एक पिता की सलामी,....
मेरे बीमार पिता ने मुँबई में आतंकियों से हुई मुठभेड़ की कोई तस्वीर नहीं देखी....वो नहीं जानते एटीएस चीफ करकरे को, वो कमाँडो गजेन्द्र सिंह और संदीप उन्नीकृष्णन को भी नहीं जानते..1971 के युध्द का हाल रेडियों पर सुनने वाले मेरे पिता ये भी नही जानते कि अब युध्द दो मुल्कों में नहीं होता...बेकसूरों को निशाना बनाते आतंकवादी अब सीधे सीमा के अंदर घुस आते हैं...पिता नहीं जानते कि वोटों के लिये अब नेता मासूमों की लाशों पर भी सियासत करने से नहीं चूकते....वो नहीं जानते कि खबरिया टीवी चैनल आतंकवादियों और देशभक्तों के इस युध्द को अपनी जान पर खेलकर किसी हिन्दी फिल्म के सस्पेंस,एक्शन,थ्रिलर के फार्मूले के साथ पेश करते हैं...और चैन से खाना खाते...रज़ाइयों में दुबके हम,अपने अपने घरों में मिनिटों में मौत बन रही ज़िन्दगी के रोमाँच को जीते रहते हैं हर घड़ी....मेरे बीमार पिता ने मुँबई का हाल मेरी आँखों से देखा मेरी ज़ुबान से जीया ....सेना की जाँबाज़ी के किस्से उनकी सूनी आँखों में चमक ले आते हैं ...सच्चे सपूतों पर गर्व करते चौड़ा हो जाता है पिता का सीना...सैनिकों के हौसले पर मुस्कुराते हैं और देशभक्तों की शहादत पर फक्र से कहते हैं...सेना के भरोसे ही तो हैं हम और हमारा भारत...बेटा.....ये नेता तो हमारे भरोसे हैं....।
Saturday, November 29, 2008
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9 comments:
आंखों से और जुबान से काफी कुछ और दिल से आप कह सकते हैं, वही किया आपने।
शुक्रिया
मीडिया समय रहते चेत जाय तो ठीक वरना लोगों ने तो अब वैसे भी उनसे नाता तोडना शुरू भी कर दिया है।
Word Verification को हटा दें तो टिप्पणी देने में सुविधा होगी।
एकदम सच कहा शैफालीजी
ये नेता तो हमारे ही भरोसे हैं और हम सैनिकों को।
कहाँ गये वे आमची मुंबई के नारे लगाने वाले नेता। तीन दिन में एक बार भी नहीं दिखे।
बिल्कुल सही कहा उन्होंने
ये वर्ड वेरिफिकेशन टिप्पणी करने में बाधक है इसे हटा देन तो अच्छा लगेगा
sharam naak baat yeh hai ki inhi police walo or sainiko ki baghiya udhedhne main media or hamare neta kabhi picche nahi rahete.
Woh us marathi manoos ko kahin dekha aapne jo abhi tak sher bana ghoom raha tha?
काश आपके पिता की तरह हर युवा भारतीय भी इतनी शिद्दत से देशभक्ति के जज्बे को जीता..
असली और सच्ची बात तो यही है -"सेना के भरोसे ही तो हैं हम और हमारा भारत...बेटा.....ये नेता तो हमारे भरोसे हैं....। " बवानात्मक पुट लिए प्रभावकारी लेखन .
दहशतगर्दी का जो खेल मुंबई के सीने पर खेला गया... अच्छा हुआ कि पिता ने उसका हाल बेटी के मुँह सुनकर जाना... वरना बहुत संभव था कि आतंक की असलियत और उसके ग्लैमरस प्रज़ेंटेशन के बीच पिता ये तय न कर पाते कि कौन-सा गुनाह ज्यादा बड़ा है... मौत का सामना करते लोगों की तरह, उनकी सलामती के लिए दुआ माँगते दिलों में दहशत भर देना भी आतंक ही तो है...
मैं इस पर क्या कहू...क्या लिखूं..समझ ही नहीं आता....आँखे भरने का मन भी नहीं है....जो कुछ करने का मन है....उसे कह नहीं सकता....बस इतना कहना है....कि देश की खातिर कुछ भी कर जाने वालों को हमारा सलाम....!!
हम क्या करे गाफिल....??!!
वहाँ कौन है तेरा...मुसाफिर....
जायेगा कहाँ.....
दम ले ले.....
दम ले...दम ले ले...
दम ले ले घडी भर...
ये समा पायेगा कहाँ...
पिघलता सा जा रहा है हर ओर
किसी बदलती हुई-सी शै की तरह.....
किसका कौन-सा मुकाम है...
किसी को कुछ
पता भी तो नहीं....
कभी रास्ते खो जाते हैं...
और कभी तो...
मुकाम ही बदल जाते हैं....
बदलता ही जा रहा है सब कुछ....
वजह या बेवजह...
किसी को कुछ भी नहीं पता
और जो कुछ पता है हमें...
वो कितना सोद्देश्य है...
या कितना निरक्षेप....
और कितना निस्वार्थ...
ये भी भला कौन जानता है.....
मगर जो कुछ भी
घट रहा है हमारे आसपास
वो इतना कमज़र्फ़ है....
और इतना तंगदिल...
इतना तंग नज़र है....
और इतना आत्ममुग्ध...
किसी को वह...
जीने ही नहीं देना चाहता...
सिवाय अपने ...
या अपने कुछ लोगों के....!!
तो क्या एक झंडे....
एक धरम....
एक बोली में...
सिमट जाना चाहिए
हम सबको
हम सातों अरब को....??
यही आज मै सोच रहा हूँ......!!
.मेरे बीमार पिता ने मुँबई का हाल मेरी आँखों से देखा मेरी ज़ुबान से जीया ....सेना की जाँबाज़ी के किस्से उनकी सूनी आँखों में चमक ले आते हैं ...सच्चे सपूतों पर गर्व करते चौड़ा हो जाता है पिता का सीना...सैनिकों के हौसले पर मुस्कुराते हैं और देशभक्तों की शहादत पर फक्र से कहते हैं...सेना के भरोसे ही तो हैं हम और हमारा भारत...बेटा.....ये नेता तो हमारे भरोसे हैं....।
बिल्कुल सच कहा आपने....!!
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