज़िन्दगी के उस हिस्से में
जो अब सिर्फ यादों के हवाले है
वो एक वक्त,
कॉलेज के बूढ़े नीम के साये में जब हम दोनों किया करते
हर दर्द को साझा
ग्रेजुएशन में की पत्थरों की पढ़ाई
पर हर दुख में सिसकते
फूल जैसे थे हमारे दिल....
.हर दोस्ती की तरह क्लासरुम की बैंच से ही शुरु हुआ था
हमारी दोस्ती का सफर भी...
उसकी काइनेटिक पर फर्राटा भरते
कई बार नापा पूरा शहर.....
झील के किनारों पर बातों में खड़ी करते हम रोज़
ज़िन्दगी की नई तामीर,
आज उसी ज़िन्दगी में है हम दोनों ....
उसके सपनों से कुछ कमतर उसकी ज़िन्दगी,
मेरी ख्वाहिशों से कुछ कम मेरी ज़िन्दगी....
कॉलेज छूटे बरस गुज़र गये...
लेकिन आज मालूम हुआ....
कि मेरी तरह वो भी
इम्तेहान ही दे रही है अब तक.....
वो इम्तेहान,
जिसके नतीजे कभी नहीं आते....
सच कहूँ, तुम्हारे बाद,
ज़िन्दगी के हर मोड़ पर मिले कहने सुनने को अपने...
लेकिन सबके चेहरों पर मौसमी परतें थीं...
छलावे की, मतलब की परतें,
कोई ऐसा दोस्त नहीं मिला
जो मेरी खुशी में पाँच रुपये के दो गुलाब जामुन ले आये
मेरे ग़म में टिफिन भी ना खाये....
सेकेण्ड हैण्ड किताबों को खरीदते कम पड़ जायें जो पैसे
तो परीक्षा के दिनों में अपनी किताब मेरे हवाले कर दे
तुम्हारे बाद जानने पहचानने,अपना कहने वालों का मेला भी मिला.....
पर तुम उस भीड़ में कहीं नहीं थीं....
आठ साल पहले की बेतकल्लुफी से कहती हूँ
तू ही मेरी दोस्त है....

Wednesday, January 21, 2009

सुनों, झील की खामोशी....

एक शहर है भोपाल,सूखती झील के साथ खो रही है जिसकी पहचान भी...नवाब चले गये तो देश और दुनिया में झीलों के नाम से जाना जाता रहा भोपाल...सिर्फ आवाम की ज़रुरत ही नहीं...झील से इस शहर का जज़्बात का नाता है...आज जब झील दम तोड़ रही है...तो बोल रही है....अपने दर्द और अपनी खुशियाँ.....भोपाल की उसी झील की ज़ुबानी सुनिये उसकी अपनी कहानी......
..................मेरे खामोश किनारों पर कई कई बार आये हो तुम......दुनियादारी से हारकर तुम हमेशा मेरे ही पास आये.... पत्थरों से जूझती टकराती मेरी लहरें तुम्हे हर बार सिखाती रही ज़िन्दगी के सबक .....मैं खामोश थी पर तुम बोलते रहे.....कभी दर्द लेकर आये मेरे पास और छलक आये तुम्हारे आँसू...कभी खुश हुए तो मेरी झूमती लहरों के साथ तुम भी झूमे,इठलाये कई कई बार...तुम्हारी प्यास बुझाती रही....बनी रही तुम्हारे शहर की शिनाख्त...आता कोई मेहमान,तो इस्तकबाल में ज़रुर होता मेरा नाम....और तुम आने वाले का झीलो की नगरी में स्वागत करते...तुम्हारे बदलते प्यार की खामोश गवाह रही हूँ मैं.....और आज तुम गवाह बन रहे हो मेरी छूटती साँसों के...

