Saturday, April 11, 2009

अजन्मे के नाम एक ख़त

वो उम्मीद से है...अभी उसकी कोख में उसके जिस्म का हिस्सा...उसका नन्हा सा बच्चा बन रहा है...किसी बीज की तरह पनप रहा है हौले हौले....वो सुनती आई है बड़े बूढ़ों से...जब पेट में होता है बच्चा...तो सब सुनता और समझता है...सीखता है...बचपन से सुनती आई है वो.....कि अभिमन्यू ने चक्रव्यूह से निकलने का गुर माँ के गर्भ में ही तो सीखा था......लेकिन आज यही एक बात उसे हैरान करती है...परेशान करती है..... वो नहीं चाहती कि उसके कोख में पल रही वो नन्ही सी जान...जानने लगे...समाज के साहूकार मर्दों को...और सुनने लगे मर्दानगी की वो आवाज़ जिसमें चाहे किसी मुकाम पर हो...औरत सिर्फ दोयम दर्जे की ही हकदार होती है..वो नहीं चाहती कि उसका बच्चा सुने उन बेइमानों को जो अपने ही तरह के मर्दों से गालियाँ तो सुन लेते हैं..लेकिन उन्हे बर्दाश्त नहीं होती किसी औरत के हुक्म की तामील...वो कभी नहीं चाहती कि उसका बच्चा कोख में ही सीख ले..औरत को सिर्फ जिस्म समझना...वो नहीं चाहती कि उसकी कोख का जाया वो सबकुछ करे...उसे अपने जिस्म में लिये जिससे रोज़ जूझती है उसकी माँ ...और रोज़ नई मुश्किलों से दो चार होती है...वो चाहती है कि कोख के अंधेरों में ही पहुँच जाये उस बच्चे तक इल्म की रोशनी..और वो सीख ले कि नौ महीने औरत ही अपने जिस्म में मर्द को पनाह देती है ...जिससे जन्मता है...वो दोयम दर्जे पर हो ही नहीं सकती...वो सिर्फ ये ना समझे कि उसका एहतराम उसकी माँ बहन और बीवी के ही हिस्से है...वो दुनिया में आने से पहले ही जान ले अच्छी तरह... कि हर औरत है उसके एहतराम की हकदार...क्योंकि उस औरत के बूते जन्मता है आदमी...और फिर चेहरा भले बदलता जाये लेकिन ...माँ...बहन...बीवी और बेटी की शक्ल में साये की तरह उम्र भर साथ चलता है....वो सिर्फ इतना चाहती है कि उसकी कोख में पल रही जान दुनिया में आये तो आदमी नहीं इंसान बनकर ......शिफाली

7 comments:

Shikha Deepak said...

ठीक कह रही हैं आप। अच्छा लगा आपका लेख।

मधुकर राजपूत said...

ये सारे प्रपंच तो पापी दुनिया में ही सीखने को मिलते हैं। समाज सिखाता है कोख नहीं। कोख में सीखने के दिन गए। अभिमन्यु के बाद कोई मिसाल नहीं सुनी। प्रपंची दुनिया से बचाने की कोशिश ही ठीक है न कि आवाज़ों से।

अनिल कान्त said...

behtreen likha hai aapne ....sach bayan karti rachna

नीरज श्रीवास्तव said...

मुझे लगता है कि उसे इस दुनिया और दुनियादारी के बीच ही पलना चाहिए... ताकि वो सीख सके दाँतों के बीच जीभ की तरह रहना... अपनी आज़ादी और महत्व के अहसास के साथ... साथ ही ये भी हमारी ही ज़िम्मेदारी है कि दुनिया में आने से पहले उसे फ़र्क करना भी सिखाएँ अच्छे और बुरे के बीच... और ये गुर भी... कि अच्छी दिखने वाली बुराइयों की पहचान कैसे की जाये...!

sanjay said...

behtareen

Rajeysha said...

Think differently!

Non_prejudice said...

Lajawaab!

gehri soch hai aapki

Regards!