मिशन के जज़्बे के साथ,
पकड़ी थी कलम कभी.
पहले इस कलम की स्याही
बाज़ार के रंगो की
मिलावट से बदरंग हुई...,
फिर झोलाछाप लेखनी का उस्ताद
खरी खरी कहने वाला पत्रकार
कुछ खूबसूरत से चेहरों से
बदली हो गया,
एक माइक,
दो बाइट,
तीन वीओ के ढेर सारे पत्रकार
कई बार,
वो भी ज़रुरी नहीं,
बहस पुरानी है,
लेखक और पत्रकार में
फर्क है...,
पर अगर केवल सूचनाएँ
जुटाने वाला,
टीवी,अखबारों तक पहुँचाने वाला
पत्रकार है,
तो आम आदमी और खबरनवीस में फर्क किसलिये....,
खबरें गली के चौकीदार पर भी हैं..,
मोहल्ले के बदमाश पर भी..,
और समाज का भरोसा खो चुके नेता पर
भी हैं खबरें,
फर्क इतना है कि समाज के इन तबकों के पास
उस खबर को खबर बनाने की तमीज़ नहीं है..,
Wednesday, August 27, 2008
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2 comments:
बढिया.
शैफाली यूँ दर्द को जुंबा से बाहर न लाइए। कुछ लोगों को आज भी कलम पर तो कुछ को माइक पर भरोसा है....हम तो इतना कहते हैं कि कभी तलवार कहलाने वाली कलम की निब में जंग लग गऊ है स्याही पानी हो गई है लेकिन फिर भी आस है कि एक दिन जंग लगी निब औऱ पानी बन चुकी स्याही भी कमाल का रंग लाएँगी...दर्द बयां करने का अंदाज निराला है।
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