मोहल्ले पर ये मेरी दूसरी पोस्ट है....हो सकता है...बंगलों और एलीट क्लास के शानदार फ्लैटों में रहने वालों को सरकारी मकानों के मोहल्ले की ये मोहब्बत नागवार गुज़रे...लेकिन टूटते मोहल्ले मेरी निजी पीड़ा है...इससे पहले की पोस्ट में माँ के खाली मोहल्ले की कहानी थी....अब अपना दर्द बाँट रही हूँ...दशहरे के रोज़....मेरे घर का भी नंबर आ ही गया...मेरा कमरा...मेरी छत...नीम...आँगन...और आँगन के वो पटिये...जिस पर खेलते कूदते कब बचपन गुज़रा..कब जवान हुए..और कब उसी आँगन से मेरी डोली भी उठ गई ...बस एक फ्लशबैक की तरह बहुत तेज़ी से गुज़र गया सबकुछ...इतने दिनों में उस एनिमिक होते मकान को कभी गौर से नहीं देखा...वो जर्जर होता गया...पर उस घर की दीवारों ने...छत ने और बूढ़े होते दरख्तों ने कभी शिकायत नहीं की...ज़िन्दगी की मुश्किलें आसान करने वक्त से कदमताल करते हम,भागते रहे दिन रात...मौका ही नहीं मिला कि उन बोलते कमरों के सवालों का जवाब दे पाते...कुछ कह पाते...उस छोटे से घर में ,हर कमरे की अपनी कहानी थी...रेडियो वाला कमरा...राजधानी आने के साथ ग्वालियर से भोपाल आये मेरे पिता ने माँ के लिये जो रेडियो खरीदा...वो रेडियो सिलोन के साथ पहली बार इसी कमरे में तो बजा था...बरामदा पहले खेल का मैदान हुआ करता था...फिर जगह की कमी में वो भी एक कमरा बन गया...पीछे का आँगन..मुंडेर..और आम के साथ याराना निभाता वो सोझना...(सहजन को मेरी माँ इसी नाम से बुलाती है) घर की दीवारें तो पहले ही बोलती थीं...हम बड़े हुए तो भाई की कलाकारी के रंग भी इन दीवारों पर उतरने लगे...घर का भूगोल बस इतना सा ...दो छोटे कमरे एक रसोई और एक छोटा बरामदा...इसी में पूरी दुनिया...दो दीवानों की तरह आये मेरे माँ बापू का आशियाना....वो अजनबी की तरह आये थे इस शहर में....इस बस्ती में....पर मोहल्ले ने उन्हे इस तरह अपना बनाया कि इस मोहल्ले को छोड़ा ना गया....उस वक्त भी जब पिता नेइसी शहर में अपने सपनों का घरौंदा बसा लिया था....
हर विदाई पे भारी थी उस घर की जुदाई....अपने अपने घोंसले बना चुकीं कभी इस घर की चहकती बेटियाँ...लौट आई थीं उस दिन...अलमारी...पलंग...और ज़िन्दगी के लिये ज़रुरी असबाब ट्रकों में उँडेलते भाई के आँसू थम नहीं रहे थे....सबकुछ ट्रक में उँडेला जा चुका था...लेकिन घर फिर भी छूट गया था....ग्यारह बटे नौ......... पचास साल एक परिवार की शिनाख्त इस पते से होती थी...ये शिफ्टिंग नहीं....एक पूरे घराने, कई ज़िन्दगियों का तबादला है.......अब हम सब बंगले में आ गये हैं...आलीशान बंगला...लेकिन बंगले की दीवारों में घर ढूँढे नहीं मिलता....
Tuesday, October 14, 2008
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1 comment:
बहुत अच्छा लिखतीं हैं आप .... सहारा के समय से ही मैं आपके लेखन का कायल हूं ... शिफाली जी मैं सिर्फ टीवी पर ही आपसे मिला हूं... आप से बातचीत भी हमारे काम का हिस्सा मात्र रही है .... लेकिन इस पोस्ट को पढ़ कर मुझे लग रहा है कि आप कितनी भावुक हैं ... आंखें भर आयी और अपने गांव का वो घर याद आ गया जो करीब दस साल पहले छूट गया
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