Saturday, February 7, 2009

एक आवाज़,
आवाज़ों के शोर में,
वो एक आवाज़......
अपनी सी,
आठ साल की खामोशी का लंबा वक्फ़ा....
फिर उस आवाज़ की खनक
ज़ेहन से उड़ा ले गई बीतों दिनों की धूल...
हर भूल भूला दी मैंने....
और आवाज़ के साथ खिंचती चली गई....
जाने कब पहुँच गई ज़िन्दगी के उस हिस्से में
जो अब सिर्फ यादों के हवाले है
वो एक वक्त,
कॉलेज के बूढ़े नीम के साये में जब हम दोनों किया करते
हर दर्द को साझा
ग्रेजुएशन में की पत्थरों की पढ़ाई
पर हर दुख में सिसकते
फूल जैसे थे हमारे दिल....
.हर दोस्ती की तरह क्लासरुम की बैंच से ही शुरु हुआ था
हमारी दोस्ती का सफर भी...
उसकी काइनेटिक पर फर्राटा भरते
कई बार नापा पूरा शहर.....
झील के किनारों पर बातों में खड़ी करते हम रोज़
ज़िन्दगी की नई तामीर,
आज उसी ज़िन्दगी में है हम दोनों ....
उसके सपनों से कुछ कमतर उसकी ज़िन्दगी,
मेरी ख्वाहिशों से कुछ कम मेरी ज़िन्दगी....
कॉलेज छूटे बरस गुज़र गये...
लेकिन आज मालूम हुआ....
कि मेरी तरह वो भी
इम्तेहान ही दे रही है अब तक.....
वो इम्तेहान,
जिसके नतीजे कभी नहीं आते....
सच कहूँ, तुम्हारे बाद,
ज़िन्दगी के हर मोड़ पर मिले कहने सुनने को अपने...
लेकिन सबके चेहरों पर मौसमी परतें थीं...
छलावे की, मतलब की परतें,
कोई ऐसा दोस्त नहीं मिला
जो मेरी खुशी में पाँच रुपये के दो गुलाब जामुन ले आये
मेरे ग़म में टिफिन भी ना खाये....
सेकेण्ड हैण्ड किताबों को खरीदते कम पड़ जायें जो पैसे
तो परीक्षा के दिनों में अपनी किताब मेरे हवाले कर दे
तुम्हारे बाद जानने पहचानने,अपना कहने वालों का मेला भी मिला.....
पर तुम उस भीड़ में कहीं नहीं थीं....
आठ साल पहले की बेतकल्लुफी से कहती हूँ
तू ही मेरी दोस्त है....

6 comments:

इष्ट देव सांकृत्यायन said...

कविता लम्बी है, पर है प्यारी.

Vinay said...

बहुत उत्कृष्ट रचना है

---
चाँद, बादल और शाम

bijnior district said...

लेकिन आज मालूम हुआ....
कि मेरी तरह वो भी
इम्तेहान ही दे रही है अब तक.....
वो इम्तेहान,
जिसके नतीजे कभी नहीं आते....
सच कहूँ, तुम्हारे बाद,
ज़िन्दगी के हर मोड़ पर मिले कहने सुनने को अपने...
लेकिन सबके चेहरों पर मौसमी परतें थीं...
छलावे की, मतलब की परतें,
कोई ऐसा दोस्त नहीं मिला
जो मेरी खुशी में पाँच रुपये के दो गुलाब जामुन ले आये
मेरे ग़म में टिफिन भी ना खाये....
सेकेण्ड हैण्ड किताबों को खरीदते कम पड़ जायें जो पैसे
तो परीक्षा के दिनों में अपनी किताब मेरे हवाले कर दे
तुम्हारे बाद जानने पहचानने,अपना कहने वालों का मेला भी मिला.....
पर तुम उस भीड़ में कहीं नहीं थीं....
आठ साल पहले की बेतकल्लुफी से कहती हूँ
तू ही मेरी दोस्त है....

बहुत ही अच्छी कविता। बधाई
एक अनुरोध..कृपया सैटिंग में जाकर वर्ड वैरिफिकेशन हटा दें। यह टिप्पणी करने मे परेशानी पैदा करता है।

reena said...

I tried to dig a hole in the sky to store our friendship memories but then i thought how'll i go up to bring it back when we both will meet some day so i distributed it in all corners of our city so that i can pick and smell it when ever i want......
I'm proud to have you back finally.
Life is quite short SO No more 8 yrs ka gap..

kaho na said...

बहुत अच्छी रचना है,मित्रता एक एहसास है,सच्ची मित्रता जीवन भर रहती है. अखिलेश श्रीवास्तव

Unknown said...

I have tear in my eay.