Wednesday, January 21, 2009

सुनों, झील की खामोशी....

एक शहर है भोपाल,सूखती झील के साथ खो रही है जिसकी पहचान भी...नवाब चले गये तो देश और दुनिया में झीलों के नाम से जाना जाता रहा भोपाल...सिर्फ आवाम की ज़रुरत ही नहीं...झील से इस शहर का जज़्बात का नाता है...आज जब झील दम तोड़ रही है...तो बोल रही है....अपने दर्द और अपनी खुशियाँ.....भोपाल की उसी झील की ज़ुबानी सुनिये उसकी अपनी कहानी......
..................मेरे खामोश किनारों पर कई कई बार आये हो तुम......दुनियादारी से हारकर तुम हमेशा मेरे ही पास आये.... पत्थरों से जूझती टकराती मेरी लहरें तुम्हे हर बार सिखाती रही ज़िन्दगी के सबक .....मैं खामोश थी पर तुम बोलते रहे.....कभी दर्द लेकर आये मेरे पास और छलक आये तुम्हारे आँसू...कभी खुश हुए तो मेरी झूमती लहरों के साथ तुम भी झूमे,इठलाये कई कई बार...तुम्हारी प्यास बुझाती रही....बनी रही तुम्हारे शहर की शिनाख्त...आता कोई मेहमान,तो इस्तकबाल में ज़रुर होता मेरा नाम....और तुम आने वाले का झीलो की नगरी में स्वागत करते...तुम्हारे बदलते प्यार की खामोश गवाह रही हूँ मैं.....और आज तुम गवाह बन रहे हो मेरी छूटती साँसों के...

कुदरत नाराज़ होती रही...और तुम बेदर्द....सिला ये हुआ कि तुम्हारी प्यास बुझाते बुझाते मेरी हड्डियाँ निकल आईं...बढ़ते गये मेरे किनारे और इतने बढ़े कि दूर से मुझे निहारने वाले तुम मुझ पर पैर रखकर चले आये.....पर तसल्ली है कि देर से ही सही तुम्हे मेरा ख्याल तो आया....मेरे लिये तुमने अपना पसीना बहाया....तुम्हारे हाथों में पड़े छाले ये अहसास कराते होंगे तुम्हे कि तुम्हारे लिये सचमुच ज़रुरी हूं मैं....
तुम्हारी प्यास बुझाती हूँ...तो मल्लाहों की रोटी हूँ मैं....कभी मुझमें तैरती थीं ये कश्तियाँ अब थम गई हैं...और थम गया है इनका रोज़गार भी.....मेरे साथ ही सुबह से शाम कर देते ये मछुआरे भी उदास हैं....
वक्त के साथ मेरे किनारों के पार बदलता रहा सबकुछ....पर मेरा और तुम्हारा रिश्ता नहीं बदला.......ये मै नहीं,मेरी खातिर उठे ये हज़ारों हाथ कहते हैं....मेरी साँसों को थाम लोगे तुम...मैं फिर जी जाऊँगी....मुझे ज़िन्दा रखने की तुम्हारी दुआएँ कुबूल हों....पर एक दुआ मेरी भी है....इस बार तुम मेरा मोल जान जाओ....यकीन मानों तुम्हारी तरह जीना चाहती हूँ मैं भी.......तुम्हारी झील.

( झील की खामोशी को ज़ुबाँ देते लफ्ज़ मेरे हैं....लेकिन झील में डूबती साँझ की ये खूबसूरत तस्वीर मेरे दोस्त नीरज ने भेजी है)

Saturday, January 17, 2009

एक अजीब खामोशी जम गई है चेहरे पर,
कुछ कहा नहीं जाता,
कुछ सुना नहीं जाता
और सच कहूँ तो कुछ लिखा भी नहीं जाता......
अबकि
जाने क्या बात हुई है....
( कई कई बार ब्लॉग की स्लेट खाली भी छूट जाती है....जब ज़ेहन की मुश्किलें,दिल की स्याही में मिल जाती हैं....फिर कुछ कहा नहीं जाता...बड़ी साफगोई से अपनी बयानी कर दी है....जल्द फिर मिलूँगी एक नई पोस्ट के साथ, मेरा वादा है.....)

Thursday, January 8, 2009

वो अंग्रेज़ी वाले...

वो अंग्रेज़ी वाली है...इसे सिर्फ एक वाक्य मत समझिये...ये एक लाइन बहुत कुछ कहती है...अंग्रेज़ी वाले सातवें आसमान से उतरे हैं ज़मीं पर...वो ज़मीन से दो फुट ऊपर हैं...वो ज्ञान के देवता है...वो सबकुछ हैं...और इसी में जुड़ा होता है ये एक भाव...और तुम कुछ नहीं...मेरे आसपास भी अंग्रेज़ीवाले और वालियों के किस्से कहानियाँ रोज़ होते हैं...ताज्जुब करेंगे जानकर कि हिन्दी पत्रकारिता में जहाँ एक एक शब्द सीखते समझते अखबारों में चप्पलें रगड़ते टीवी चैनलों तक पहुंचते हैं लोग....वहाँ सिर्फ अंग्रेजी के चार लफ्ज़ों से कई नौकरी पा जाते हैं...मज़े की बात ये है कि अंग्रेज़ी भी ऐसी नहीं कि मौका पड़े तो एक खबर ही बना लें अंग्रेज़ी में...वही चार जुमले...जो महानगरों के बाज़ारों रेस्तराँओँ में कान में बगैर पूछे चले आते हैं...हिन्दी की पत्रकारिता करते हैं...लेकिन हिन्दी ना बोल पाते हैं...ना लिख पाते हैं...उस पर अंग्रेज़ी में इस बात का तुर्रा भी कि अजी हम हिन्दी नहीं जानते...हिन्दी अंग्रेज़ी का रोना बहुत सालों पुराना है...उसमें नहीं जाऊँगी...मेरी पीड़ा सिर्फ इतनी है कि हिन्दी का दम भरते...हिन्दी में जूझते सीखते मेरे जैसे तमाम लोग कब तक इस जुमले से दरकिनार होते रहेंगे....कि नहीं भई,बड़ा फर्क है...आखिर वो अंग्रेज़ी वाले हैं.......