महीना भर,
हम जीते रहे किरदारों को
एक साथ कई कई किरदार
संग रोये,साथ हँसे
और बोये सपने अपने
अपने संवाद अच्छी तरह याद थे हमें,
पर्दा उठा नहीं कि समाँ जाते,
अपनी अपनी भूमिकाओं में
आत्मीय भूमिकाएँ
इतनी करीबी,इतनी अपनी
कि किरदार को अलग करना मुश्किल
फिर गिर गया पर्दा,
नाटक खत्म हुआ..
पोशाकों के साथ.
बदलने लगी भूमिकाएँ भी,
पर कुछ अदाकार
जो भूल ही नहीं पाये अपने संवाद,
जो निकल नहीं पाये अपने अपने किरदार से,
अब भी इस उम्मीद में हैं,
कि फिर खेला जायेगा नाटक,
फिर जीया जायेगा किरदारों को...
संग रोयेंगे,साथ हंसेंगे
और बोयेंगे सपने अपने.......
कविता बन पड़ी जानती नहीं...पर लंबे सफर पर निकले ये उन अपनों की बयानी है...जीवन की रस्सी पर पैर जमाते सब अलग अलग निकल गये...मैं उनमें से हूँ...जिन्हे ना वो किरदार भूला है....ना अपने संवाद.....।
Wednesday, August 13, 2008
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2 comments:
बहुत सही!!!
बहुत प्यारी है आप की कविता
शब्दशः प्रभावित की है आप की रचना ने .
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