Wednesday, March 5, 2008

छोटे थे तो तय थे ज़िन्दगी के दायरे
और मकसद,
हसरतें रुई के गुड्डे
आटे की लोई की गुड़िया से
पूरी हो जाती
फिर चूड़ी
बिन्दी,
पीली फ्राक
सलवार कमीज़
भाई की तरह
पतलून,गाड़ी और पूरी आज़ादी
अब ये छोटी छोटी खुशियाँ तो
खरीद सकती हूँ
लेकिन हसरतें बदल गई हैं
उम्र एक ऐसे मुहाने पर खड़ी है
तय करना मुश्किल है,
कि ज़िन्दगी से चाहती क्या हूँ
एक कामयाब लड़की,
या गृहस्थी की गाड़ी में घिसटती
हर हाल में एक खुशमिज़ाज औरत.......
( 2005 में किसी दिन...तारीख याद नहीं कब लिख्खी थी...कविता है या अपने दिल को उँडेला है जो कह लीजिये...डायरी का पन्ना फट चला था सो,अपने ब्लॉग में इसे टाँक दिया।)

2 comments:

डॉ. अख़लाक़ उस्मानी said...

बहुत अच्छी नज़्म है शिफ़ाली। बहुत ख़ूब।

डॉ. अख़लाक़ उस्मानी said...

baurxबहुत अच्छी नज़्म है शिफ़ाली। बहुत ख़ूब।