..................मेरे खामोश किनारों पर कई कई बार आये हो तुम......दुनियादारी से हारकर तुम हमेशा मेरे ही पास आये.... पत्थरों से जूझती टकराती मेरी लहरें तुम्हे हर बार सिखाती रही ज़िन्दगी के सबक .....मैं खामोश थी पर तुम बोलते रहे.....कभी दर्द लेकर आये मेरे पास और छलक आये तुम्हारे आँसू...कभी खुश हुए तो मेरी झूमती लहरों के साथ तुम भी झूमे,इठलाये कई कई बार...तुम्हारी प्यास बुझाती रही....बनी रही तुम्हारे शहर की शिनाख्त...आता कोई मेहमान,तो इस्तकबाल में ज़रुर होता मेरा नाम....और तुम आने वाले का झीलो की नगरी में स्वागत करते...तुम्हारे बदलते प्यार की खामोश गवाह रही हूँ मैं.....और आज तुम गवाह बन रहे हो मेरी छूटती साँसों के...
कुदरत नाराज़ होती रही...और तुम बेदर्द....सिला ये हुआ कि तुम्हारी प्यास बुझाते बुझाते मेरी हड्डियाँ निकल आईं...बढ़ते गये मेरे किनारे और इतने बढ़े कि दूर से मुझे निहारने वाले तुम मुझ पर पैर रखकर चले आये.....पर तसल्ली है कि देर से ही सही तुम्हे मेरा ख्याल तो आया....मेरे लिये तुमने अपना पसीना बहाया....तुम्हारे हाथों में पड़े छाले ये अहसास कराते होंगे तुम्हे कि तुम्हारे लिये सचमुच ज़रुरी हूं मैं....
तुम्हारी प्यास बुझाती हूँ...तो मल्लाहों की रोटी हूँ मैं....कभी मुझमें तैरती थीं ये कश्तियाँ अब थम गई हैं...और थम गया है इनका रोज़गार भी.....मेरे साथ ही सुबह से शाम कर देते ये मछुआरे भी उदास हैं....
वक्त के साथ मेरे किनारों के पार बदलता रहा सबकुछ....पर मेरा और तुम्हारा रिश्ता नहीं बदला.......ये मै नहीं,मेरी खातिर उठे ये हज़ारों हाथ कहते हैं....मेरी साँसों को थाम लोगे तुम...मैं फिर जी जाऊँगी....मुझे ज़िन्दा रखने की तुम्हारी दुआएँ कुबूल हों....पर एक दुआ मेरी भी है....इस बार तुम मेरा मोल जान जाओ....यकीन मानों तुम्हारी तरह जीना चाहती हूँ मैं भी.......तुम्हारी झील.
( झील की खामोशी को ज़ुबाँ देते लफ्ज़ मेरे हैं....लेकिन झील में डूबती साँझ की ये खूबसूरत तस्वीर मेरे दोस्त नीरज ने भेजी है)
10 comments:
यकीन मानों तुम्हारी तरह जीना चाहती हूँ मैं भी....। काश इंसान वक्त रहते झील, नदियों, समुद्रों की कीमत समझने लगे......पानी की रवानी समझने लगे।
यकीन मानों तुम्हारी तरह जीना चाहती हूँ मैं भी.......बेहद उम्दा ख्याल।
बहुत ही बढिया बात कही आपने
---आपका हार्दिक स्वागत है
चाँद, बादल और शाम
तारीफ के लिए शब्द नही मिल रहे .....बहुत ही अच्छी
अनिल कान्त
मेरा अपना जहाँ
निराश ना हों. काम चल रहा है. अगले वर्ष अच्छी बारिश हो जाएगी तो झील की किस्मत पलट जाएगी. सामयिक चिंतन के लिए आभार.
http://mallar.wordpress.com
शिफाली जी
आपका एक-एक शब्द मानो, बड़ी झील के आंसू हैं। इन आंसुअों को बड़ी संजीदगी से मर्म के धागे में पिरोया है।
बधाई।
bahut umda
great discription about the cause which is the necessity in todays scenerio
sunder abhivyakti shefali ji,ek ek shabd khud ko bayan karta feel ho raha hai, Bhoapl ka koi bhi vashinda kavita me vyakt bhavo se khud ko alag nahi rakh sakta
झील हो या नदी... हमारे हाथों दिये जख्मों से ही कराह रही है... झील के साथ नदी का दर्द बाँट रहा हूँ...
पुल से गुज़रते हुए अक्सर सोचता हूँ
नदी के पास भी होती होंगी यादें
अपनी यादों में सहेजती होगी
हरे मैदानों का संग
पनघट की अल्हड़ गाथाएँ
कभी सुनाती होगी बैचेन किनारों को
पत्थरों के शालिग्राम बनने की कथा
जब कभी याद आते होंगे
हमारे हाथों दिये ज़ख्म
तो कराह के साथ निकल पड़ते होंगे आँसू
सोचता हूँ...
कहीं इन आसुँओं का नाम ही तो नहीं... नदी !
aapke dil ke x rey dekhe.kalam ki kirne dil se hokar panno par padi our chap gai hai jaise...apna khyal rakhna.
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