कुदरत नाराज़ होती रही...और तुम बेदर्द....सिला ये हुआ कि तुम्हारी प्यास बुझाते बुझाते मेरी हड्डियाँ निकल आईं...बढ़ते गये मेरे किनारे और इतने बढ़े कि दूर से मुझे निहारने वाले तुम मुझ पर पैर रखकर चले आये.....पर तसल्ली है कि देर से ही सही तुम्हे मेरा ख्याल तो आया....मेरे लिये तुमने अपना पसीना बहाया....तुम्हारे हाथों में पड़े छाले ये अहसास कराते होंगे तुम्हे कि तुम्हारे लिये सचमुच ज़रुरी हूं मैं....
तुम्हारी प्यास बुझाती हूँ...तो मल्लाहों की रोटी हूँ मैं....कभी मुझमें तैरती थीं ये कश्तियाँ अब थम गई हैं...और थम गया है इनका रोज़गार भी.....मेरे साथ ही सुबह से शाम कर देते ये मछुआरे भी उदास हैं....
वक्त के साथ मेरे किनारों के पार बदलता रहा सबकुछ....पर मेरा और तुम्हारा रिश्ता नहीं बदला.......ये मै नहीं,मेरी खातिर उठे ये हज़ारों हाथ कहते हैं....मेरी साँसों को थाम लोगे तुम...मैं फिर जी जाऊँगी....मुझे ज़िन्दा रखने की तुम्हारी दुआएँ कुबूल हों....पर एक दुआ मेरी भी है....इस बार तुम मेरा मोल जान जाओ....यकीन मानों तुम्हारी तरह जीना चाहती हूँ मैं भी.......तुम्हारी झील.

( झील की खामोशी को ज़ुबाँ देते लफ्ज़ मेरे हैं....लेकिन झील में डूबती साँझ की ये खूबसूरत तस्वीर मेरे दोस्त नीरज ने भेजी है)

Saturday, January 17, 2009

एक अजीब खामोशी जम गई है चेहरे पर,
कुछ कहा नहीं जाता,
कुछ सुना नहीं जाता
और सच कहूँ तो कुछ लिखा भी नहीं जाता......
अबकि
जाने क्या बात हुई है....
( कई कई बार ब्लॉग की स्लेट खाली भी छूट जाती है....जब ज़ेहन की मुश्किलें,दिल की स्याही में मिल जाती हैं....फिर कुछ कहा नहीं जाता...बड़ी साफगोई से अपनी बयानी कर दी है....जल्द फिर मिलूँगी एक नई पोस्ट के साथ, मेरा वादा है.....)

Thursday, January 8, 2009

वो अंग्रेज़ी वाले...

वो अंग्रेज़ी वाली है...इसे सिर्फ एक वाक्य मत समझिये...ये एक लाइन बहुत कुछ कहती है...अंग्रेज़ी वाले सातवें आसमान से उतरे हैं ज़मीं पर...वो ज़मीन से दो फुट ऊपर हैं...वो ज्ञान के देवता है...वो सबकुछ हैं...और इसी में जुड़ा होता है ये एक भाव...और तुम कुछ नहीं...मेरे आसपास भी अंग्रेज़ीवाले और वालियों के किस्से कहानियाँ रोज़ होते हैं...ताज्जुब करेंगे जानकर कि हिन्दी पत्रकारिता में जहाँ एक एक शब्द सीखते समझते अखबारों में चप्पलें रगड़ते टीवी चैनलों तक पहुंचते हैं लोग....वहाँ सिर्फ अंग्रेजी के चार लफ्ज़ों से कई नौकरी पा जाते हैं...मज़े की बात ये है कि अंग्रेज़ी भी ऐसी नहीं कि मौका पड़े तो एक खबर ही बना लें अंग्रेज़ी में...वही चार जुमले...जो महानगरों के बाज़ारों रेस्तराँओँ में कान में बगैर पूछे चले आते हैं...हिन्दी की पत्रकारिता करते हैं...लेकिन हिन्दी ना बोल पाते हैं...ना लिख पाते हैं...उस पर अंग्रेज़ी में इस बात का तुर्रा भी कि अजी हम हिन्दी नहीं जानते...हिन्दी अंग्रेज़ी का रोना बहुत सालों पुराना है...उसमें नहीं जाऊँगी...मेरी पीड़ा सिर्फ इतनी है कि हिन्दी का दम भरते...हिन्दी में जूझते सीखते मेरे जैसे तमाम लोग कब तक इस जुमले से दरकिनार होते रहेंगे....कि नहीं भई,बड़ा फर्क है...आखिर वो अंग्रेज़ी वाले हैं.......