ये धूँए का एक घेरा,कि मैं जिसमें रह रहा हूँ,
मुझे किस कदर नया है,जो ये दर्द सह रहा हूँ,
तेरे सर पे धूप आई,तो दरख्त बन गया हूँ
तेरी ज़िन्दगी में अक्सर मैं कोई वजह रहा हूँ,
मेरे दिल का हाल पूछो,मेरी बेबसी को समझो,
मैं इधर से बन रहा हूँ,मैं उधर से ढह रहा हूँ,
यहाँ कौन पूछता है यहाँ कौन देखता है,
कि ये क्या हुआ है मुझको,जो ये शेर कह रहा हूँ।
( दुष्यंतजी के घर जाना हुआ...वहीं एक फट चले लिफाफे पर नज़र गई...जिस पर दुष्यंत साहब की कलम मेहरबान हुई थी....और ये शेर कागज़ पे उतरे थे...,दिलो दिमाग में मचलती शायरी दुष्यंत कहीं भी उतार देते थे...कई बार सिगरेट की पन्नियों पर भी...)
Monday, September 1, 2008
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3 comments:
jaankari ke liy aabhar.
dushayant ji ki salgirah par hindi bhavan mai ayojit ek kraraykram me jane ka mouka mila tha kuch laine yaad a rahi appko is ashay se bhej raha hoon ki aapne dushayant ji par kuch lihka hai varna maine bahut sare blog padhe par kahin koi jikra na tha.........hath me angaron ko liye soch raha tha,koi mughe angron ki taseer bataye,,jese kisi bachhe ko khilone na mile ho,firta hoon kai yadon ko seene se lagae.
शिफाली,
तुम्हार ब्लाग देखकर अच्छा लगा। जहां तक मैं तुम्हारी फितरत से वाकिफ हूं, ये होना भी चाहिए था। हमने कभी सहारा एमपी में साथ काम किया था। अब मैं एनडीटीवी में हूं।
दुर्गानाथ स्वर्णकार
durgandtv@gmail.com
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